क्वारंटाइन से इतना भय क्यों, यह काला पानी जैसी कोई सजा नहीं है

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क्वारंटाइन से कोरोना की बीमारी से बचाव हो सकता है। इससे इतना भय क्यों? यह काला पानी जैसी कोई सजा भी नहीं है। फिर भी इसका कई जगहों पर बेतुका विरोध हो रहा है।
क्वारंटाइन से कोरोना की बीमारी से बचाव हो सकता है। इससे इतना भय क्यों? यह काला पानी जैसी कोई सजा भी नहीं है। फिर भी इसका कई जगहों पर बेतुका विरोध हो रहा है।

क्वारंटाइन से कोरोना की बीमारी से बचाव हो सकता है। इससे इतना भय क्यों? यह काला पानी जैसी कोई सजा भी नहीं है। फिर भी इसका कई जगहों पर बेतुका विरोध हो रहा है। डाक्टर-नर्सें निशाने पर हैं। ऐसा क्यों हो रहा है, इसकी पड़ताल की है वरिष्ठ पत्रकार श्याम किशोर चौबे ने।

  • श्याम किशोर चौबे वरिष्ठ पत्रकार
श्याम किशोर चौबे
श्याम किशोर चौबे

एक खबर आई कि दिल्ली के कतिपय अस्पतालों के कई डाक्टरों और मेडिकल स्टाफ को केवल इसलिए क्वारंटाइन में रखा गया है, क्योंकि वे कोविड-19 संक्रमित मरीज के संपर्क में आ गए थे। सबसे पहले एक चिंताजनक खबर मिली थी कि इंदौर में संक्रमण की स्क्रीनिंग के लिए निकली एक मेडिकल टीम पर जानलेवा हमला किया गया। इसके बाद तो सिलसिला चल निकला। यहां तक कि रांची के हिंदपीड़ी में भी हड़बोंग मची।

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इतना ही नहीं, गुस्सा फैलानेवाली एक खबर यह भी वायरल हुई कि कुछ स्थानों पर क्वारंटाइन में रखे गये संक्रमण संदिग्धों की तीमारदारी में जुटे लोगों के साथ अभद्र व्यवहार किया गया। सवाल यह कि संक्रमण की जांच कराने का विरोध क्यों किया जा रहा है और विरोध करने वाले कौन लोग हैं? डाक्टर या मेडिकलकर्मी अंग्रेजों की वह पुलिस तो नहीं कि जंग-ए-आजादी में शरीक बंदे के परिवार या हित-मित्र को उठा ले जाएं, कोड़े लगाएं और सड़ियल-सी जेल में ठूंस दें। उनसे डरना कैसा? मौजूदा हालात में उनसे बेहतर कोई यार-दोस्त नहीं। यहां तक कि बेटा-बेटी भी नहीं। दुनिया की एक से एक हस्तियां क्वारंटाइन में रखी गई हैं। झारखंड के भी एक मंत्री को रखा गया। झारखंड की एक विधायक तो अमेरिका से लौटते ही घर जाने के बजाय खुद रिम्स में भर्ती हो गई थीं।

भले ही कोविड-19 की दवा विकसित नहीं हो पाई है, किंतु इससे प्रभावित जितने भी लोग दूसरी जिंदगी पा रहे हैं, इन्हीं डाक्टरों और मेडिकलकर्मियों की बदौलत ही। संक्रमण का संदेह होने पर जांच कराना ही एकमात्र रास्ता है और संक्रमण नहीं होने पर भी तसल्ली कर लेने में कोई हर्ज नहीं। चलता-फिरता मानव बम बनने से अच्छा है, मेडिकल सुविधाएं प्राप्त कर जियो और जीने दो की नीति पर अमल किया जाये।

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डाक्टर-वैद्य को पृथ्वी का भगवान यूं ही नहीं कहा जाता। अपने स्वास्थ्य का लाख ख्याल रखने, पौष्टिक आहार लेने, कसरत-योग करने, आदर्श आचार-व्यवहार के बावजूद शरीर आधि-व्याधि ग्रस्त तो होता ही है। इससे निजात ये डाक्टर-वैद्य ही दिलाते हैं। जरा सोचिए, कोविड-19 के प्रभावितों या संदिग्धों को क्वारंटाइन में रख उनकी तीमारदारी में लगे डाक्टरों को 22 दिनों तक घर-परिवार से दूर रहना पड़ता है। उन पर भी संक्रमण का खतरा तो मंडराता ही रहता है। हाल-फिलहाल देश में ऐसी कतिपय घटनाएं सामने आई भी हैं। सेवारत या प्रभावित डाक्टरों और मेडिकल स्टाफ के लिए निश्चय ही दुआ की जानी चाहिए, हे भगवान! इन भगवानों को बचाइए।

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विश्व संकट के इस क्रूर मौके पर सिक्के का दूसरा पहलू भी है। इस पहलू के भी दो पहलू हैं। गांव-कस्बों में झोलाछाप डाक्टर बेवजह लूट मचाए हुए हैं। दूसरी ओर शहरों में कतिपय डाक्टर ‘कोरोना छुट्टी’ पर हैं। वे अपने आरामगाहों में पड़े रहते हैं। जरूरत के वक्त भी उनके यहां से कह दिया जाता है कि बाहर गए हुए हैं। शासन-प्रशासन के लिए यह एक अद्भुत अवसर है कि वह निजी क्लिनिकों और अस्पतालों का सर्वे करा ले, ताकि पता चल सके कि इनमें मरीजों की आवक का क्या हाल है। कोरोना हंगामे के पूर्व तक ये क्लिनिक या अस्पताल मरीजों से ठसाठस क्यों भरे रहते थे? कहीं ऐसा तो नहीं कि हल्की-फुल्की बीमारी में भी उनकी जेब खाली करने के लिए भर्ती कर लिया जाता था और सुविधा के नाम पर मोटी राशि ऐंठ ली जाती थी। पहले जो बीमारियां होती थीं, उनमें से बहुतेरी कहां चली गईं? ऐसे डाक्टरों और उनके पालने वाले अस्पताल संचालकों के लिए तो कहना ही पड़ेगा, हे भगवान! ऐसे भगवानों से बचाइए।

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