- जुलाई महीने में दिल्ली में एक ही परिवार के 11 लोगों ने सामूहिक आत्महत्या कर ली थी
- हजारीबाग में एक ही परिवार के आधा दर्जन लोगों की लाश इस अंदाज में मिली कि पुलिस अभी तक इस घटना को आत्महत्या ही मान रही है
- रांची में 30 जुलाई 2018 की सुबह एक ही परिवार के सात लोगों की आत्महत्या की घटना प्रकाश में आयी है
यानी सिर्फ जुलाई 2018 यानी एक माह में सामूहिक आत्महत्या में 24 लोग अकाल मौत के शिकार हो गये। प्रथमदृष्टया तीनों घटनाएं सामूहिक आत्महत्या की प्रतीत होती हैं। पुलिस की लंबी और उलझाऊ जांच में इन मौतों की हकीकत बाद में भले किसी षडयंत्र के तहत हत्या की साबित हो जायें तो अलग बात है।
इन तीनों घटनाओं के पीछे सिर्फ और सिर्फ आर्थिक तंगी वजह बन कर उभरी है। 21वीं शताब्दी के भारत की यह भयावह तस्वीर है। यह तस्वीर तब सामने आ रही है, जब आर्थिक संपन्नता के ढिंढोरे पीटे जा रहे हैं। सबके विकास की बात हो रही है। सरकारें वोट के लालच में कर्ज माफ करती रही हैं। बड़े गर्व से यह दावा किया जाता रहा है कि भारत विकास की तेज रफ्तार पकड़ चुका है।
विकास की हकीकत बयां करतीं ये घटनाएं एक-दो दिन अखबारों की सुर्खिंयां बनने के बाद दूसरी बड़ी घटना सामने आते ही विलुप्त और अचर्चित हो जायेंगी। सरकारें इन्हें मुआवजा देने से भी मुकर जायेंगी कि ये आत्महत्या में हुई मौतें हैं। वैसे कड़वा सच यह है कि इन परिवारों में अब मुआवजा लेने वाला भी कोई नहीं बचा है। अगर बचा भी होता तो मुआवजे से इतनी बड़ी घटना की भरपाई भी नहीं हो पाती।
आश्चर्यजनक ढंग से तीनों घटनाएं शहरी इलाकों में हुईं। उन शहरी इलाकों में जहां जाने की लोगों में अकल्पनीय ललक पैदा हो गयी है। ग्रामीण इलाकों में भी ऐसी कुछ घटनाएं होती हैं, लेकिन इतनी वीभत्स तो कत्तई नहीं।
यह मनोवैज्ञानिक ही साफ बता पायेंगे कि समाज की यह स्थिति क्यों है। कहीं सामूहिक हत्याएं हो रही हैं तो कुछ जगहों पर उन्मादी भीड़ लोगों की पीट-पीट कर मार डाल रही है। अलबत्ता इतना तो साफ है कि आदमी की सहनशीलता खत्म हो रही है। लोगों को न सरकार से किसी मदद की अपेक्षा रह गयी है और न समाज से कोई उम्मीद।
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