दाउदनगर स्थित दाऊद खान का किला
सार्थक समय डेस्क : सोन नदी के किनारे बसा हुआ एक प्यारा सा शहर जो की ऐतिहासिक, साहियक, सांस्कृतिक तथा कलामक सोंच को आपस में जोड़ता है. दाउदनगर स्थित दाऊद खान का किला आज भी 17वीं शताब्दी का याद ताजा कराता है. दक्षिण बिहार के पलामू में विजयी रहे दाऊद खान तत्कालिन बादशाह अकबर के करीबी माने जाते थे. अधिकतर लोग का मानना है की पलामू में युद्ध जितने के बाद वापस जा रहे दाऊद खान ने वर्तमान दाउदनगर के क्षेत्र में आराम करने के लिए सैनिक कैंप डाला.
उसे यह क्षेत्र काफी पसंद आया, उसने दाउदनगर की शहर स्थापना की और वहां पर किला का निर्माण करवाया.
कुछ वर्ष के बाद दाऊद ख़ान को दिल्ली के मुग़ल सम्राट अकबर का कोपभाजन का शिकार होना पड़ा, अकबर ने अपने सेनापति को दाउदनगर भेजा, सेनापति मुनीम खान और दाऊद ख़ान के साथ 3 मार्च 1575 हुए जंग मे वह मुग़लों से हार गया था. इसके बाद भी दाऊद ख़ान ने दिल्ली मुग़ल बादशाह के क्षेत्रीय सेना के साथ बराबर युद्ध करते रहता था.
अंत में अकबर ने खान जहाँ कुली के नेतृत्व में एक नयी सुसज्जित सेना को दुर्जय शत्रु दाऊद ख़ान से युद्ध करने के लिए भेजा. दोनों के सेना के बीच राज महल के मैदान में भयंकर युद्ध कई दिन तक हुआ. यह युद्ध अकबर के लिए सर दर्द बनता जा रहा था. अकबर ने उस समय के बिहार के गवर्नर मुज्ज़फ्फर खान और अन्य जनरल को अपने सेनापति खान जहाँ कुली को मदद करने के लिए कहा.
दूसरी तरफ दाऊद ख़ान के साथ अफ़ग़ान लड़का जुनैद और कुतलु खान थे. दोनों सेनाओं के बीच भयंकर युद्ध हुआ 12 जुलाई 1576 को दाऊद ख़ान युद्ध हार गया और उस लड़ाई में दाऊद ख़ान मारा गया और इस युद्ध को मुग़लों ने जीता जिसके बाद दाऊद नगर किला का पतन होना शुरू हो गया.
दाऊद ख़ान – (1575- 12 जुलाई 1576) यह बंगाल के शासक सुलेमान खान के सबसे छोटे पुत्र थे. अपने पिता के शासन के समय यह बहुत बड़ी सेना का जिसमें 40,000 अश्वारोही, 36,00 हाथी, 1,40,000 पैदल सैनिक और 2,00 तोपों के साथ नेतृत्व करता था. इसी सेना को लेकर वह दक्षिण-पश्चिम भारत पर आक्रमण किया था.
सुरक्षा के नज़र से शहर में चार फाटक बनाये गए थे. जिसमें आज भी एक फाटक पुराणी शहर और नई शहर के बीच में मौजदू है. किला के सुरक्षा के लिए किले के चारों और दिवार बनी हुई है. तथा किला में प्रवेश के लिए दो प्रवेश द्वार बने हुए हैं. सैनिक के तैनाती के लिए दिवार के चारों और जगह बनी हुई है. किले के अंदरूनी क्षेत्र में ख़ुफ़िया सुरंग देखने को मिलती है. यह सुरंग कहाँ जाकर मिलती है इसकी जानकारी किसी को नहीं है. दाऊद खान के द्वारा बड़े सराय खाने का भी निर्माण कराया गया था. शहर में अभी भी एक सड़क सराय रोड के नाम से जानी जाती है.
अहमद अली खान ये नवाब जीवन खान के छोटे पुत्र और नवाब दाऊद खां के परपोता थे. 15 साल की उम्र में मोहम्मद शाह बादशाह के दरबार में हाजिर हुए. बादशाह ने खुश हो कर इलाहाबाद की सूबेदारी दिया. उसके बाद अजीमाबाद (पटना) की सूबेदारी से नवाजे गए. नवाब साहब अजिमाबाद के मोहल्ला मुगलपुरा पटना सिटी में रहा करते थे. कभी-कभी दाऊदनगर आया करते. एक बार राजा नोखा जिला शाहाबाद (रोहतास) दाऊदनगर आया. उस समय नवाब साहब दाऊदनगर में न थे. मैदान खाली पाकर दाऊदनगर किला के पश्चिमी दरवाजे को नष्ट कर डाला. ये खबर जब नवाब साहब को मालूम हुई तो जंग के लिए फौज के साथ नोखा पहुंचे. आखिर में नोखा किला फतह किया.
इसके बाद दाऊदनगर की नई शहर अहमदगंज की बुनियाद अपने धर्मगुरु सैयद शाह अब्दुल रशीद कादरी के हाथों से डलवाया. उनके मजार पर हर धर्म के लोग आकर मुरादें हासिल करते हैं.
जहाँ पे नवाब अहमद खान के समय में बनवाई गई मस्जिद अभी भी मौजदू है. दाऊद खान से जुडी हुई दाउदनगर वासियों के लए दो ऐतिहासिक धर्म स्थल भी मौजूद है. नवाब साहब का मज़ार और घोड़ेशाह का मज़ार जहाँ पे रज़ब के महीने के 10 तारीख को उर्स मनाया जाता है. जिसमें हर धर्म के लोग शामिल होते है. यहाँ के लोग के लिए एकता और गंगा-जमुनी तहज़ीब का मिशाल कायम करता है. दाऊद खान के समय उनके सैनिकों में जात जाती के लोग की प्रधानता हुआ करती थी. जिसके स्मरण में दाऊद खान ने एक इलाके को जाट लोग को समर्पित किया जो बाद में जाट टोला के नाम से प्रसिद्ध हुआ. लेकिन दुःख की बात यह है की मौजूदा समय में जाट जाती के लोग लुप्त हो गए है.
फ्रांसिस बुकानन की दाउदनगर यात्रा
आजादी से पहले कई अंगे्रज यात्रियों ने औरंगाबाद जिला (तात्कालिन गया जिला) की यात्रा की. जिसमें कनिघंम, विलियम डेनियल, फ्रांसिस बुकानन, हैमिल्टन का नाम महत्वपूर्ण है.फ्रांसिस बुकानन एक चिकित्सक थे. बंगाल चिकित्सा कोलकाता में उन्होंने चिड़ियाघर की स्थापना की. जो कलकत्ता (अब-कोलकाता) अलिपुर चिड़ियाघर के नाम से मशहुर है. बुकानन ने भारत में दो सर्वे किए. पहली बार 1800 ई. में मैसुर का एवं 1807 ई. से 1814 ई. तक बंगाल का 1811 से 1812 तक पटना – गया क्षेत्र का बैलगाड़ी से भ्रमण किया. जिनका संकलन ‘जर्नल आफ फ्रांसिस बुकानन‘ में है.
रास्ते का बनाया था नक्शा
बुकानन ने अपनी यात्रा के दौरान रास्ते का नक्शा बनाया और सर्वे भी किया. स्थान को खास लैंडमार्क से निश्चित दूरी को दर्शाया गया है.बुकानन की यात्रा के दौरान लिखी गई डायरी में शब्दों का चयन गजब हैं. उन्होंने जो देखा वही लिखा. उनकी लेखनी से उस समय की सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था के बारे में पता चलता है.बुकानन ने यात्रा के दौरान तय की गई दूरी का नक्शा बनाया जिसका स्केल है 16 मील= 1 ईंच.उन्होंने पटना से निकलने के बाद पूनपून नदी पार किया. पूनपून नदी के बारे में उन्होंने लिखा है कि उसकी चैड़ाई 100 यार्ड है और गया क्षेत्र के किसी भी पानी के स्त्रोत से ज्यादा पानी है. पूनपून नदी की बह रही धारा 30 यार्ड चैड़ी और 12 से 18 इंच गहरी एवं चैड़ी है. उसमें बह रहा जल अत्यंत निर्मल है.
दोपहर को वे पूनपून नदी के किनारे स्थित छिन्नमस्तिका माता मंदिर पहुंचे. मंदिर ध्वस्त की गई पूरानी मंदिर के ईटों से पूनः निर्मित है. वास्तुकला असाधारण है. मंदिर के अंदर छिन्नमस्तिका माता की मुर्ति है. वह एक लेटे हुए पुरूष के शरीर के उपर नृत्य कर रही हैं और प्रणय मुद्रा में है. माता खून की प्यासी हुै. उन्होंने अपना सिर स्वयं काटा है. उनके गर्दन से खुन की तीन धाराएं बह रही है. पहली धारा माता के कटे हुए मुख में दूसरी धारा हाथ में लिए हुए खप्पड़ में और तीसरी धारा जयकाल के मुख में, पास में ही गौरी शंकर की मुर्तियां है जो अमोद मुद्रा में है एक बैल की खुबसुरत प्रतिमाएं है जो तेल एवं सिंदुर से रंगी है. दो पुजारी बैठकर पुजा कर रहे हैं.
मंदिर बहुत छोटा है इसके चारों ओर अनेकों शिवलिंग है और यहां सन्यासियों ने धूनी रमाई है.06 फरवरी 1812 को फ्रांसीस बुकानन बैलगाड़ी के माध्यम से गोह होते हुए देवहरा पहूंचे. रास्ते में देखा की महिलाएं लाल घाघरे में है और बैद्यनाथ की तरफ पुरूषों के साथ कांवर लेकर जा रही है. साथ में जोर-जोर से नारा लगा रही हैं. बैद्यनाथ की तरफ आने-जाने वाले रास्ते में काफी मंदिर, मुर्तियां एवं उनके अवशेष बिखरे पडे़ है.
07 फरवरी 1812 को वे देवहरा से 10 मील की दूरी पर छोटे-छोटे गांव से होते हुए दाउदनगर पहूंचे. बुकानन लिखते है कि सड़कें बैलगाड़ी के चलने लायक थीं और रास्ते के दोनों तरफ कई मंदिर हैं.दाउदनगर में विश्राम किया और अपनी डायरी में रास्ते के विवरण को लिखा. 08 फरवरी 1812 को दाउदनगर के निवासियों से मनोरा गांव की प्रसिद्धि के बारे में सूनी और चार कोस की दूरी तय कर पहूंच गए. देखा की मनोरा गांव ऊंचाई पर बसा है. गांव के पूर्व दिशा में पूराना मंदिर है, जो घुमावदार है. दीवार बहुत मोटी है. मंदिर की बनावट अन्य मंदिरों की तुलना में अलग है.मंदिर में पद्मासन लगाए बुद्ध की प्रतिमा है. हाथ घुटनों पर है. दोनों पैर के पास पुजारी ब्राह्मण है. जिनको पाठक से संबोधित किया जाता है. मनोरा गांव के बारे में सारी जानकारियां दी. उन्होंने बताया की बुद्धपूजन उनकी संस्कृति नहीं थी.
बुकानन अपने जर्नल में लिखते है कि वह जमीदार ब्राह्मण मुझसे डर भी रहा था. उसे लगा रहा था की मैं यहां की जमीन पर कब्जा करने आया हूं. जमींदार ब्राह्मण मुझे कोल राजा के घर के खंडहर दिखाने को कहा जिसने इस बुद्ध मंदिर को बनवाया था. वह मुझे मंदिर से 200 यार्ड उत्तर की ओर ले गया जहां ईटों का खंडहर बिखरा पड़ा था. खंडहर लगभग 20 यार्ड वर्गाकार था. जिसकी सतह पर दो शिवलिंग स्थापित थे. पास में दो मुर्तियां थी. जिसमेें एक छोडे वासुदेव की मुर्ति स्थानीय लोग इसे महामा कहते है.
उसके बाद बुद्ध की बड़ी प्रतिमा को कलाकृति को निहारने लगा. मुर्तियां काफी सजी धजी थी. शिलालेख भी लिखा था. मनोरा से एक कास उत्तर की तरफ बोतारा ;इवनजंतंद्ध पहुँचा. स्थानीय लोगों ने बताया कि कोल राजा के खंडहर पड़े हैं. यह भी 20 यार्ड वर्गाकार एवं 20 फीट उंचा था. इसकी काफी सारी ईटें निकाली गई थी. मेरे अनुमान से यह पूजा का स्थान रहा होगा, कारण खंडहर में देव गौरीशंकर की टुटी हुई प्रतिमाएं थी. जिसे लोग सोका बोक्ता वांइवाजंद्ध कहते है. गांव के लोग इस खंहडर को चेरस कहते है. जो कोल राजाओं के राज्य के गवाह हैं.
फिर मैं दाउदनगर वापस चला आया. 11 फरवरी 1812 को दाउदनगर से 3 कोस दूर पूर्व की ओर चला गया वहां पर एक गांव आया जिसका नाम ताल है. गांव काफी लंबा चैड़ा था दक्षिण की तरफ दलदल था. जिसे कोेल का निवास स्थान बताया जाता है. दीवारों की मिट्टियों से दलदल का निर्माण हो गया होगा.यहां की मिट्टियों में ईटों एवं वर्तन के अवशेष पाए गए लेकिन जांच से किसी बड़े किले या मंदिर नही थे. दाउदनगर और हमीदगंज दो कस्बे है और दोनों के बीच में एक कोतवाली भी है. हमीदनगर की गलियां सीधी एवं चैड़ी है लेकिन कुछ गलियां पतली एवं टेड़ी-मेढ़ी भी है. चौड़ी गलियां मुख्य मार्ग से निकलती हैं रास्ते में झोपड़ियां अधिक संख्या में है.
दाउदखान जिसके नाम से इस शहर का नाम रखा गया, उसने एक सुंदर किलाबंद सराय का निर्माण कराया.। यह आयताकार है, ईट की दीवारों से निर्मित है.। उसमें सुंदर नक्काशी भी. दाउद खां के वंशज सराय के जीर्ण-शीर्ण भाग में अपना आवास बनाकर रह रहे थे. बुकानन के दृष्टिकोण से यह गढ़़ रहा होगा लेकिन अंग्रेजी सरकार के नजर से बचाने के लिए इसका प्रयोग सराय के रूप में किया जा रहा था.
दाउद खां केे बेटे ने भी एक सराय का निर्माण कराया जो हामीद के नाम से है. इसमें लंबी एवं चैड़ी गलियां है और दोनों तरफ गेट भी है. यहां पर छोटा भवन भी है जिसे स्थानीय लोग इमामबाड़ा कहते हैं. इसका रख-रखाव अच्छा है. गारे से निर्मित एक और भवन है. जिसे चैतेरा बोलते है. यह तीन मंजिला है, बढ़ते ऊंचाई में भवन शंकु के आकार का होते गया है. यह भवन घेरा रहित है और छत पंचाकृति में है. जो देखने में खास नहीं है. इसका आकार जयपुर के प्रसिद्ध भवन के जैसा मेल खाता है. इमामबाड़ी के पास दो नवाबों के स्मारक बने है. जो कि छोटे और अस्त-व्यस्त है.
दाउदनगर में मकानों की संख्या गया शहर से कम है लेकिन यहां के निर्मित मकान देश के अन्य साधारण लोगों के घरो के मुकाबले ज्यादा आरामदायक है. मकान मिट्टी एवं खपड़े से निर्मित है.12 फरवरी 1812 को दाउदनगर से 12 मील दूरी तय कर पहलेजा पहुंचा. बसंत ऋतु की पश्चिमी हवा के किनारे काफी हवा चल रही थी. कस्बे से चार मील दूर मैं शमशेर गंज या शमशेर नगर पहुंचा.। यहां बाजार एवं सराय है. जिसका निर्माण शमशेर खान ने करवाया था.बुकानन आगे लिखते है कि शमशेर खान को गांव के दक्षिण तरफ एक बगीचे में दफनाया गया था. यह बगीचा चारों तरफ से ईट से घेरा गया है.
शमशेर खान को स्थानीय लोग जबरदस्त खान के नाम से जानते थे. जिसका मतलब उसके हिंसक होने को दर्शाता है. शमशेर खान की शादी जोबन खान की बहन से हुई थी. फ्रांसीस बुकानन 12 फरवरी को ही अगनुर सराय अरवल विक्रमपुर मनेर होते हुए पटना की ओर प्रस्थान कर गए.दाउदनगर का इतिहास को खोजने में लिखने में कई लेखकों ने कलम चलाई, वे फ्रांसिस बुकानन हैंमेलटन के बाद दाउदनगर अनुमंडल के इतिहास को करीब 21 वर्षो से खोजने एवं जानने में लगे हैं.