बिहार के 89% लोग गाँव में रहते हैं और 70% लोग कृषि के कमाई पर ही निर्भर हैं। उपजाऊ मिट्टी और भरपूर पानी होने के बाबजूद कृषि बदहाल है। आजादी के समय मिथिला क्षेत्र में देश का 50% चीनी का उत्पादन होता था और आज वीरान पड़ी चीनी मिल की जमीन हमारी बर्बादी की दास्ताँ चीख-चीख कर कह रहीं है। गाँव-गाँव में पलायन, गरीबी, कुपोषण ने जड़ जमा लिया है और आज के समय में मजदूरों की तो बात छोर दें, किसान के बच्चे भी शहरों में मजदूरी करने को अभिशप्त हैं।
पूरे बिहार में 28 चीनी मिलें हैं, जिसमें वर्तमान में 18 बंद पड़ी हैं। रैयाम (दरभंगा), लोहट (मधुबनी), मोतीपुर (मुजफ्फरपुर), गरौल (वैशाली), बनमनखी (पूर्णिया) की ये पांच चीनी मिलें बंद पड़ी हैं और शकरी तथा समस्तीपुर वाली मिलों को सरकार ने बंद कर दूसरा उद्योग लगाने को दे दिया है | इन पांचों मिलों को खोलने के लिए बिहार सरकार के द्वारा कुछ सकारात्मक पहल पिछले दस साल में की गयी, लेकिन अभी तक ये चालू नहीं हो पायीं।
बिहार में सन् 1820 में चंपारण क्षेत्र के बराह स्टेट में चीनी की पहली शोधक मिल स्थापित की गई थी। 1903 से तिरहुत में आधुनिक चीनी मिलों का आगमन शुरू हुआ। 1914 तक चंपारण के लौरिया समेत दरभंगा जिले के लोहट और रैयाम चीनी मिलों से उत्पादन शुरू हो गया। 1918 में न्यू सीवान और 1920 में समस्तीपुर चीनी मिलों में काम शुरू हो गया। इस प्रकार क्षेत्र में चीनी उत्पादन की बड़ी इकाइयां तो स्थापित हो गईं, लेकिन आजादी के बाद के वर्षो में सारी चीनी मिलें एक साजिश के तहत बंद कर दी गयीं ।
2009 में सकरी और रैयाम को महज़ 27.36 करोड़ रुपये की बोली लगाकर लीज़ पर लेने वाली कंपनी तिरहुत इंडस्ट्री ने नई मशीन लगाने के नाम पर रैयाम चीनी मिल के सारे सामान बेच दिए। सन् 2009 में 200 करोड़ के निवेश से अगले साल तक रैयाम मिल को चालू कर देने का दावा करने वाली यह कंपनी मिल की पुरानी संपत्ति को बेचने के अलावा अब तक कोई सकारात्मक पहल नहीं कर सकी।
नये निवेशकों की रुचि चीनी उत्पादन में कम ही रही। वे इथेनॉल के लिए चीनी मिल लेना चाहते थे, जबकि राज्य सरकार को यह अधिकार नहीं रहा। क्योंकि 28 दिसंबर 2007 से पहले गन्ने के रस से सीधे इथेनॉल बनाने की मंजूरी थी। उस समय बिहार में चीनी मिलों के लिए प्रयास तेज नहीं हो सका। जब प्रयास तेज हुआ, तब दिसंबर 2007 में गन्ना (नियंत्रण) आदेश 1996 में संशोधन किया गया, जिसके तहत सिर्फ चीनी मिलें ही इथेनॉल बना सकती हैं। इसका सीधा असर बिहार पर पड़ा।
10 अप्रैल 2017 को जिस वक्त देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूर्वी चंपारन जिले के मोतिहारी स्थित गांधी मैदान से बिहार के गौरवशाली इतिहास के बारे में बता रहे थे, ठीक उसी वक्त कार्यक्रम स्थल से थोड़ी ही दूरी पर श्री हनुमान चीनी मिल के कुछ मजदूर व दो विधवाएं मौन सत्याग्रह पर थे। नरेंद्र मोदी ने जो कुछ कहा, उसे दुनिया ने सुना, लेकिन सत्याग्रह करने वाले लोगों की आवाज स्थानीय प्रशासन तक भी नहीं पहुंच सकी।
मौन सत्याग्रह करने वालों में शामिल दो विधवाएं 50 वर्षीय सूरज बैठा की पत्नी माया देवी व 48 वर्षीय नरेश श्रीवास्तव की पत्नी पूर्णिमा देवी थीं। सूरज बैठा और नरेश श्रीवास्तव वर्ष 2002 से बंद पड़ी श्री हनुमान चीनी मिल के श्रमिकों की यूनियन में शीर्ष पदों पर थे। सूरज बैठा ज्वाइंट सेक्रेटरी और नरेश श्रीवास्तव जनरल सेक्रेटरी थे।
वर्ष 2002 से ही चीनी मिल के मजदूरों को तनख्वाह नहीं मिल रही थी। दोनों चूंकि यूनियन में बड़े ओहदे पर थे, इसलिए मजदूर पेमेंट के लिए उन पर लगातार दबाव बना रहे थे, लेकिन, चीनी मिल प्रबंधन पैसे दे नहीं रहा था। दोनों काफी दिनों तक सत्याग्रह पर थे, लेकिन, कहीं से कोई आश्वासन नहीं मिल रहा था। मजदूरों की तनख्वाह के भुगतान की मांग व भुगतान नहीं होने पर आत्मदाह करने को लेकर उन्होंने राष्ट्रपति से लेकर जिला प्रशासन व स्थानीय छतौनी थाने तक को चिट्ठी लिखी थी, लेकिन कोई पहलकदमी नहीं हुई।
सूरज बैठा व नरेश श्रीवास्तव ने मजबूर होकर 10 अप्रैल को मिल के सामने आत्मदाह कर लिया था। उन्हें बेहतर इलाज के लिए पटना मेडिकल कॉलेज व अस्पताल ले जा गया था, जहां इलाज के क्रम में उनकी मौत हो गई थी।
- संतोष राज पांडेय