पत्रकार संजय कुमार सिंह ने बताई अपनी रेल यात्रा की पीड़ा 

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ट्रेन के भीतर का दृश्य
ट्रेन के भीतर का दृश्य

पत्रकार संजय कुमार सिंह ने बतायी अपनी रेल यात्रा की पीड़ा। उनका कहना है कि रेल तो भारतीय है, लेकिन कायदे अब भी अंग्रेजों के ही हैं। यात्री झेलते रहें। उन्होंने अपने फेसबुक वाल पर लिखा- भारत में रहना है तो लंबी दूरी की यात्रा के लिए भारतीय रेल का कोई विकल्प नहीं है। अंग्रेजों की रेल आजादी के बाद भारत सरकार चला रही है। पर, उसमें कायदे कानून अंग्रेजों के जमाने के ही हैं जबकि आम लोगों के पास विकल्प नहीं के बराबर है। कई मामलों में हवाई यात्रा का विकल्प (टिकट सस्ते होने पर भी) उपयोगी नहीं है क्योंकि हवाई अड्डे से अपने शहर की यात्रा के लिए भी अंततः रेल ही सहारा है। हिन्दी पट्टी में राज्य सरकारों की परिवहन निगम की बसों की खस्ता हालत और कई बार खराब सड़क या उनपर जाम या विरोध स्वरूप सड़क रोको आंदोलन का डर – सड़क मार्ग से चलना मुश्किल बनाता है। महंगा तो है ही। ऐसे में रेल यात्रा मजबूरी है। और मैंने महसूस किया है कि उच्च और उच्चतम श्रेणी की यात्रा भी कम कष्टदायी नहीं है।

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इस बार मुझे दिल्ली (आनंद विहार) से भागलपुर और वापस दिल्ली की यात्रा करनी थी। सोमवार, 27 मई का टिकट जब लिया तब प्रतीक्षा सूची का था और यात्रा से कुछ पहले तीन में से दो टिकट आरएसी हो गए। अब तीसरा टिकट आरएसी होगा कि नहीं यह कंफर्म नहीं और कोई विकल्प नहीं। विकल्प यह जरूर था कि टिकट रद्द करा दिए जाएं और यात्रा टाल दी जाए। पर वह मेरे लिए संभव नहीं था। ऐसे में तत्काल टिकट आजमाना एक विकल्प और था। पर उसके लिए टिकट बराबर पैसे और चाहिए। बहुतों के लिए यह मुश्किल होगा और जिसके पास इतने पैसे हों वह टिकट कंफर्म होने की संभावना के बावजूद ज्यादा पैसे में तत्काल टिकट खरीदे। महीनों पहले टिकट लेने और पैसे देने का कोई लाभ नहीं। तत्काल में टिकट मिल जाए तो पहले वाले टिकट में कैंसेलेशन चार्ज बेकार लगेगा।

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आप किसी भी तरह टिकट लेकर ट्रेन में सवार हो जाइए तो इस बार मेरे तीन बर्थ (पीएनआर 2259958490 कोच एचए1, 27 मई) ऐसे कोच में थे जो आधा सेकेंड एसी और आधा फर्स्ट ऐसी होता है। अमूमन इस कोच में यात्रा करने पर सेकेंड एसी में फर्स्ट एसी का सुख मिलता लगता है पर इस बार समस्या यह थी कि फर्स्ट एसी की तरफ दोनों भारतीय शैली के शौचालय थे और अगले कोच में भी दोनों भारतीय शैली के ही थे) वैसे तो यह फर्स्ट एसी की समस्या थी पर सेकेंड एसी की तरफ तो पाश्चात्य शैली वाला शौंचालय था बड़ी संख्या में मक्खियों से भरा था। शिकायत करने पर कार्रवाई तो हुई लेकिन शुरुआती स्टेशन से ऐसा क्यों था – राम जानें।

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इस तरफ का कोच पैंट्री वालों का था और कहने की जरूरत नहीं है कि वह उन्हीं की जरूरतों के लिए पूरा नहीं था और पैन्ट्री वाले हमारे शौंचालय का भी उपयोग करते रहे। आते समय हमारा आरक्षण कंफर्म था (पीएनआर 6327077696 कोच ए1, 31 मई) और दो बर्थ साइड के ऊपर नीचे और तीसरा चार में से एक ऊपर वाला था। यह मुझे पहले से मालूम था। जब दिया गया तभी। उस समय एक साथ तीनों और मेरी प्राथमिकता के अनुसार दो नीचे के बर्थ उपलब्ध नहीं थे तो इंतजार की महीने भर से ज्यादा की अवधि में कुछ नहीं हुआ जबकि इस बीच कई टिकटें रद्द हुई होंगी और मेरा बर्थ प्राथमिकता के आधार पर एडजस्ट होना था। पर भारतीय रेल आपकी परवाह नहीं करता है। एक बार जो बर्थ दे दिया गया वही रहेगा। ऐसे में बाकी के तीन बर्थ जिस परिवार का था वह आया और पर्दा तान कर फैल गया।

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बहन जी (साली साहिबा कहना उचित होगा) मां के यहां से लौट रही थीं तो मां-बेटे लगातार रो रहे थे। पति बेचारा इस हाल में नहीं था कि उससे कुछ कहा जा सकता। इस तरह, हम तीन लोग साथ यात्रा करते हुए भी अलग-अलग दो पर्दों में रहे। और सहयात्रियों का रोना देखते सुनते झेलते रहे। मुझे बचपन में पूछा जाने वाला सवाल याद आया जो शेर बकरी और पत्ते के साथ यात्रा कर रहा था और एक बार में किसी दो को ही ले जा सकता था। हमसे पूछा जाता था कि वह कैसे नदी पार करे कि अकेले छोड़ा गया शेर बकरी को न खाए और बकरी पत्ते को न खाए। भारतीय समाज में कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं और तीन बर्थ इस तरह अलग हों तो नाविक क्या करेगा यह मुसीबत आने पर सोचा जाएगा। हालांकि, आधा टिकट खत्म किए जाने से छोटा बच्चा पूरा बर्थ घेरे रहा (जो मां के साथ ही सोता) और जरूरतमंद को टिकट नहीं मिला।

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अब आता हूं समस्याओं पर। मेरा मानना है कि साइड के दो बर्थ सेकेंड एसी और थर्ड एसी में लगभग बराबर और एक जैसे हैं। पर सेकेंड एसी में उसी का किराया ज्यादा लगता है। और आम जनता को कोई परेशानी नहीं है। वे साइड के बर्थ मिलने को किस्मत और संयोग मानकर झेलते हैं। रेलवे अपनी ओर से इसपर कुछ करता तो नहीं दिखता है। साइड की नीचे वाली बर्थ अक्सर ऊंची-नीची होती है। इससे निपटने के लिए उसमें लोहे की एक पट्टी लगाई गई है पर इस बार हमारे बर्थ में वह पट्टी नहीं थी (फोटो 1)। इस बार उपयोग के लिए कोच के ए1 दोनों तरफ के वाले शौंचालयों समेत कुल एक शौंचालय पाश्चात्य शैली का था। यानी आठ में एक। एक तरफ आधा फर्स्ट एसी वाला कोच था और उसे पार कर सेकेंड एसी की तरफ एक और पाश्चात्य शैली का शौंचालय था। पाश्चात्य शैली वाले शौंचालय एक कोच के चार में कितने होने चाहिए यह रेलवे तय करे पर आठ में एक कम है और यह कोच को ठीक से सेट कर बढ़ाया जा सकता है। हालांकि वह भी आसान नहीं है। पर यात्री की सुविधा?

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मेरे कोच में उपलब्ध एक पाश्चात्य शैली वाले शौंचालय में कपड़े टांगने की खूंटी नहीं थी, वाश बेसिन में पानी नहीं आ रहा था, हैंड शावर और डोर क्लोजर भी नहीं थे। शौंचालयों में कहीं हैंडल नहीं था कहीं हैंड शावर नहीं। कहीं-कहीं उसे निकाले जाने के निशान मिले पर पाश्चात्य शैली वाले में उसे लगाने का कोई निशान नहीं था। कुल मिलाकर ट्रेन से यात्रा का एक लाभ यही है कि उसमें शौंचालय होता है पर उसकी दशा दयनीय थी। खिड़की का शीशा बेहद गंदा था और इन सबके बाद ट्रेन तीन घंटे लेट से पहुंची। जाते समय ट्रेन थोड़ी ही लेट थी पर थर्ड एसी के किसी यात्री की अटैची चोरी हो गई। यह हाल उच्च स्तर की ट्रेनों में एक, तथाकथित सुपरफास्ट विक्रमशीला एक्सप्रेस के सेकेंड एसी का है। स्लीपर क्लास और साधारण ट्रेन की दशा की कल्पना की जा सकती है। फोटो देखिए और हालात का अंदाजा लगाइए।

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