जम्मू और कश्मीर की सियासत का इशारा कहीं और है, आइये इसको समझने का प्रयास करें।
मोदी ने आज से लगभग 6 महीने पहले एक देश एक चुनाव को लेकर एक बहस छेड़ दी देश के सामने और उच्चतम न्यायालय एवं चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक संस्थाओं को मजबूर कर दिया कि ये इस बात पर अपनी टिप्पणी करें। तब उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जिन राज्यों का शासन एक वर्ष से ज्यादा बचा है बिना उनका समय पूरा किये ऐसा नही हो सकता तभी चुनाव आयोग ने भी एक वक्तव्य जारी किया कि माहौल को सही करने और एक साथ चुनाव कराने के लिए उन्हें एक वर्ष का समय चाहिए। भाजपा या यूं कहें एनडीए की सरकार अभी 22 राज्यों में है जिनमे 10 तो भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार है बाकी बैसाखी पर चल रही है।
लगभग जितने भी भाजपा शाषित प्रदेश है उनका चुनाव अगले 7 या 8 महीने में होने वाला है और बाकियों का समर्थन हटा कर सरकार न बन पाने की स्तिथि में राष्ट्रपति शासन और फिर छे महीने में चुनाव। जब तक लोक सभा चुनाव नजदीक आएगा ये 22 राज्य तो तैयार होंगे चुनाव के लिए बाकी बचे हुए में तब तक सेंध लग चुकी होगी, सरकारें गिरेंगी या गिराई जाएगी फिर चुनावी बिगुल फूंक दिया जाएगा।
ये लोग भी बखूबी समझ चुके हैं कि इनका सुनहरा गुब्बारा फुट चुका है, किसान, विद्यार्थी और व्यापारी परेशान हैं और अगर कुछ दिन और इंतज़ार करेंगे तो रही-सही ज़मीन भी खिसक जाएगी।
इसके पहले ही केजरीवाल फिर से अपने धरना मोड़ में आ चुके हैं और भाजपाइयों के उम्मीद से उलट उसे अपार समर्थन भी मिल रहा है दिल्ली के नागरिकों का और उसपर से बड़े क्षेत्रीय क्षत्रप भी उसके समर्थन में आ चुके हैं और बिना कांग्रेस के एकजुट होने में लग चुके है और उन्हें सफलता भी मिल रही है।
असली बात देखने की ये होगी कि इस राजनीतिक खेल में देश के नागरिकों के साथ कौन सा खेल खेला जाएगा? क्योंकि असली प्यादे तो नागरिक ही हैं जिनको जब चाहा सुनहरे सपने दिखाओ कुछ दलाल रूपी को कुछ बना दो वो अपने साथ सैंकड़ो बंदरों को ले ही आएगा जो डमरू की आवाज़ पर मदारी की बात मानते रहेंगे।
- जेएन ठाकुर