- रमेशचंद्र
तिजहरिया ढलने को आई। होली का दिन था। मगर होली नजर न आ रही थी। सभी अपने घरों में बंद थे। कस्तूरी से रहा न गया। सुनैना भाभी के घर पहुंची। पकवान तैयार कर सुनैना अब नहाने जा रही थी। कस्तूरी बोली- दीदी, अभिए नहाने जा रही हो। क्या होली न खेलोगी? पीढ़ा बढ़ाती सुनैना बोली- अब कोई रंग डाले तब न होली! अब उ बात कहां रही? एक समय था, जब तीन दिन पहिले से घर से निकलना दुशवार हो जाता था। दिन क्या, लोग रातो में रंग फेंक जाते थे। अब त सूखे-सूखे होली ऐसे सरक जाती है, जैसे राजधानी छोटका हाल्ट पर खड़े पैसेंजर को अंगूठा दिखाते निकल जाती है!
हां दीदी, तब कतना नीक लगता था, जब दस दिन पहिले से फगुआ शुरू हो जाता था। बाप रे, होली के दिन त किसिम-किसिम के गीत-गवनई होता था! देवर लोग त भगवाने घर से भौजाई पर कापी-राइट लेके आए हैं। बाकी बुढ़ऊ लोगन के भी होली के दिन बोली-भाखा बदल जाता था। धत, ओइसन होली अब कहाँ होती है?
सुनैना सुनाने लगी- जुम्मन चाचा जब ढोलक पकड़ लेते थे अउर बगेसर बाबा झाल धर लेते थे तो मय गांव उमड़ पड़ता था। सुर-ताल का ऐसा मेल कि क्या मज़ाल किसी से आखर गिर जाए। याद है, पहिले शिवबाबा के नाम से गायकी की शुरुआत होती थी- बम भोला हो लाल, कहवा रँगवलअ पागरिया..फिर होता था- बंगला में उड़ेला अबीर, आहो बाबा, बाबू कुंअर सिंह तेगवा बहादुर, बंगला में उड़ेला अबीर..!
सुनैना से रहा न गया, सो सुर में गाने लगी। फिर कस्तूरी ने टोका- दीदी, तब होली में धमार, झुमरा, जोगीरा, लटका और बाद में चटनी गाई जाती थी। सुन के सगरी देह सुरसुरी हो जाती थी- खेलब होरी हो खेलब होरी, आज अइहें मोर बलमुआ खेलब होरी..! ओह, कस्तूरी तो जैसे बीते दिनों में खो गई। सुनैना ने टोका- मारे, जब पहपट होता था त कतना मजा आता था- पांच रुपैया पिया पटना से भेजेले, हंसुली गढ़ाई कि छवाई बंगला, असरेसवा में चुए ला हमार बंगला..। सगरी रात गुजर जाती, होली ख़तम होने का नाम न लेती। अंत में गाया जाता- सदा आनन्द रहे एही द्वारे, मोहन खेले होरी हो..! आखिर बरिस-बरिस के तेवहार, कोई अकारथ कइसे जाने दे? सो मय गांव-जवार होली के रंग में नहाया रहता।
लगता कि आसमान से अबीर, गुलाल, रंग व धूल की बारिस हो रही है! धत, अब त युग बदला, आदमी बदला अउर बदल गया परब-तेवहार। पिछला साल त खैर करोना के भेंट चढ़ गया। कस्तूरी ने बात काटते कहा- अब देखो ना, होली के नाम पर मय लड़का-लड़की लोग गांव आया है, बेरा दोल्ह गया, बाकी कहीं किसी का आता-पता है? लेकिन ई सब हैं कहाँ? सुनैना ने उत्सुकतावश पूछा। मुंह बिचकाते कस्तूरी बोली- हूँह, होंगे कहाँ? सब अपने-अपने मोबाइल में समाए होंगे। आ रही थी तो देखा, लइकनी लोग बिंदा के दुआरे बैठी हैं। सब मोबाइल निहार रही थीं। अइसही लइका लोग बिपिन बाबा के पकड़ी तर मजलिस जमवले है। केहू से केहू के कवनो मतलब नइखे। जिसे देखो, मोबाइले में खोया हुआ है। पता ना, का निहारते रहता है? एगो से पूछा तो बोला- साथी-संघतियन को होली का सनेसा भेज रहे हैं। मन तो किया कि मोबइलवे छीन के फेंक दें। रे, जब इहे करना था त दिल्ली, पटना, धनबाद अउर गोपालगंज से का करने गांव आया? कुछ देर तक दुनू देयादिन बतियाती रहीं। फिर जब उठी तो चेहरे पर बरिस-बरिस की मुस्कान उभर आई..!
बिपिन बाबा के दुआर पर सचमुच जमावड़ा था। बैठे तो सब साथ थे, लेकिन किसी को किसी से मतलब नहीं था। कोई व्हाट्सएप्प में खोया था, कोई मैसेंजर में डूबा था। बचे बेचारे फेसबुक के तिलस्मी संसार में समाए थे। इसी बीच अचानक छपाक-सी आवाज़ आई। लगा कि आसमान से बादल का टुकड़ा सर पर आ गिरा। थोड़ी देर के लिए कुछ न बुझाया। लेकिन हमला कारगर था। सो, तीर निशाने पर लगा। जब नजरें उठीं तो सामने सुनैना व कस्तूरी भाभियाँ खिलखिलाकर हंसे जा रही थीं। जोर का झटका धीरे-से लगा था। छवछेदिया जीन्स से लेकर चेहरे भी रंगीन हो गए थे। फिर तो भाभियों ने भागना शुरू किया। पीछे देवरों की टोली हो गई। बिना देर किए दूसरा हमला बिंदा के दुआरे हुआ। मय लड़कियों के हाथ से मोबाइल फेंका गए। सभी रंगों में सराबोर हो गए। लम्हे न लगे, मूड होलियाना हो गया। फिर तो फगुआ ने अपना रुख पकड़ लिया। मय गांव रंगों में नहा गया। गीत-गवनई जब शुरू हुआ तो रात भर चलता रहा। भोर का समय था। सुनैना के दुआरे जब टोली पहुंची तो होली ने बीहड़ रूप धर लिया। बगेसर बाबा ने गाना शुरू किया- अंखिया भइले लाल, अंखिया भइले लाल, एक नींद सुते द बलमू हो, अंखिया भइले लाल..! उधर कस्तूरी मुस्कराए जा रही थी। आख़िर उसने युवा-पीढ़ी को तिलस्मी संसार से निकाल असलियत के धरातल पर जो ला पटका था..!