मैला आँचल का रूसी अनुवाद और फणीश्वर नाथ रेणु का संकट

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फणीश्वरनाथ रेणु का कथा संसार दो भिन्न भारतीय स्‍वरूपों के बीच खड़ा है। प्रेमचंद के बाद फणीश्‍वर नाथ रेणु को आंचलिक कथाकार माना गया है।
फणीश्वरनाथ रेणु का कथा संसार दो भिन्न भारतीय स्‍वरूपों के बीच खड़ा है। प्रेमचंद के बाद फणीश्‍वर नाथ रेणु को आंचलिक कथाकार माना गया है।

मैला आँचल का जब रूसी अनुवाद हो गया, तो उसकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गयी कि यह इसके लेखक फणीश्वर नाथ रेणु का के लिए संकट पैदा करने लगा। शोथ छात्रों से किस तरह उनकी मुठभेड़ हुई और कैसे इसका रूसी अनुवाद हुआ, यह पढ़े वरिष्ठ साहित्यकार की कलम सेः

  • भारत यायावर 

“मैला आँचल” का प्रकाशन 1954 में हुआ और देखते ही देखते यह हिन्दी के साहित्यिक जगत को प्रभावित करता चला गया। इससे प्रभावित होने वालों में हजारी प्रसाद द्विवेदी और नामवर सिंह भी थे। 1956 ई. में इन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के स्नातकोत्तर में इसे पहली बार पाठ्यपुस्तक के रूप में शामिल किया।

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उस समय रूसी भाषा के विद्वान चेर्निशेव बीएचयू से हिन्दी भाषा में शोध कर रहे थे। शोध पूरा करने के बाद एक दिन उन्होंने नामवर सिंह से पूछा, ” हिन्दी के सबसे महान उपन्यास का नाम बताइए, जिसका मैं रूसी भाषा में अनुवाद कर सकूँ।” नामवर सिंह ने उन्हें खरीद कर “मैला आँचल” की एक प्रति दी और कहा, “यह है हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास! आप इसका रूसी भाषा में अनुवाद कीजिए।”

चेर्निशेव ने उसे पढ़ना शुरू किया। पर समझने में जगह-जगह कठिनाइयाँ आतीं और वे शब्दों के अर्थ, वाक्यों की कथनभंगिमा को समझने की कोशिश करते रहते। हजारी प्रसाद द्विवेदी और नामवर सिंह उनके सहायक थे। एक-एक शब्द पर ठहर कर विचार करना, निरंतर समझने की कोशिश में लगे रहना। नोट्स से उनकी कई कापियाँ भर गईं।

फिर वे मास्को चले गए और “मैला आँचल” का रूसी अनुवाद तीन साल के कठिन परिश्रम से पूरा किया। अनुवाद को उन्होंने इतना तरल, भावपूर्ण, सरस और रचनात्मक बनाया कि यह रूस में बेहद चर्चित हुआ। 1960 ई. में “मैला आँचल” का रूसी अनुवाद प्रकाशित हुआ और लोकप्रियता के शिखर पर पहुँच गया। 1961 ई. में आस्ट्रिया की एक विदुषी ने अपनी भाषा में इसे अनूदित कर प्रकाशित करवाया। फिर लगातार इसका यूरोपियन भाषाओँ में अनुवाद होता चला गया।

(यहाँ मैं विषयांतर होकर कुछ और बातें बताना चाहता हूँ। मेरा सबसे अंतरंग मित्र अनिल जनविजय 1982 ई. में मास्को चला गया और वहीं घर-गृहस्थी जमाकर बैठ गया। उसने मैला आँचल का रूसी अनुवाद मुझे लाकर दिया। मैंने चेर्निशेव की लिखी उसकी भूमिका के अनुवाद के लिए वह प्रति जेएनयू के रूसी भाषा के प्रोफ़ेसर वरयाम सिंह को दी। न उन्होंने उसका अनुवाद किया और न वह प्रति ही लौटाई।

अनिल जनविजय मेरे जीवन का उत्साहवर्धक जड़ी-बूटी है। उसने मेरे लिए चेर्निशेव से भेंट कर उनके पास फणीश्वरनाथ रेणु के एक पत्र की प्रतिलिपि मुझे भेजी। रेणु जी ने रूसी लिपि में इसमें महात्मा गाँधी और अपना नाम लिखा था, जो तकनीकी कारणों से रेणु रचनावली में छप नहीं पाया। उन्होंने अपना पता और तिथि भी रूसी लिपि में लिखा था। रेणु जी के लिए मैला आँचल का रूसी अनुवाद बेहद उत्साहवर्धक था। उन्होंने चेर्निशेव को पत्र में लिखा था, “मैं इस पुस्तक को देखते ही पुलकित हो उठता हूँ। सुन्दर छपाई और सही तस्वीरें। हाँ, पृष्ठ 97 के पास जो रंगीन चित्र (गाँव के झोपड़े, नारियल के पेड़, तालाब और कई नर-नारी) है, वह सही-सही पूर्णिया के गाँव की तस्वीर है।” अनिल जनविजय ने मुझे आश्वासन दिया है कि रूसी मैला आँचल की भूमिका का अनुवाद शीघ्र भेजेगा।)

लेकिन लोकप्रियता भी अजीबोगरीब तरह की दुश्वारियाँ लेकर आती हैं। एक अद्भुत तरह का विकट प्रसंग हुआ, जिसे कभी-कभी रेणु जी रस लेकर सुनाया करते थे। बात 1962 ई. की है। रूस के हिन्दी भाषा में दक्ष कई छात्र-छात्राओं की एक टोली मेरीगंज की दीवानी हो गई। उस टोली ने तय किया कि रेणु के गाँव में रहकर देखा जाए। एक अदभुत रोमांच होगा! क्या मज़ा आएगा! वाह, भारत के सुदूरवर्ती गाँव को देखने की बात ही और होगी! जब उसकी तस्वीरों के साथ भारत के गाँव का वृतांत छपेगा तो पूरे रूस में सनसनी फैल जाएगी। मैला आँचल का गाँव जब इतना अचम्भा पैदा करता है तो साक्षात गाँव को देखना कितना करेगा।

यह सोच रूसी विद्यार्थियों की रेणु पर शोधकार्य करने वालों की थी। इनमें दो लड़कों के साथ चार लड़कियाँ रेणु से मिलने पटना पहुँचीं। तब रेणु राजेन्द्र नगर के अपने फ्लैट में रहते थे। रूसी विद्यार्थियों का दल एक बड़े होटल में ठहरा हुआ था। वे सब झुण्ड बाँधकर रेणु के घर आते और दिन भर उनका साक्षात्कार लेते रहते। उनकी रचनाओं पर लगातार चर्चा होती।

रेणु को इतना मान-सम्मान करने वाले अब तक न मिले थे। पर तब उनके सामने धर्म-संकट खड़ा हो गया, जब उन लोगों ने उनके गाँव जाने की इच्छा प्रकट की। रूसी दल के प्रस्ताव को स्वीकार करने का मतलब था गाँव में तमाशा खड़ा करना। लेकिन मैला आँचल के उदगम स्थल पर जाने का निर्णय लेकर ही वे मास्को से आए थे। एक रूसी लड़की ने आगे बढ़कर कहा, “यदि आप अपने साथ ले चलकर अपना गाँव दिखा दें, तो बड़ी कृपा होगी।”

रेणु को मानों काठ मार गया। वे तुरंत कुछ नहीं बोल पाए। फिर कहा, “मैं विचार करूँगा। एक-दो दिनों में आपलोगों को बताऊँगा।” वे रोज़ आते। गाँव जाने की उनकी उद्विग्नता बढ़ती ही जा रही थी। रेणु कतरा रहे थे। उन लोगों की असुविधा को भी देख रहे थे।

रेणु का गाँव बेहद पिछड़ा हुआ गाँव था। बाँस-फूस का उनका मकान। पर्याप्त ठहरने की व्यवस्था नहीं। न सड़क, न बिजली और न शौचालय! उसपर दिव्य रूसियों को देखने के लिए पूरे इलाके का टूट पड़ना! वे इन सबसे बचना चाहते थे। इसलिए गाँव ले जाने के नाम पर कतरा रहे थे। लेकिन उनकी रेणु के गाँव देखने की जिज्ञासा बलवती होती गई और वे इसे टालते रहे। वे भारी परेशानी में पड़ चुके थे। यह एक अजीब तरह की मुसीबत थी।

दूसरी तरफ रूसी दल अपने गाँव देखने की इच्छा पर डटा था। दल के लड़के-लड़कियाँ उनसे मुलाकात करते तो ताली बजा-बजाकर अपनी खुशी का इजहार करते :

“मज़ा आ जाएगा यार! गाँव, वहाँ फूस के घर! गाँव के सीधे-सरल किसान-मजदूर, काम करतीं औरतें, स्कूल जाते हुए बच्चे, ढोर चराते चरवाहे, बैलगाड़ी हाँकते हिरामन, धान-पटसन के लहलहाते खेत! रेणु जी के घर-परिवार को देखना, उनके साथ बैठकर चूड़ा-दही खाना! फिर फारबिसगंज शहर देखना! अद्भुत! अपूर्व! अनुपम! कितना नया अनुभव होगा!”

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रेणु सोचते रहते- इस भारत भूमि में तालस्ताय, चेखव, गोर्की भी जन्मे होते तो उपेक्षा की मार झेलने को विवश होते। वे मेरी तरह ही निर्धनता में जी रहे होते। काश, साहित्यकारों की कद्र रूसी लोग जैसा भारत के लोग भी करते! फिर वे रूसी छात्रों के साहित्यिक लगाव को देखकर सहसा आश्चर्य से भर उठते। वे सोचते कि ये विदेशी लोग काँटा-छुरी से खानेवाले, स्त्री-पुरुष सभी पैंट-शर्ट पहनने वाले, आधुनिक सुविधाओं से भरे-पूरे आलीशान होटलों में ठहरने वाले, कार पर चलने वाले, वहाँ ठेठ गाँव में कैसे जाएँगे? कैसे रहेंगे? कैसे खाएंगे? कैसे शौच जाएँगे? कैसे नहाएंगे? रेणु के सामने कई-कई प्रश्न थे। ये प्रश्न ही समस्याएं थीं। यही उनका संकट भी था। वे सोचते, सबसे जुलुम बात तो यह होगी कि ये विदेशी लोग जिधर से गुजरेंगे, गाँव के लोग इन्हें देखने के लिए जमघट लगा देंगे। बिल्कुल तमाशा बन जाएगा। रेणु ने उन्हें समझाया कि गाँव जाना सम्भव नहीं। पर वे ज़िद पर अड़े रहे। उन्होंने टालने के लिए कहा, “दो दिनों के बाद सोचकर बताऊँगा!”

दो दिनों के बाद रेणु ने उन्हें गाँव ले जाने से मना कर दिया। अब जब सभी जाने की जिद पर अड़े थे तो वे अपना-अपना तर्क देने लगे। एक ने कहा, “हम आपको कोई कष्ट नहीं देंगे। आपका कोई खर्च नहीं होगा। यदि ट्रेन से जाने में दिक्कत होती है तो हमलोग कार से चलेंगे। बस आप चलने के लिए हाँ कर दें।”

रेणु ने इन्कार करने का कारण बताया, “वहाँ जाने में कोई दिक्कत नहीं है। खाने-पीने, ठहरने की व्यवस्था भी हो सकती है। लेकिन छह काट और गद्दों की व्यवस्था कैसे होगी? ” एक रूसी लड़की ने आगे बढ़कर कहा, “जी, उसकी जरूरत क्या है? हम पुआल बिछाकर सो रहेंगे।”  रेणु ने पूछा, “खाने में दाल-भात-तरकारी होगी। बिना काँटे-चम्मच के कैसे खाओगे?” एक लड़के ने अपने दोनों हाथों को जोड़ कर दोने की तरह बनाकर मुँह में डालने का अभिनय करते हुए बताया, “जी, कोई बात नहीं है। हम लोग हाथ से ही आपकी तरह यूँ खा लेंगे।” उसके इस नाटकीय अंदाज पर सब खिलखिला कर हँस पड़े।

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अब रेणु ने गाँव नहीं ले जाने का अपना दूसरा तर्क दिया, “आपलोग हाथ से ही खा लेंगे। सो तो ठीक है। मगर गाँव में टायलेट नहीं होता है। वहाँ तो पाँच सितारा क्या, कोई भी होटल नहीं होता है। खुले में बैठकर शौच करना होता है। मुँह-अंधेरे उठकर शौच के लिए जाना होता है। तुम लोग ठहरे देर से सोने वाले और सुबह देर से जागने वाले! सोचो!”

लेकिन रेणु के दीवाने कहाँ मानने वाले थे। एक शोध-छात्रा ने खुशी से भरकर कहा, ” वाह-वाह, खुले में शौच? खुले आसमान के नीचे बैठकर शौच  करना तो और भी मजेदार होगा! कोई देखेगा तो उसका अपना थ्रिल होगा।… ये सब हम कर लेंगे। बस आप हमलोगों को लेकर चलने की हामी भर दीजिए।”

रेणु ने अपने मन में सोचा- खाक ठीक होगा। इन बन्दरों की टीम को गाँव ले जाने का मतलब है तमाशा करने जाना। उन्होंने प्रकट रूप में इन्कार कर दिया और समझाया, “इस बार तो मैं आपलोगों से सहमत नहीं हो सकता। आपलोग अगली बार जब आएँगे, तो मैं अपने गाँव में सभी व्यवस्था करके रखूँगा, तब अपने गाँव औराही-हिंगना ले चलूँगा। मेरी मजबूरी को समझिए।” रूसी शोध छात्रों ने रेणु की मजबूरी को पहले समझा। फिर लड़कियों को समझा कर राजी किया।

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रेणु के लिए यह विकट संकट था। ‘मैला आँचल’ की लोकप्रियता देश-विदेश में फैल रही थी और वे इस तरह के कई-कई संकटों से घिरते रहते थे।

संपर्क- यशवंतनगर, हजारीबाग- 825 301 (झारखंड), मोबाइल नंबर : 6207264847 

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