साहित्य के मुख्य विषय इस वर्ष क्या होंगे? अगर संवेदना साहित्य की आत्मा है तो निश्चत ही इस पर विचार होना चाहिए। कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अमरनाथ ने इस पर चिंतन किया है और संवेदनशील मुद्दे गिनाये हैं।
- अमरनाथ
संवेदना, साहित्य की आत्मा है। करुणा के दबाव से ही हमारे आदिकवि के कंठ से अनुष्टुप छंद फूटा था। ऐसे साहित्यकार बहुत कम होंगे, जिनका हृदय ठंढ में ठिठुर रहे किसानों के दर्द से द्रवित न हुआ हो। इसके पहले कोविड-19 के कारण अचानक हुए लॉकडाउन से लाखों विस्थापित मजदूरों की पीड़ा ने साहित्यकारों को मर्माहत किया था और उन प्रसंगों को लेकर असंख्य रचनाएँ रची गईं थीं, जिनमें से अधिकांश प्रकाशन की प्रतीक्षा कर रही हैं।
एक ईमानदार साहित्यकार सिर्फ आम जनता के प्रति जवाबदेह होता है। किसान आन्दोलन आजादी के बाद का सबसे बड़ा आम जनता का आन्दोलन है, जो आने वाले समय में भारतीय राजनीति की दिशा को भी प्रभावित करेगा। यह आन्दोलन देश के साहित्यकारों को अपना स्टैंड लेने के लिए चुनौती दे रहा है। इसलिए नए वर्ष में साहित्य का केन्द्रीय विषय किसानों और मजदूरों की समस्याएँ ही रहेंगी।
साहित्य सिर्फ समाज का दर्पण भर नहीं होता, बल्कि वह प्रेमचंद के शब्दों में “राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है।” किन्तु यह जरूरी नहीं कि राजनीति भी साहित्य के मशाल के प्रकाश का अनुगमन करे। पथ-भ्रष्ट हो रही राजनीति को सचेत करना मात्र साहित्य की जिम्मेदारी है। यह जिम्मेदारी इस वर्ष भी पहले की तरह साहित्य निभाएगा।
आज जो भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर हमले हो रहे हैं। हिन्दुत्व और उग्र राष्ट्रवाद को प्रश्रय मिल रहा है। लव जेहाद के विरुद्ध कानून के बहाने प्रेम पर जो पहरा बैठाया जा रहा है, इसका दूरगामी प्रभाव समाज पर पड़ेगा। क्योंकि प्रेम तो मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृति है। आने वाले दिनों में भी कानून को तोड़कर प्रेम करने वाले जोड़े समाज की संकीर्णता को चुनौती देंगे। फलस्वरूप सांप्रदायिकता बढ़ेगी और वह एक स्थायी भाव बन जाएगा। इस तरह सांप्रदायिक शक्तियों से लड़ने की एक बड़ी चुनौती साहित्यकारों के सामने दस्तक दे रही है। कहना न होगा, करुणा और प्रेम, साहित्य के केन्द्रीय भाव हैं। सदियों से प्रेम का गीत गाने वाला और श्रृंगार को रसराज घोषित करने वाला साहित्यकार भला इन मुद्दों पर कैसे चुप रहेगा?
साहित्य सर्जकों के सामने अपने संविधान को बचाने की भी चुनौती रहेगी क्योंकि संविधान ही है जिसके कारण साहित्यकार अपनी रचनाओं में व्यवस्था के विरुद्ध कुछ लिख पाने में कामयाब हो पाता है।
अगले वर्ष भी प्रकृति के विनाश पर साहित्य की नजर रहेगी ही, क्योंकि मनुष्य की इस आत्मघाती प्रवृति पर सबसे ज्यादा चौकन्ना भी वही रहता है। सदियों से चली आने वाली राज्याश्रय की परंपरा का साहित्य आने वाले दिनों में भी पद, प्रतिष्ठा और पुरस्कार के लालच में रचा जाएगा। सामंती युग के दरबारी साहित्यकारों की तरह शासक वर्ग की जनविरोधी नीतियों का बखान करने वाले ऐसे साहित्यकार प्रतिष्ठा भी पाएंगे।
नए वर्ष के स्वागत में मुझे उत्साह नहीं है, किन्तु जिस तरह पिछला पूरा वर्ष कोरोना की भेंट चढ़ गया, नया वर्ष उससे बेहतर होगा, ऐसी उम्मीद मुझे भी है।
यह भी पढ़ेंः श्रीभगवान सिंहः गाँधीवादी अध्येता और आलोचक(Opens in a new browser tab)