साहित्य में सावन का आनंद देखिए नरेश मेहता की नजर से

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मलिकाइन के पाती
मलिकाइन के पाती

मित्रो! आज दूसरा सप्तक के कवि के रूप में विख्यात और मालवा निवासी श्री नरेश मेहता के एक काव्यमय गद्य से आपको परिचय करवा रहा हूं। कदाचित आपमें से कुछ लोगों ने उन्हें पढ़ा हो क्योंकि पिछले साल इसी फोरम पर इसे शेयर किया था! ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हिंदी के यशस्वी कवि श्री नरेश मेहता  उन शीर्षस्थ लेखकों में हैं जो परंपरा और भारतीयता की अपनी गहरी दृष्टि के लिए जाने जाते हैं। श्री मेहता ने आधुनिक कविता को नयी व्यंजना के साथ नया आयाम दिया। रागात्मकता, संवेदना और उदात्तता उनकी सर्जना के मूल तत्त्व है, जो उन्हें प्रकृति और समूची सृष्टि के प्रति जिज्ञासु बनाते हैं। आगे आप स्वयं समझें। यह अंश उनकी “उत्तरकथा” उपन्यास का शुरुआती अंश है जो ललित निबंध सा अहसास करता है। आज इसका दूसरा अंश जो श्रावण मास के बारे में है:

श्रावणः मनुष्य की रचना प्रकृति ने उसके ‘स्व’ के लिए की ही नहीं है। वह तो सृष्टि मात्र के प्रतिनिधित्व के लिए जन्मा है। तभी तो मनुष्य आषाढ़ भर तो किसी प्रकार प्रतीक्षा करता है कि थोड़ी-सी बारिश हो तो नदी-नाले चलने लगें, हवा में थोड़ी ठंडक आ जाए, वृक्षों की वानस्पतिक उपस्थिति अनुभव होने लगे और ऐसी माधवता श्रावण आते-आते बहुत कुछ हो भी जाती है। जिस खिड़की से कभी लू की लपटें आती थीं, अब उसी से ठंडी वायरे के झोंकें रह-रह कर आने लगते हैं।

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इस बीच वृक्षों के पत्तें नहा लिए तो कैसी हरीतिमा आ गई न? मेघगर्जन पर ऐसा लगता है कि जैसे खम्भों पर जलती चिमनियां चौक-चौक पड़ रही हैं। घर-आंगन सभी जगह कैसी सुहावना लगने लगता है जैसे कोई मेहमान आने को है और अभी तक सतरंजी ओटले पर किसी ने बिछायी नहीं है। भला ऐसी रम्य, काम्य ऋतु में समस्त सृष्टि की ओर से अब मनुष्य को कोई उत्सव मनाने से रोक सकता है।  गोठों के लिए श्रावणी फुहार में भीगते हुए सुदूर वनों के जलाशयों तक जाने से कोई रोक सकता है?

आनंद के लिए उपकरण की नहीं, मन की उत्सवता चाहिए। जंगल में पीपल या वट वृक्ष के भीगे तने से पीठ टिकाये वर्षा में टाट सर से ओढ़े, ठंडी हवा में कांपते किसी ग्वाले, घोष से पूछिए कि तेज सपाटे मारती हवा में छितरी पड़ती बांशी की इस बेसुरी तान में क्यों आनंद आ रहा है! वर्षा की माधवता जब अंतर में संपन्न होगी तभी तो वर्षोत्सव अनुभव किया जा सकता है। गीली, भीगी गोधूली में गायों-भैंसों के साथ लौटना भी एक उत्सव है, यह अनुभव करने के लिए अपने अंतर में अनासक्त चरमोत्कर्षता चाहिए।

स्त्रियां हैं कि वर्षा थोड़ी-सी रिमझिम हुई और निकल पड़ीं। गांव के बाहर जिस आम या पीपल या नीम की शाखा थोड़ी नीचे हुई, उसी पर रस्सी का झूला डाला और हिचकोले लेने लगीं  और कहीं दो-चार हुईं तो रस्सी में पट्टियां फंसाया और दोनों ओर सखियां खड़ी हो गईं। कैसे हुमस-हुमस कर पेंगें बढ़ाईं जा रही हैं। बाल हवा के साथ छितरे पड़ रहे हैं। पल्लू का पता ही नहीं चल रहा है। रिमझिम में सारा मुंह कैसा छिंटा पड़ रहा है, जैसे कोई दूध की धार मुंह पर छींट रहा हो। झूले के साथ देह और देह के साथ हीरामन मन भी कैसा नीचे-उपर आ जा रहा है। जल को ठेलने की तरह ही हवा को भी ठेलते हुए ऊपर जाते समय सीने पर कैसा मीठा-मीठा सा दबाव लगता है, जैसे किसी का हाथ हो-किसका?

पर लौटते में पैरों के बीच से उड़ते लुगड़े के बीच से हवा की लकीर कैसी ठंडी-ठंडी सी, पिंडलियों को जांघों को थरथरा देती हैं। कमर तक सब सुन्न सा पड़ जाता है, जैसे रस्सी नहीं थामो तो बस अभी चू ही पड़ेंगे। और इस उब-चुभ में मन का रसिया हीरामन न जाने कितने नदी-नाले, गांव-कांकड़ संबंधों के औचित्य-अनौचित्य को लांघकर कैसे-कैसे सपने देखने लगता है कि किसी को उनकी जरा सी  भनक या आहट हो जाए तो फिर कुंए में ही फांदना पड़े। गीत की एक हिलोर ऊपर से नीचे को आती है और फिर हवा के दबाव में कैसे थरथराती ऊपर चली जाती है- चालो रे गामड़े मालवे !!! – झूले की यह उपकरणहीन मन की उत्सवता अर्धचंद्राकार स्थिति में आती है, फिर ऊपर आकाश में फिर कैसे पलटती है।

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ऐसी उत्सवता में सारे वन-प्रांतर, नदी-नाले, वनराजियां, पशु-पक्षी सभी तो नारी कंठ की इस आकुल रसमयता में अभिषेकित हो जाते हैं। मनुष्य की यह कैसी उत्सव-सुगंध है, जिससे समय की देह भी सुवासित लगती है। श्रावण में अरण्य की भांति आकंठ भीगना और क्या होता है?और श्रावण बीतते न बीतते श्रावण पूर्णिमा आ जाती है। तीज के लिए पीहर आई नवबधुएं पुनः लड़कियां बनी कैसे दुईपाटी के फूल लगती हैं। श्रावण पूर्णिमा के रक्षा बंधन के बाद फिर ससुराल लौट जाती हैं। अपने गांव के साथ कन्यात्व कैसा बांधा हुआ है; बाकी कहीं जाओ, बधू तो होना ही है।

  • प्रस्तुतिः बब्बन सिंह

 

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