- कृपाशंकर चौबे
अच्युतानंद मिश्र का हिंदी पत्रकारिता में पिछले पांच दशकों का अवदान असाधारण है। इस दौरान हिन्दी पत्रकारिता में उनकी धाक और साख अतुलनीय है। अच्युतानंद मिश्र ने जो धाक और साख इस दौरान बनाई, वह दूसरे किसी संपादक को मयस्सर नहीं हुई। अच्चुतानंद मिश्र ‘जनसत्ता’, ‘नवभारत टाइम्स’, ‘अमर उजाला’ और ‘लोकमत समाचार’ के संपादक रहे। वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे और वहां भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता पर शोध व लेखन प्रकल्प चलाया और उसके तहत अस्सी किताबें निकालीं। मिश्रजी पत्रकारों की सबसे बड़ी संस्था एनयूजे के भी अध्यक्ष रहे। संप्रति गाजियाबाद में रहकर वे स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।
संपादक के रूप में अच्युतानंद मिश्र ने साहित्य-कला-संस्कृति के कई सबल पक्षों को हिन्दी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया और राजनीति, शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, स्त्री-विमर्श, दलित और अल्पसंख्यकों के समसामयिक सवालों को भी उम्दा तरीके से उठाया। उनकी पुस्तक ‘सरोकारों के दायरे’ में बीसवीं शताब्दी की सान्ध्य वेला और इक्कीसवीं सदी के आरम्भ के भारतीय परिदृश्य का गंभीर विवेचन किया गया है। पुस्तक चार खण्डों में विभक्त है- चिन्तन, ऊर्जा-पुंज, सरोकार और परिदृश्य। चिन्तन खण्ड का पहला आलेख है ‘पृथ्वी, मंगल और अन्तरिक्ष’। यह लेख इस तथ्य की ओर इशारा करता है कि अच्युतानंद मिश्र के चिन्तन व चिन्ता के दायरे में समूची पृथ्वी और अन्तरिक्ष का विस्तार है। इसी खण्ड में एक टिप्पणी है- ‘एक सहस्राब्दी बेचने का सुख’। इसके तहत दूसरी सहस्राब्दी के अवसान और तीसरी के आगमन पर विचार करते हुए लेखक का ध्यान इस प्रश्न पर जाता है कि पहली सहस्राब्दी की समाप्ति पर दुनिया का मानचित्र कैसा था? और उस सहस्राब्दी का इतिहास रचनेवालों को इतिहासकारों ने कितनी ईमानदारी से पेश किया है? दूसरी सहस्राब्दी को लहूलुहान करने वाले युद्धलोलुप सूरमाओं ने अपनी विजय गाथाओं को इतिहास की आड़ लेकर नयी पीढ़ी के लिए किस रूप में पेश किया है? अच्युतानन्द मिश्र ने एक हजार वर्ष की इतिहास-गाथा को एक हजार शब्दों में चामत्कारिक ढंग से समेटा है- “पूरी अन्तिम शताब्दी राजनीतिक और आर्थिक उपनिवेशों, महायुद्धों, एटम बमों और आतंकवादियों की कहानी कह रही है। ताकतवर देशों की असभ्यताओं को पराजित देशों पर थोपना ही उसका इतिहास है। जो युद्ध का उन्माद और हथियार साथ-साथ पैदा करते हैं, वे विश्व संस्कृति, मानवाधिकार और सहस्राब्दी भी साथ-साथ बेचते हैं।…करोड़ों नरसंहारों से लहूलुहान यह शताब्दी राजनीति और युद्ध, शोषण और अन्याय के इतिहास का अद्भुत संग्रहालय है।…क्यों पूरी दुनिया को लुभाने के लिए यह झूठ फैलाया जा रहा है कि तीसरी सहस्राब्दी के नये सूरज की पहली किरण देखने वाले एक इतिहास के साक्षी बनेंगे।”
श्री मिश्र के चिन्तन-मनन और संवेदन-संस्कारों पर आजादी की लड़ाई के मूल्य-मानकों का गहरा प्रभाव है। पुस्तक में सर्वत्र अच्युतानंद मिश्र की मूल्य चिन्ता और मनुष्यता, सच्चाई की रक्षा की चिन्ता मुखर है। ‘कठघरे में कैद बुद्धिजीवी’ शीर्षक आलेख में एक राजनेता के कथन का हवाला देते हुए श्री मिश्र ने कहा है, “अगर राजनीति का अपराधीकरण करने का आरोप राजनीतिक दलों पर है तो शिक्षा, न्याय, प्रशासन, मीडिया, कला, साहित्य या इतिहास में फैली हुई विकृतियों के लिए वे बुद्धिजीवी जिम्मेदार क्यों नहीं हैं जो अपने आपको सामाजिक नैतिकता का पहरुआ मानते हैं।” अच्युतानंद मिश्र की चिन्ता यह है कि सत्ता से सच कहने, उससे बेबाक ढंग से असहमति जताने और खरी-खरी कहने व प्रतिरोध की ताकत क्यों सिकुड़ती गई? इन कारणों ने पार्टी व सरकारों के संचालन में विचारधारा और आदर्शवाद को खो दिया है। इसीलिए उनकी विश्वसनीयता के साथ समाज के लिए उपयोगिता भी तेजी से घट रही है। राजनीति में आई विकृतियों पर श्री मिश्र उँगली रखते हैं और मूल्यों की हाँक लगाते हैं।
सम्पादक के रूप में सुदीर्घ अनुभव रखने वाले अच्युतानन्द मिश्र के अध्ययन, चिन्तन और मनन का एक महत्वपूर्ण विषय ‘साहित्य और पत्रकारिता का अन्तर्सम्बन्ध’ रहा है। उन्होंने साहित्य और पत्रकारिता के अंतर्संबंध पर दिल्ली में संवाद शृंखला भी चलाई थी। मिश्रजी समालाप शृंखला के हिमायती रहे हैं। यानी उनकी ख्वाहिश थी कि दो बड़ी शख्सियत आपसे में संवाद करें। इसी शृंखला के तहत अच्युतानंद मिश्र ने रामविलास शर्मा से नामवर सिंह की बातचीत रेकार्ड कराई थी। कहने की जरूरत नहीं कि इस तरह का मौलिक प्रयोग वही कर सकता है जो विजनरी हो। मिश्रजी आज 84 वर्ष के हो गए। कल छह मार्च 2021 को उनका 85वां जन्मदिन है। उन्हें बहुत बहुत शुभकामनाएं।