अज्ञेय और रेणु के संबंध कितने मधुर थे, समझें इस आलेख से

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अज्ञेय और रेणु के संबंध कितने मधुर थे, इसे कई प्रसंगों का जिक्र कर वरिष्ठ साहित्यकार भारत यायावर ने बताने-समझाने की कोशिश की है।
अज्ञेय और रेणु के संबंध कितने मधुर थे, इसे कई प्रसंगों का जिक्र कर वरिष्ठ साहित्यकार भारत यायावर ने बताने-समझाने की कोशिश की है।
अज्ञेय और रेणु के संबंध कितने मधुर थे, इसे कई प्रसंगों का जिक्र कर वरिष्ठ साहित्यकार भारत यायावर ने बताने-समझाने की कोशिश की है। दोनों की आत्मीयता के कई उदाहरण दिये हैं। रेणु पर काम करते समय भारत यायावर कभी अज्ञेय के करीब गये थे। पढ़िए, पूरा प्रसंग 
  • भारत यायावर 
भारत यायावर
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अज्ञेय की प्रसिद्ध कविता है ‘असाध्य वीणा’। मैं प्रायः यह सोचता रहता हूँ कि यह असाध्य वीणा अपने-आप में अज्ञेय स्वयं थे। एक रहस्यमय मौन!  नीरवता का सतत स्पंदित छंद! एक विराट महीरूह! एक तिलस्मी व्यक्तित्व ! एक दिव्य अवतरित बोधिसत्व! जब भी अज्ञेय के व्यक्तित्व को सही रूप में उद्घाटित करने की कोशिश करता हूँ, कामायनीकार की ये पंक्तियाँ गूँजायमान होने लगती है  :

कौन तुम? संसृति-जलनिधि तीर/ तरंगों  से   फेंकी  मणि   एक,/ कर रहे निर्जन का चुपचाप/ प्रभा की धारा से अभिषेक?/ मधुर विश्रांत और एकांत/ जगत का सुलझा हुआ रहस्य,/ एक करुणामय सुन्दर मौन/ और चंचल मन का आलस्य! 

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लेकिन अपने बारे में बताने के पहले यह बताना जरूरी समझता हूँ कि अज्ञेय को यायावर के रूप में ही ठीक से  समझा जा सकता है। सन्यासी, परिव्राजक, मुनि होकर सतत् विचरण करने वाला  मनस्वी ही यायावर हो सकता है। इस मौन असाध्य वीणा में समाहित अनेक अंतर्ध्वनियो को प्रेम, समर्पण, त्याग के भावों से भरपूर पवित्र मन का मनुष्य ही सुन सकता था। रेणु उनकी आत्मा के सहचर थे।

अज्ञेय यायावर थे और किसी छंद से बंधे न थे। उनसे मैं कतराता रहता था। लेकिन 1985 में आक्टोवियो पाज के त्रिवेणी कला केन्द्र, मंडी हाउस, नई दिल्ली के कविता-पाठ के  एक कार्यक्रम में अगल-बगल में बैठने का सौभाग्य मिला। मैं उनको बस देखता था, लेकिन वे तो मुझे घूर ही रहे थे। कार्यक्रम की समाप्ति के बाद उन्होंने मेरा नाम पूछा और मैंने जब अपना नाम बताया तो उछल पड़े। मितभाषी अज्ञेय मुस्कुरा पड़े।

उन्होंने बताया कि वे मुझे बहुत दिनों से खोज रहे थे। और मैं हैरान रह गया, जब उन्होंने कहा कि आपसे मिलने की बहुत इच्छा थी। हजारीबाग आप से मिलने जाने की योजना ही बना रहा था। फिर उन्होंने अपने घर पर बुलाया।  लेकिन तब मैं जा नहीं सका। एक वर्ष बाद मैं 1986 में जब उनके घर गया तो सब काम छोड़कर मुझसे मिले और ‘एकांकी के दृश्य’ उनको समर्पित करने पर बेहद ख़ुशी जाहिर की। वे मुझसे खुश थे कि मैं फणीश्वरनाथ रेणु से इतना लगाव रखता हूँ। उन्होंने बताया कि वे फणीश्वरनाथ रेणु की सभी हस्तलिखित रचनाओं और पत्रों को एक संदूक में संभाल कर रखे हुए हैं। उन्होंने मुझसे वायदा किया था कि रेणु की सभी हस्तलिखित रचनाओं और पत्रों को फोटोकापी करवा कर मुझे भेज देंगे। पर, ऐसा संयोग नहीं बन पाया।

बहुत बाद में कृष्णदत्त पालीवाल ने रेणु की दो चिट्ठियों की फोटो प्रति मुझे उपलब्ध कराई, जिससे ज्ञात होता है कि फणीश्वरनाथ रेणु के मन में अज्ञेय के प्रति कितना मान था। ‘शेखर : एक जीवनी’ उनकी प्रिय पुस्तक थी। 1942 के आन्दोलन के समय वे गिरफ्तार होकर भागलपुर जेल में बंद थे। वहीं पहली बार इसे पढी थी और अपने गुरु रामदेनी तिवारी द्वजदेनी को सुनाई थी। अपने आत्म-संस्मरण में उन्होंने लिखा है कि तीन उपन्यास पढ़कर अपने गुरु तिवारी जी को सुनाए थे- रवीन्द्र का ‘योगायोग’ ,गोदान और  शेखर एक जीवनी।

बयालीस में ही भारत के श्रेष्ठ उपन्यास-त्रयी में शेखर को रखते थे। इनका वाचन कर रोज अपने गुरु को सुनाने से ये कृतियाँ उनके भीतर समाहित हो गई थीं। अज्ञेय के प्रति उनके मन में कितना आदर होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है! वे ‘प्रतीक ‘निकलते ही उसके ग्राहक बन गए थे।

जब मैला आँचल प्रकाशित होकर चर्चित हो रहा था, उनके विरोधियों की एक बड़ी फौज उनके अंचल में खड़ी हो रही थी । धीरे-धीरे पटना में भी उनका रहना और लिखना-पढ़ना दूभर होता गया। वे अपनी ससुराल हजारीबाग आकर रहने लगे। यहाँ रहकर परती : परिकथा का एक बड़ा हिस्सा लिखा। पर ससुराल में बहुत दिनों तक रहना उनको ठीक नहीं लगता था। उन्होंने ओमप्रकाश जी को पत्र लिखा। ओमप्रकाश जी ने लूकरगंज में किराए पर एक कमरा ठीक कर दिया।

अज्ञेय जी नवीनता के खोजी थे और नए उभरने वाले युवाओं से भी मिलते रहते थे। उस समय कृष्ण दत्त पालीवाल बीए की पढ़ाई कर रहे थे। उनको लेकर रेणु से मिलने उनकी कोठरी में गए। रेणु जी गुलाबी धोती और कुर्ता पहनकर परती  : परिकथा के शिवेन्द्र मिश्र बने हुए थे अर्थात् उस चरित्र को जीते हुए अपनी मानसिक कथा-चरित्र को जी रहे थे और रच रहे थे।

अज्ञेय को देखते ही उन्होंने बैठ कर दोनों हाथों से उनके चरणस्पर्श कर अपने ललाट पर लगाया। एक परम पूज्य साहित्यिक व्यक्तित्व उनके सामने आकर साकार खड़ा था। यह पहली भेंट थी। फिर लगातार चलती रही। 1965 में  जब ‘ दिनमान ‘ के वे सम्पादक हुए तो रेणु को बिहार  का प्रतिनिधि बनाया। रेणु दिनमान के हर अंक में लिखते। 1966 में बिहार के सूखा क्षेत्र का दौरा और रेणु की रचना ‘ भूमि दर्शन की भूमिका ‘ का धारावाहिक रूप से छपना, जिसमें अज्ञेय के प्रति रेणु के लगाव को साफ़-साफ़ देखा जा सकता है। बाद में अज्ञेय ने रघुवीर सहाय को दिनमान के संपादन का दायित्व सौंप दिया और उन्होंने भी रेणु के व्यक्तित्व का ऊँचा मान दिया।

रेणु के निधन के बाद अज्ञेय ने उन पर ‘ धरती का धनी’ नामक संस्मरण लिखा। साहित्यकारों में आपसी सौहार्द्र का प्रतीक है, अज्ञेय और रेणु का यह संबंध। आजकल लेखक समाज यह खोज करता है कि कौन किस दल में है और एक दूसरे की मिट्टी पलीद करने में लगा रहता है। इस तरह राजनीति के दल-दल के कीचड़ के कीटाणु उसके दिमाग में कुलबुलाते रहते हैं।

एक बार ‘माधुरी ‘ पत्रिका के संपादक अरविंद कुमार ने  साहित्य और सिनेमा के रिश्ते पर रेणु के विचार प्रस्तुत किए। यह 1975 की बात है। इस रिश्ते को समझाने के लिए उन्होंने अज्ञेय और शेखर को ही क्यों लिया? यह उनके सम्बन्धों की उदात्त चेतना का परिचायक है। रेणु कहते हैं  : सिनेमा और  साहित्य को कैसे निकट लाया जा सकता है, इस पर विचार करने के लिए किसी कथा और उसके लेखक को लें। चलिए, अज्ञेय और शेखर का ही  नाम लें। अब इसके फिल्मीकरण पर विचार करते हैं। चूंकि शेखर उच्च कोटि की कृति है तो उस पर सिनेमा के निर्माण करने से ही साहित्य पर आधारित सिनेमा का ठाठ बढ़ेगा। फिर उसके निर्माण के लिए कई तरह-तरह के हास्यास्पद प्रसंगों की उपस्थिति होगी।

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अज्ञेय और रेणु दोनों स्वाधीनता संग्राम के सिपाही थे। दोनों ही साहित्यिक स्तम्भ थे। दोनों की आत्मीयता, स्नेह, सौजन्य, सहृदयता एक प्रेरक प्रसंग है।

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