अनय यानी प्रो. कृष्ण चन्द्र पाण्डेय। हिन्दी के एक प्रतिष्ठित व्यंग्य-लेखक, साहित्यकार और पत्रकार, जो पाठकों के बीच अनय नाम से परिचित थे। ‘तीसरा विभाजन’ समेत तीन चर्चित पुस्तकों, असंख्य लेखों और व्यंग्य रचनाओं के लेखक का जीवन बहुत ही प्रेरणास्पद है। अनय जी को याद किया है हितेंद्र पटेल ने। कैसे, जानने के लिए पढ़ें यह लेख
- हितेंद्र पटेल
वंश-परम्परा दो तरह से चलते हैं, एक संतान से दूसरे शिष्यों द्वारा। अगर यह सही है तो एक अच्छा शिक्षक अपने शिष्यों में ही जीवित रहते हैं। यह शिष्यों का ही दायित्व है कि वे उनकी स्मृति को जीवित रखें, जिनके कारण वे सीख सके और जिनके माध्यम से उन्होंने जीवन और संसार को देखना सीखा।
मेरे एक शिक्षक थे प्रो कृष्ण चंद्र पांडेय। वे हमें छोड़कर चले गए। हर दिन उनकी याद आती है। क्यों? इसका कोई जवाब नहीं है। कोई कोई ही ऐसे जीवन में आते हैं, जिनके सामने नत होने में एक विशेष किस्म का आनंद आता है। ऐसे लोग जीवन में कम ही आते हैं। किसी किसी के भाग्य में आते ही नहीं हैं। वे बस अपने घर के लोगों में ही बंधे रहते हैं, वे बस अपने परिवार को ही संसार बनाए रहते हैं।
अनय जी से मेरा संपर्क तब से था, जब वे ग्यारहवीं में हमारे हिंदी शिक्षक थे। बहुत ही स्नेहिल और उदार। गरीब और बाहर से आए किसी भी छात्र के लिए हर समय मदद के लिए तैयार। जीवन में उन्होंने न जाने कितने लोगों की बिना किसी रिटर्न की बात सोचे मदद की और भूल गए। बहुत ही हंसमुख।
उनका एक अति संक्षिप्त परिचय अंत में दे रहा हूं, पर उन जैसे लोगों के बारे में लिखकर समझाया नहीं जा सकता है कि वे क्या थे। असम्भव है। बस उनको प्रणाम करता हूं। वे हमारे भीतर लौ की तरह रहेंगे, हमेशा, जब तक हमलोग हैं। आज होते तो हमारा जीवन कितना समृद्ध होता!
अनय जी का एक परिचय
हिन्दी के एक प्रतिष्ठित व्यंग्य-लेखक, साहित्यकार और पत्रकार प्रो. कृष्ण चन्द्र पाण्डेय (जो हिन्दी के पाठकों के बीच अनय नाम से परिचित थे) ‘तीसरा विभाजन’ समेत तीन चर्चित पुस्तकों, असंख्य लेखों और व्यंग्य रचनाओं के लेखक का जीवन बहुत ही प्रेरणास्पद है। उन्नाव जिले के एक ज़मींदार परिवार में जन्मे अनय 1952 में स्कूल की परीक्षा पास करके कलकत्ता (अब कोलकाता) आए थे और तब से मृत्यु पर्यंत कलकत्ता में रहे। यहीं से 1961 में विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त करने के बाद वे सेंट पाल कॉलेज में पढ़ाने लगे और 1999 तक यहीं पढाते रहे। एक शिक्षक के रूप में वे असाधारण शिक्षक जाने जाते रहे।
सेंट पाल के से अवकाश प्राप्त करने के बाद उन्होंने प्रेसिडेंसी कॉलेज में अध्यापन कार्य किया। उनके बह्त सारे छात्र मानते हैं कि प्रेमचंद, रेणु और परसाई को पढ़ने और समझने की सीख उनसे ही मिली। प्रेमचंद पर तो उनके बिना कोई साहित्यिक कार्यक्रम अधूरा-सा लगता था। हिन्दी भाषी छात्र-छात्राओं की विभिन्न समस्याओं को लेकर वे लगातार बोलते और लिखते रहे। इन विषयों पर जनसत्ता मे लिखे उनके लंबे आलेखों और शब्द-कर्म विमर्श में छपे लेखों का एक दस्तावेज़ी मूल्य है और इसको आज भी याद किया जाता है। अंत समय तक वे बेहद सक्रिय रहे। उनके स्तंभ प्रभात वार्ता में सबसे ज़्यादा पढ़ा जाने वाला स्तंभ था। उनके अचानक चले जाने से उनके चाहने वाले शोकाकुल हैं।
शिक्षण के अतिरिक्त वे सामाजिक कार्यो में सक्रिय रूप से भाग लेते रहे और अपने इलाके- काशीपुर के हिन्दी भाषियों के बीच लगातार काम किया। एक साधारण से एक रूम के फ्लैट में रहते हुए वे लगातर सीपीआई के कर्मठ कार्यकर्त्ता बने रहे। वे एक संस्था की तरह थे। बेहद मिलनसार, कर्मठ और उदार अनय जी को पसंद करने वाले वाम से लेकर दक्षिणपंथी सभी विचारधाराओं के लोग थे। वे हमेशा अपनी राजनीतिक विचारधारा और अपने प्रति आलोचनात्मक रवैया रखते थे और बिना किसी लाग लपेट की अपनी बातों को विभिन्न मंचों पर रखते थे।
चर्चा में तब वे आये, जब उनके शिष्य सुरेन्द्र प्रताप सिंह के संपादकत्व में निकल रही पत्रिका- रविवार में वे नियमित व्यंग्य का कॉलम लिखने लगे। उनकी रचनाएं बहुत पसंद की गईं। बाद में लेखों और कहानियों का यह सिलसिला चलता रहा और उन्हें कलकता शहर के साहित्यकारों में जाना जाने लगा। एक कुशल वक्ता के साथ साथ वे बेहद पढाकू किस्म के नेता-शिक्षक बने। दुर्भाग्य से उनके लेखन को पुस्तकाकार रूप में सामने लाने में प्रकाशक और वे स्वयं इच्छुक देर से हुए और उनकी प्रकाशित पुस्तकें उनके लेखक रूप को सामने नहीं रख पातीं। अब तक उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं- नजर नजारा (व्यंग्य), समय दर्पण (कहानी संकलन), राहुल विमर्श, महानगर 1977 (सम्पादन), ‘तीसरा विभाजन’ (कथा संग्रह)। उनकी दो पुस्तकें प्रेस में हैं। उन्होंने शब्दकर्म विमर्श के संपादक मंडल में रहकर इस पत्रिका का मार्ग दर्शन किया। अनय जी के व्यंग्य लेखन पर बर्द्धमान विश्वविद्यालय में शोध-कार्य भी हुआ है। कोलकाता की विभिन्न लघु पत्र-पत्रिकाओं, संकलनों में बिखरी हुई उनकी विपुल सामग्री को सामने लाने का काम अभी होना बाकी है।
यह एक महत्त्वपूर्ण बात है कि व्यक्तिगत जीवन में भी उन्होंने अपने प्रिय प्रेमचंद से प्रेरणा ली और जाति बिरादरी की हर सीमा का अतिक्रमण किया। जो उनके करीबी थे, वे अधिकतर निचले तबके के लोग थे और अनय जी ने कभी भी अपने और पराये का हल्का-सा भी परिचय नहीं दिया। अपनी दोनों अति सुंदर, सुशिक्षित कन्याओं का विवाह उन्होंने अपनी जाति के बाहर किया।
उनको याद करने वालों में उडिया, मुस्लिम और बंगाली कर्मी ज़्यादा थे। बांग्लादेश से भाग कर कोलकाता की बस्तियों में शरण पाए हुए और हिन्दी प्रदेश से आए गरीब छात्रों के लिए तो वे मसीहा ही थे। उन्हें अक्सर उन लड़कों के लिए कॉलेज और उसके बाहर संघर्ष करते हुए देखा जा सकता था, जो बिहार-यूपी से आकर किसी कॉलेज में किसी तरह भर्ती तो हो जाते थे, लेकिन अंग्रेज़ी और बांग्ला में दिए गए लेक्चर को न समझ पाने के कारण मुसीबत में पडे रहते थे। अनय जी का यह वाक्य बहुत लोकप्रिय हुआ कि “हिन्दी भाषी छात्र बांग्ला में लेक्चर सुनता है, हिन्दी में उसे समझता है और अंग्रेज़ी में लिखने की कोशिश करता है। इन तीनों में से वह दो ही जानता है।” इस प्रश्न को वे लगातार उठाते रहे और जब हिन्दी माध्यम में प्रश्न पत्र को छापने का सफल आन्दोलन हुआ तो वे सबसे ज़्यादा मुखर वही थे।
इन बातों के मामले में वे किसी दल या विचारधारा का ख्याल नहीं रखते थे। वैसे भी वे अक्सर कहते थे कि अपने कार्यक्षेत्र के बाहर गेट पर ही विचारधारा को छोड आना चाहिए और फिर अपना काम करके वापस जाते समय गेट पर उसे वापस पहन लेना चाहिए। काम करना ही चाहिए, सबको। पूरे शहर में वे हर व्यक्त्ति के पास जा सकते थे और उनसे अपने गरीब और बेसहारा छात्रों के लिए कुछ भी कर सकते थे। अपने छात्रों पर वे पूरा भरोसा करते थे। ज़रूरत पडने पर वे हिन्दी भाषी छात्र-छात्राओं के लिए इतिहास, अंग्रेज़ी और पॉलिटिकल साइंस ऑनर्स के लिए तैयारी कराते थे। वे अक्सर कहते थे कि हिन्दी भाषी छात्र जिस परिवेश से उठ कर आते हैं, उसके लिए महानगर में आकर किसी बड़े कॉलेज में पढ़ना बहुत ही कठिन होता है। उन्हें सहानुभूति और सहयोग की ज़रूरत होती है और ये काम करना उनका दायित्त्व है।
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