अपने ही घर में बेगाने हो जाने की मजबूरी का नाम है घुसपैठ

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मलिकाइन के पाती
मलिकाइन के पाती
  • सुरेंद्र किशोर

सन 1979-1985 के असम आंदोलन के दौरान 855 आंदोलनकारियों की जानें गयी थीं। इतनी कुर्बानियां देने के बाद  1985 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी के साथ ‘असम समझौता’ हुआ। पर, असम गण परिषद  को सत्ता मिली तो उसके कई नेता भ्रष्टाचार में लिप्त हो गए।

यदि असम के तत्कालीन राज्यपाल जनरल एस.के. सिन्हा ने उन नेताओं पर मुकदमा चलाने की अनुमति दे दी होती तो वे जेल में होते। क्योंकि  गुवाहाटी में तब तैनात एक पत्रकार ने मुझे बताया था कि उन पर चारा घोटाले की अपेक्षा अधिक गंभीर आरोप थे। यह संयोग है कि चारा घोटाले के अरोपित   भी अच्छे आंदोलन यानी जेपी और मंडल आंदोलन से  निकले थे।

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ये दो उदाहरण यह सीख देते हैं कि किसी अच्छे आंदोलन को यदि उसकी तार्किक परिणति तक पहुंचाना है तो उसके नेता को भ्रष्टाचार से दूर रहना चाहिए। असम गण परिषद की कमजोरियों के कारण कांग्रेस असम में दुबारा सत्ता में आ गई और उसने असम समझौता को लागू करने में रूचि नहीं दिखाई। नतीजतन घुसपैठ की समस्या बढ़ती गयी।

यदि सुप्रीम कोर्ट ने बाद में हस्तक्षेप नहीं किया होता तो अब तक एक और ‘असम आंदोलन’ शुरू हो चुका होता। भले उसके नेता कोई और होते। पर, एक दूसरे तरह का आंदोलन अब भी हो रहा है। एक तरफ ‘अतिथि देवो भव’ के नाम पर तरह-तरह के तर्क देकर इस देश को धर्मशाला बनाने व वोट बैंक बढ़ाने वाली शक्तियां सक्रिय हैं तो  दूसरी ओर मूल आबादी के लोग हैं, जो देश के  अनेक स्थानों में घुसपैठियों के कारण  अपने ही वतन में बेगाना बन जाने को अभिशप्त हैं। उनमें से  कुछ का  पलायन हो रहा है। जो बच रहे हैं, वे  अन्य तरह की तकलीफें झेल रहे हैं।

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पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत ने तो हाल में कहा है कि पश्चिम बंगाल में भी नेशनल रजिस्टर आफ सिटिजन्स तैयार होना चाहिए। कुछ अन्य नेता बिहार सहित कुछ अन्य प्रदेशों के लिए भी ऐसी ही मांग कर रहे हैं। देखना है कि आगे क्या-क्या होता है।

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