अलका सरावगी के उपन्यास ‘कुलभूषण का नाम दर्ज़ कीजिये’- पर वरिष्ठ साहित्यकार ममता कालिया ने अपनी बेबाक टिप्पणी दर्ज की है। सीधे कहें तो ममता कालिया ने कुलभूषण का नाम दर्ज किया! आप भी पढ़ें कि ममता कालिया जी ने क्या लिखा है, जरा आप भी पढ़ कर देखिए। ममता कालिया ने लिखा है- अभी अलका सरावगी का उपन्यास ‘कुलभूषण का नाम दर्ज़ कीजिये’ पढ़ कर समाप्त किया। कथा के आवेग में हूँ। पेशेवर आलोचक नहीं कि तसल्ली से बात कहूँ। इसे पहली प्रतिक्रिया समझा जाये।
सन 1947 में हमारी आज़ादी और भारत-पाकिस्तान विभाजन पर विपुल साहित्य रचा गया। पूर्वी पाकिस्तान के मिलिट्री शासन और उसकी आज़ादी व बांग्लादेश के निर्माण पर कम लिखा गया। यही इस उपन्यास की कथाभूमि है। विभाजन कभी अकेले नहीं आता, विस्थापन भी लाता है। बांग्लादेश के कुश्टिया शहर से निकले लोग अपना घर संसार, व्यापार छोड़ कर कैसे बॉर्डर पार करते हैं, राह में मारे जाते हैं या पैदल चलते चलते दम तोड़ देते हैं।
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इस इतिहास का प्रवक्ता कोई विद्वान प्रोफेसर नहीं कुलभूषण जैन है, जिसका नाम कहीं के इतिहास में दर्ज नहीं है। वह जनम का अभागा, भाइयों के रहम पर पला और उनके ज़ुल्म पर घुला, हर दुनियावी मोर्चे पर विफल, जब जब अपनी तरह से जीना चाहा उसने, हालात ने खींच ताएँ कर कहीं और खड़ा कर दिया उसे। उसका दोस्त श्यामा धोबी एक दिन उसे बताता है, “अपने शरीर में ऊपरवाले ने एक ऐसा बटन लगाया है कि बस अपनी उँगली उस पर रखो और सब भूल जाओगे कि लोग तुम पर कैसे हँसते हैं। बटन दबाया कि तुम्हारी पूरी आत्मा में खुशी की लहर उठने लगेगी।”
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याद रहे जिस समय का यह आख्यान है तब save और delete जैसे apps ईजाद नहीं हुए थे। अलका सरावगी की इस कथा में साधारण पात्रों के जरिये असाधारण गल्प की रचना हुई है- डेढ़ चप्पल पहनने वाला, थोड़ा 19, थोड़ा 20, परिवार की नज़र में 420 कुलभूषण, चेचक चेहरे वाला श्यामा धोबी और खामोश अमला। यहां मिलेंगे पूर्वी बंगाल के आत्मीय चित्र, गोराई नदी का जल और सर्वहारा की नूतन परिभाषा,’जिस शख्स के लिए अपने परिवार में भी जगह नही होती, उससे ज़्यादा सर्वहारा कोई नहीं होता’।
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शेषकथा आप खुद पढ़िए। Orhan Pamuk के अनुसार फल के सबसे मीठे हिस्से तक पहुंचने के लिए उसे समूचा खाना होता है। इस पुस्तक पर जहाँ नाज़ होता है, एक सवाल सिर उठाता है कि बांग्लादेश की आज़ादी के आख्यान में इंदिरा गांधी का नाम नदारद क्यों?
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