- सुरेंद्र किशोर
असम में नागरिकता के मुद्दे पर उल्फा का आंदोलन सर्वविदित है। भाजपा ने सरकार बनते ही राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर तैयार कराने की प्रक्रिया शुरू की, जिसके आंकड़े अब जारी किये हैं। इस रजिस्टर के आंकड़ों में 40 लाख वैसे नाम छाेड़ दिये गये हैं, जिनके भारतीय होने की पुष्टि नहीं होती है। इस प्रसंग पर दो वरिष्ठ पत्रकारों की पेश हैं विचार-
वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर ने लिखा है- नब्बे के दशक की बात है। जनसत्ता संवाददाता के रूप में पूर्वोत्तर बिहार के एक लोक सभा चुनाव क्षेत्र में एक प्रमुख उम्मीदवार के साथ मैं दौरे पर था। एक स्थान पर ताजी फूस की बहुत सारी झोपड़ियां बनी थीं। उनमें बंगला देश से आए बहुत सारे लोग रह रहे थे। उम्मीदवार महोदय बारी-बारी से लगभग सभी झोपड़ियों में गए। मैं भी पीछे-पीछे था। उम्मीदवार उन लोगों से एक ही बात कह रहे थे- ‘आप लोगों को यहां से कोई नहीं हटाएगा।’ पता चला कि उनके नाम मतदाता सूची में शामिल करा दिए गए थे।
करीब दो दशक पहले की बात है। पूर्वी भारत के एक मुख्यमंत्री का बयान छपा था- हमारे राज्य के सात जिलों में ऐसी स्थिति पैदा हो गयी है कि वहां की कानून-व्यवस्था पर काबू पाना हमारी पुलिस-प्रशासन के लिए संभव नहीं रह गया है।उनका इशारा बाहर से आकर बस गए लोगों की ओर था।
बाद में जब मुख्यमंत्री पर उनकी पार्टी के शीर्ष नेताओं का दबाव पड़ा तो मुख्यमंत्री जी अपने बयान से पलट गए। एक से अधिक व्यक्तियों को इन दिनों टी.वी.पर यह कहते हुए मैं सुन रहा हूं कि यह देश शरणार्थियों से ही बना है। हिन्दू भी बाहर से आए। अन्य लोग भी आए। आगे भी आते रहेंगे। वे शरणाथियों पर जेनेवा कन्वेशन की भी चर्चा करते हैं।
हाल में टी.वी. चर्चा में एक मौलाना को मैंने यह कहते सुना कि जब हम 18 करोड़ थे तो पाकिस्तान बना। अब हम फिर 18 करोड़ से अधिक हो चुके हैं। एक अलग देश बनना चाहिए। दुनिया में ऐसा दूसरा कौन-सा देश है, जहां खुद उस देश के नागरिक अपने देश को इस तरह धर्मशाला समझते हैंं?
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