असहमतियों के बावजूद अटल जी को सुनना अच्छा लगता था

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अटल बिहारी वाजपेयी को अपने-अपने अंदाज में श्रद्धांजलि देने वालों का तांता लगा हुआ है। सोशल मीडिया पर शायद ही कोई व्यक्ति होगा, जिसने अटल जी को श्रद्धांजलि न दी हो। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर गोपेश्वर सिंह ने भी उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित किये हैं। उन्होंने अपने फेसबुक वाल पर लिखा हैः

राजनीति की उस शालीन परंपरा को नमन जिसका निर्वाह करने की वे जीवन भर कोशिश करते रहे! वे अद्भुत वक्ता थे। लाख असहमतियों के बावजूद उन्हें सुनना अच्छा लगता था। पटना के गाँधी मैदान में उनके अनेक भाषण मैंने सुने हैं। वे परिष्कृत हिंदी बोलते थे। उनके रचनात्मक व्यंग्य  बहुत  धारदार होते थे।

वे अपने प्रतिपक्षी नेताओं के गुणों की भी ज़रूरत पड़ने पर प्रशंसा करते थे। न सिर्फ़ भाजपा, बल्कि भारतीय राजनीति में मुझे  वे कुछ अलग किस्म के नेता लगते थे।

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वाजपेयी यदि दूसरों पर व्यंग्य करते थे तो ज़रूरत पड़ने पर आत्म उपहास भी कर सकते थे। व्यंग्य कोई भी कर सकता है, लेकिन आत्म उपहास का गुण बड़े आदमी में ही होता है।

1980 की बात है। जनता पार्टी की सरकार (जिसमें वाजपेयी विदेश मंत्री थे) गिरने के बाद विधान सभा के लिए  चुनाव हो रहे थे। इंदिरा जी की वापसी  प्रधानमंत्री के रूप में हो चुकी थी। जनता पार्टी की हार का एक प्रमुख कारण प्याज का महंगा होना था। प्याज की महंगाई को कांग्रेस ने एक मुद्दा बनाया था। वाजपेयी ने पटना में भाषण देते हुए कहा- धन्य है वह देश, जहाँ लोकतंत्र प्याज के भाव से तय होता है। श्रोताओं को खूब मजा आया। लोगों  का हँसना बंद हुआ तो वे  अपनी ओर मुड़े। उन्होंने कहा कि हम लोग पहली बार सरकार में  आए थे। सो, कुछ ज्यादा ही  उड़ने लगे थे। इतना उड़े कि चुनाव में ही उड़ गए। मैं विदेश मंत्री था तो कुछ ज्यादा ही उड़ा। मेरी जीत तो हुई, लेकिन राम-राम कह कर- थोड़े से मतों से, आदि- आदि। वाजपेयी को श्रद्धांजलि देते हुए उनकी ये खूबियाँ याद आयीं। ऐसे थे अटल बिहारी।

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