- ओमप्रकाश अश्क
कोलकाता। असेंबली इलेक्शन में बीजेपी की डिमांड बढ़ी है और टीएमसी कमजोर पड़ रही है। बंगाल असेंबली इलेक्शन में बीजेपी के टिकट की डिमांड बढ़ी है। दूसरे दल जहां कैंडिडेट तलाशने में लगे हैं, वहीं बीजेपी में 3 हजार आवेदन आ चुके हैं। बंगाल की असेंबली की कुल सीटें 294 हैं। यानी बीजेपी का टिकट चाहने वालों की संख्या सौगुने से ज्यादा है। टीएमसी से जिस तरह विधायकों के भागने का सिलिसिला शुरू हुआ है, उसे देख कर लगता है कि कहीं पार्टी को उम्मीदवारों का टोटा न हो जाए। यही हाल कांग्रेस और दूसरे दलों का है, जहां टिकट के लिए कोई मारामारी नहीं है।
असेंबली इलेक्शन पर ताजा चुनावी सर्वेक्षण से पता चल रहा है कि बीजेपी बंगाल में टीएमसी के मुकाबले बेहतर स्थिति में है। ऐसा होने के कई कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि ममता बनर्जी की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति ने बंगाली हिन्दुओं को पहले से ही नाराज कर रखा है। जहां बंगाली हिन्दू नाराज हैं, वहीं मुसलिम लोटर भी अब ममता बनर्जी से कन्नी काटने लगे हैं। असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM और स्थानीय स्तर पर फुरफुरा शरीफ की नयी पार्टी ने ममता से मुसलिए वोटों को छिटकाने में बड़ी भूमिका निभायी है। बंगाल में तकरीबन 30 फीसदी मुसलिम वोटर हैं, जो लेफ्ट शासन के बाद ममता के माने जाते थे।
असेंबली इलेक्शन में टीएमसी की कमजोरी का दूसरा कारण सरकारी नियुक्तियों में गड़बड़ झाले का है। हाल ही में जिस तरह नियुक्तियों में गड़बड़ी के आरोप ममता बनर्जी ने अपने पूर्व सहयोगी और अब बीजेपी के कद्दावर नेता राजीव बनर्जी पर लगाया है, उससे सरकारी नियुक्तियों में गड़बड़ी की पोल खुल गयी है। राजीव ने स्वीकार किया है कि नियुक्ति के लिए ममता ने तृणमूल नेताओं का कोटा बांट दिया था। दोनों की जुबानी जंग ने ममता सरकार में भ्रष्टाचार को उजागर कर दिया है। जाहिर सी बात है कि नियुक्तियों से वंचित युवा वर्ग में इस बंदरबांट की जानकारी होने पर नाराजगी ही बढ़ेगी।
ममता बनर्जी के लगातार कमजोर होते जाने की एक वजह उनके सलाहकार प्रशांत किशोर उर्फ पीके भी हैं। अब तक उनकी कोई रणनीति सफल होती नहीं दिख रही है। पीके की सलाह पर ममता ने हिन्दीभाषी वोटरों को साधने के लिए पहले हिन्दी प्रकोष्ठ बनाया। फिर हिन्दी अकादमी का गठन किया। इनमें मारवाड़ी समुदाय के लोगों को ही ममता ने नेतृत्व सौंप दिया। ऐसा करते वक्त ममता यह भूल गयीं कि मारवाड़ी समुदाय परंपरागत ढंग से बीजेपी के करीब है। अलबत्ता बिहारी कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड के बड़ी आबादी वाले लोगों को वह पटा सकती थीं, लेकिन इस तबके का उन्हें ध्यान नहीं आया।
चौथा कारण ममता बनर्जी की सरकार का वामपंथी सरकार की राह पर चलना है। वामपंथी शासन में घर बनाने की सामग्री से लेकर जमीन व दूध खरीदने तक के लिए वामपंथी कैडरों से इजाजत जरूरी होती थी। केस-मुकदमे भी थानों में तभी दर्ज होते थे, जब वाम दलों की लोकल कमेटियां थानों को इजाजत दें। उसी परंपरा का अनुपालन ममता बनर्जी ने भी सरकार बनने पर किया। इससे लोगों में नाराजगी जस की तस बनी रही। हालात सुधरने के लिए ममता को लोगों ने सत्ता सौंपी, लेकिन उनकी सरकार भी वैसी ही निकली। अब लोगों में बीजेपी के प्रति आशा जगी है।
बीजेपी के बारे में लोगों की आम धारणा है कि यह केंद्रीय नेतृत्व से संचालित होने वाली पार्टी है। भले ही इसमें तृणमूल के नेता ही भर रहे हैं, लेकिन उन पर नियंत्रण केंद्रीय नेतृत्व का होगा। बीजेपी की इस खासियत को ममता ने बाहरी-भीतरी का नारा देकर अपने पक्ष में करने की कोशिश की, लेकिन यह उन पर उल्टा ही पड़ गया। उन्होंने बीजेपी को बाहरी कहा, लेकिन गैर बंगाली समुदाय ने इसे अपने बारे में माना।
ममता के शासन काल में जितने चिटफंड घोटाले हुए, उसका दंश अब भी बंगाल के लोग नहीं भूल पाये हैं। केंद्रीय एजेंसियों की जांच में इन घोटालों की रकम टीएमसी नेताओं तक पहुंचने की भी बात उजागर हुई। कुछ तो जेल भी गये। जिनके पैसे डूबे, उनकी संख्या भी लाखों में है। अब कोई यह उम्मीद करेगा कि जिनके पैसे डूबे, वह ममता के साथ कभी आयेगा।
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जहां तक बिजनेस क्लास की बात है तो सभी जानते हैं कि ममता के शासन में बंगाल में किसी ने उद्योग लगाने की हिम्मत ही नहीं जुटाई। यह स्थिति तभी पैदा हो गयी थी, जब सिंगूर से टाटा को अपना नैनो कार बनाने का कारखाना गुजरात ले जाना पड़ा। उसके बाद कोई भी उद्यमी अपना उपक्रम बंगाल में लगाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। यानी रोजगार सृजन की दिशा में भी ममता ने कोई काम नहीं किया। टीएमसी के प्रति नाराजगी के ये कुछ प्रमुख कारण हैं, जिससे उनकी लोकप्रियता का ग्राफ धराशायी हो गया है।
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