आधुनिक राजनीति इसे ही कहते हैं, जिसमें देश कहीं नहीं है। बांग्लादेशी घुसैठ की समस्या आज नासूर बनी है और इसके निदान की कोशिश का विरोध हो रहा है। विपक्षी दल इसे सत्ताधारी दल की साजिश मान रहे हैं। एनआरसी के प्रस्ताव के विरोध का कारण यही है। इस मुद्दे पर गंभी चिंतन की बजाय बेकार की बहस में देश उलझा है। सच्चाई यह है कि घुसपैठ की समस्या न तो नयी है और न इसको रोकने के तरीके पर पहली बार बहस हो रही है। पहले कब कोशिश हुई, इस बारे में बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर।
- सुरेंद्र किशोर
बांग्लादेशी घुसपैठियों की समस्या से पीड़ित राज्यों का सम्मेलन सितंबर, 1992 में दिल्ली में हुआ था। पी.वी. नरसिंह राव सरकार के गृह मंत्री एस.बी. चव्हाण की अध्यक्षता में असम, बंगाल, बिहार, त्रिपुरा, अरुणाचल और मिजोरम के मुख्यमंत्री और मणिपुर, नगालैंड एवं दिल्ली के प्रतिनिधि उस सम्मेलन में शामिल थे।
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सम्मेलन में सर्वसम्मत प्रस्ताव पास किया गया। प्रस्ताव यह हुआ कि ‘‘देश के सीमावर्ती जिलों के निवासियों को परिचय पत्र दिए जाएं।’’ सम्मेलन की राय थी कि ‘‘बांग्लादेश से बड़ी संख्या में अवैध प्रवेश के कारण देश के विभिन्न भागों में जनसांख्यिकीय परिवर्तन सहित अनेक गंभीर समस्याएं उठ खड़ी हुई हैं। इस समस्या से निपटने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा मिलकर एक समन्वित कार्य योजना बनाने पर भी सहमति बनी।’’
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किंतु हुआ कुछ नहीं। नतीजतन 1992 और 2020 के बीच समस्या और भी गंभीर हो गई। इसके बावजूद इस अति गंभीर समस्या पर आज कांग्रेस व वाम दलों की राय देशहित से कितनी अलग है? आखिर क्यों? क्योंकि इसे ही आधुनिक राजनीति कहते हैं, जिसमें देश कहीं नहीं है।
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ताजा खबर यह है कि पश्चिम बंगाल के जो जिले बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण मुस्लिम बहुल हो चुके हैं, वहां हिन्दुओं को पूजा-पाठ करने के लिए मस्जिदों से इजाजत लेनी पड़ रही है। यह बात हाल में लोकसभा में भी कही गई। कोई मीडिया संगठन इस समस्या की रिपोर्ट नहीं कर रहा है। कई साल पहले इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर जरूर छपी थी कि पश्चिम बंगाल के एक मुस्लिम बहुल गांव में हिन्दू लड़कियों को हाफ पैंट पहन कर हाकी खेलने से मना कर दिया गया।
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