प्राप्त सूचनाओं, जिनमे अटकलों से इंकार नहीं किया जा सकता, के अनुसार केंद्र सरकार राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग पर नए विधेयक लाने की तैयारी में है। चर्चा है कि इसके साथ ही वह मंडल आयोग की सिफारिशों के अनुसार पिछड़े वर्गों को मिल रहे 27 फीसदी आरक्षण के वर्गीकरण का विचार कर रही है। ऐसा वर्गीकरण बिहार सरकार ने कर्पूरी ठाकुर के ज़माने से ही कर रखा है और इस पर वहां सर्वानुमति बन चुकी है।
केंद्र सरकार जो करने जा रही है, उस पर अनुमानों के आधार पर ही कुछ टिप्पणी करना संभव होगा। यह सब यदि 2019 के लोकसभा चुनाव के पूर्व हो रहा है, तब इसका अर्थ है निश्चित ही केंद्र सरकार इससे कुछ राजनीतिक फायदे की सोच रही है। पिछले लोकसभा चुनाव में भी नरेंद्र मोदी ने जाति की महत्तम राजनीति की थी। इससे उन्हें फायदा भी मिला। उनकी इस राजनीति को निश्चित ही भाजपा की मातृसंस्था आरएसएस का समर्थन प्राप्त होगा। भाजपा इस बार जो करने की सोच रही है, वह भी आरएसएस की देखरेख में ही होगा,इसका अनुमान करना गलत नहीं होगा।
आरएसएस हिंदुत्व की महाराष्ट्रीयन व्याख्या के तहत संचालित संस्था है, जिसके कर्ता-धर्ता चितपावन रहे हैं। इसी समूह से ज़िन्दगी भर फुले-आंबेडकर संघर्ष करते रहे। यह एक ऐसे देश- हिन्दुस्थान – की आकांक्षा करती है, जिस पर वर्णव्यवस्था के तहत चलने वाले सनातनी हिन्दू धर्म के नियम कायदे अक्षुण्ण रहें। यह इसे हिन्दू संस्कृति कहती है। कुल मिलाकर यह ब्राह्मणवाद का एक ऐसा आधुनिक पाठ है, जिसमें पारम्परिक शूद्रों के संस्कृतीकरण और एक नए शूद्र समूह (मुसलमान और ईसाई ) की परिकल्पना है। यह शायद इसलिए कि ब्राह्मणवादी वर्चस्ववाद नफरत की बुनियाद के बिना टिक ही नहीं सकता।
अब ऐसी विचारधारा के नेतृत्व में पिछड़ों का जो कल्याण -विधान तैयार होगा, उसका अनुमान मुश्किल नहीं है। संघ या भाजपा पिछड़े समूहों का ऐसे ही रूप में विकास चाहती है कि वे यानि पिछड़े समूह उनके वर्चस्व के घेरे से मुक्त न हो सकें। वे उनकी सांस्कृतिक आज़ादी के ख्याल से तो बिलकुल सहमत नहीं हैं। बल्कि अपने सांस्कृतिक वर्चस्व में ही थोड़ी सहूलियत का समर्थन करते हैं। जैसे कभी डोमिनियन आज़ादी, यानी अंग्रेजों के वर्चस्व के तहत ही कुछ वैधानिक सहूलियतें देने की बात होती थी। ऐसे में संघ या भाजपा आरक्षण व्यवस्था की वैसी विरोधी नहीं है, जैसा कि लोग आमतौर पर समझते रहे हैं। यह बुरा नहीं होगा कि हम संघ के वैचारिक पृष्ठभमि पर एक विहंगम नज़र डाल लें।
उन्नीसवीं सदी के सामाजिक दार्शनिक जोतिबा फुले ने वर्चस्व मुक्त एक नए समाज की आकांक्षा की थी। उन्होंने महाराष्ट्र में मध्यकाल से चल रहे भक्ति आंदोलन की भागवत -वैष्णव धारा का एक आधुनिक पाठ तैयार किया था, जो व्यवहार में ब्राह्मणवाद विरोध के रूप में प्रकट हुआ। फुले ने इसका सामाजिक पाठ तो तैयार किया, लेकिन राजनीतिक पाठ तैयार नहीं कर सके। इसी के लगभग बाल गंगाधर तिलक ने राजनीति का एक ब्राह्मणवादी पाठ तैयार किया, जो महाराष्ट्रीयन- राष्ट्रवाद के रूप में उभरा। तिलक की मृत्यु 1920 में हो गयी। इस समय तक गाँधी ने राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया और तिलक का विरोध किये बिना उनकी राजनीतिक -सामाजिक सोच से अलग हो गए। तिलक के लोग 1925 में आरएसएस के रूप में संघटित हुए। इसी के लगभग भीमराव आंबेडकर ने फुले की विचारधारा की एक राजनीतिक व्याख्या की। तभी से इन दो धाराओं के बीच सांप नेवले का संघर्ष चल रहा है और भारत का मुख्य संघर्ष दरअसल यही है।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि सामाजिक न्याय की यह पूरी लड़ाई एक सिलसिले के रूप में है। आरक्षण तो उसका एक छोटा-सा पड़ाव है। धीरे-धीरे लोग इसकी सीमाओं को समझने भी लगे हैं। क्योंकि यह आरक्षण केवल सरकारी नौकरियों में है। (अर्जुन सिंह ने इसे दाखिले से जोड़कर एक महत्वपूर्ण काम किया था) अब ऐसे वक़्त में जब सरकारी नौकरिया बहुत कम रह गयी हैं, इस आरक्षण योजना से बहुत उम्मीद करना फिजूल है। लेकिन वर्चस्ववादी चाहते हैं कि जो है, उसे भी निष्क्रिय या बेकाम किया जाये, ताकि उनका दबदबा कायम रहे। इसी कुटिलता की पहचान करना ज़रूरी है। ये कौन से लोग हैं, जो अगर-मगर और बाँट-बखरे की राजनीति कर रहे हैं? उनका उदेश्य क्या है?
सबसे पहले हम इस तथ्य को जान लें कि यह पिछड़ा वर्ग क्या है। कुछ लोग समझते हैं कि हिन्दू शूद्र-अद्विज जातियों का एक समूह है, जिसे वर्ग के रूप में चिन्हित किया गया है। ऐसे लोग भी हैं जो पिछड़ी जाति और पिछड़े वर्ग का अंतर भी नहीं जानते। पिछड़े वर्ग की मंडल सूची में अनेक द्विज जातियां भी हैं और अनेक अद्विज जातियां इससे बाहर हैं। मसलन गुजरात में पाटीदार पटेल जो अद्विज हिन्दू जाति समूह है, अपने सामाजिक रुतबे के कारण पिछड़े वर्ग में नहीं है और राजपूत क्षत्रिय, जो एक द्विज जाति है, पिछड़े वर्ग के तहत है। देश के कई हिस्सों में कुछ ब्राह्मण जाति समूह पिछड़े वर्ग के तहत हैं, जैसे बिहार-उत्तरप्रदेश में भट्ट ब्राह्मण इस सूची में शामिल हैं। कुछ अन्य द्विज जातियां भी हैं। फिर इस सूची में मुसलमानों की कई जातियां हैं।
जातिवार सर्वे की रपट तो प्रकाशित नहीं हुई है, लेकिन सरकारी आकलन है कि देश में पिछड़े वर्गों की संख्या 54 प्रतिशत है। इनमें लगभग 46 प्रतिशत हिन्दू और 8 फीसदी मुसलमान हैं। इन्हें अनुसूचित जाति, जन जातियों की तरह संख्या के अनुपात में आरक्षण नहीं मिला। उसके आधे, यानी 27 फीसद मिला है। इसी पर इतनी चिल्ल-पों मची थी। दुर्भाग्य से पिछड़े वर्गों ने आबादी के अनुसार आरक्षण के मामले को ठन्डे बास्ते में डाल दिया। लोहिया ने इनके लिए 60 फीसद की मांग की थी- नारा ही था – संसोपा ने बाँधी गाँठ, पिछड़ा पावें सौ में साठ। लेकिन लोहियावादी भी ये नारा कब के भूल गए। वे मंडल पर ही मचल गए।
मंडल दौर के पूर्व उत्तर भारत में आरक्षण राजनीति का पिटारा बिहार में कर्पूरी ठाकुर ने खोला था। तब यहां, यानी बिहार में, मुंगेरीलाल की अध्यक्षता वाली पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिशें लागू की गई थीं। इसे लेकर वबाल हुआ। कर्पूरी ठाकुर को जनता पार्टी के एक हिस्से और कांग्रेस ने मिलकर सत्ता से हटा दिया। वर्गीय सवालों पर कांग्रेस और जनसंघ (भाजपा का पूर्व रूप ) कैसे एक हो जाते हैं इसका यह एक उदहारण था। इसी की प्रतिक्रिया में केंद्र की तत्कालीन मोरारजी सरकार ने बीपी मंडल की अध्यक्षता में एक आयोग बनाया। इसके पूर्व कालेलकर आयोग ने पिछड़े वर्ग को 33 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की थी। बीपी मंडल कांग्रेस में शामिल हो गए थे। शायद उन्हें खुश करने के लिए उनकी अध्यक्षता वाले आयोग ने6 फीसद कम यानी 27 फीसद की सिफारिश की। वह भी नौ वर्षों तक ठन्डे बास्ते में पड़ी रही। वीपी सिंह ने कर्पूरी ठाकुर की तरह अपनी राजनीतिक बलि देकर इसे 1990 में लागू किया।
आंकड़े बतलाते हैं कि आज भी सरकारी सेवाओं में पिछड़ों की भागीदारी 27 फीसदी नहीं है। यह क्यों है, इस पर किसी की नज़र नहीं है। नज़र इस पर है कि इस जाति-व्याकरण से राजनीतिक लाभ कैसे लें। चर्चा है कि वर्गीकरण में पिछड़े वर्गों को दो समूहों में विभक्त किया जायेगा। जैसा कि ऊपर बतला चुका हूँ, बिहार में यह हो चुका है। इसका विरोध कौन कर रहा है? लेकिन भाजपा पक्ष से यह माहौल बनाया जा रहा है कि उच्च पिछड़े समूह इसका विरोध करेंगे। इस कल्पित विरोध पर ही ये पिछड़े वर्ग में फूट डालना चाहते है कि देखो हम तुम्हारे अधिक खैरख्वाह हैं।
आरक्षण का मक़सद रोजगार उपलब्ध कराने से अधिक ब्यूरोक्रेसी में सामाजिक जनतंत्र लाना रहा है, लेकिन अब चूकि इंजीनियरिंग, मेडिकल और यूनिवर्सिटियों में भी इसका विस्तार किया जा चुका है, तब इसमें कुछ परिमार्जन आवश्यक होगा। मेरी राय होगी कि आरक्षण का लाभ उन्हें मिले, जो ज्यादा मुश्किलों में हैं। सामाजिक तौर के अलावे आर्थिक तौर पर पर भी जो पीछे हैं, जैसे पिछड़े तबकों में जो भूमिहीन हैं, उन्हें प्राथमिकता मिले। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एडमिशन के लिए जो सिद्धांत प्रतिपादित किये गए हैं, उसका एक संशोधित -परिष्कृत रूप आरक्षण के मामले में भी लागू हो तो अच्छा होगा। इसके तहत पिछड़ेपन के कुछ पॉइंट होंगे और उसमें जाति के पॉइंट को भी जोड़ा जायेगा। इस तरह से सूची बनेगी। यदि कोई पिछड़े जिले, पिछड़े गांव, अनपढ़ माता-पिता, कच्चे घर, भूमिहीन परिवार से जुड़ा है तो इन सबके पॉइंट उसमें जुटते जाएँ। इस आधार पर उसे वरीयता मिलनी चाहिए। इसके बिना अभ्यर्थी आरक्षण का लाभ इनके बाद ही ले पाएंगे या नहीं ले पाएंगे। यदि पिछड़े वर्गों के सबसे पिछड़े लोग पूरी तरह काबिज़ हो जाते हैं, तो इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है। आरक्षण का मक़सद भी यही है।
सरकारें और राजनीतिक जमातें जाति को लेकर एक राजनीति करना चाहती हैं। उनका उद्देश्य इससे अपने लिए वोट निकालना होता है। निश्चय ही इसके लिए ये सामाजिक न्याय की विकृत व्याख्या करती है। जो सामाजिक न्याय के वास्तविक आग्रही हैं, वे एक समतामूलक आज़ाद ख्याल ऐसे समाज की कल्पना करते हैं जहाँ जाति, वर्ण, वर्ग, मज़हब की दीवारें न हों। इसीलिए मेरे जैसे लोग आरक्षण की वकालत करते हैं, लेकिन इसे लम्बे समय तक ले चलने के विरुद्ध हैं। हमारा हमेशा यही सिध्दांत रहा है कि बीमार को अस्पताल ज़रूर पहुंचाओ,लेकिन मरीज़ को हमेशा के लिए अस्पताल में ही मत छोड़ दो। उसे स्वस्थ कर जल्दी से जल्दी वहां से निकालने की कोशिश करो; अन्यथा पूरा समाज पंगु हो जायेगा। आरक्षण का मक़सद समाज को मज़बूत करना है, कमजोर करना नहीं और यह भी कि यह कोई कलगी नहीं है, जिसे हम देर तक लगाए रहें। मक़सद पूरा कर इसे जल्द से जल्द समाप्त करने की भी कोशिश करनी है।
- प्रेमकुमार मणि