आर्थिक उदारीकरण ने पैकेज तो दिये, पर बाजार के रास्ते ले लिये

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आर्थिक उदारीकरण ने आपको वेतन-पैकेज लाख-करोड़ रुपये तो दिये, लेकिन ये पैसे बाजार के रास्ते फिर पूंजीपतियों के पास ही पहुंच गये। इसे कोई नहीं समझा।
आर्थिक उदारीकरण ने आपको वेतन-पैकेज लाख-करोड़ रुपये तो दिये, लेकिन ये पैसे बाजार के रास्ते फिर पूंजीपतियों के पास ही पहुंच गये। इसे कोई नहीं समझा।

आर्थिक उदारीकरण ने आपको वेतन-पैकेज लाख-करोड़ रुपये तो दिये, लेकिन ये पैसे बाजार के रास्ते फिर पूंजीपतियों के पास ही पहुंच गये। इसे कोई नहीं समझा। कार, मोबाइल, फ्लैट, फर्मीचर, सौंदर्य प्रसाधन, ड्रेस और न जाने किन-किन तरीकों को बाजार ने अपनाया और आपके लाखों-करोड़ों के पैकेज को ईएमआई के मकड़जाल में फंसा कर न सिर्फ हड़प लिये, बल्कि सामाजिकता का भी सत्यानाश कर दिया।

  • कर्मेंदु शिशिर

आर्थिक उदारीकरण की नीति  स्वीकार कर जब  हमने देश को विश्व अर्थव्यवस्था से जोड़ दिया तो अचानक निजी पूंजी अलबला कर उफन गई। युग परिवर्तन हो गया। गांव में चलने वाले मुहावरे “लखपती बन गइल का?” हास्यास्पद बन गया। निजी क्षेत्रों में बीस-पचास लाख के पैकेज वाले लाखों लड़के निकल आये। कई करोड़ के पैकेज होने लगे। जाहिर था, सरकारी नौकरी में भी वेतन दो-तीन लाख के साथ विपुल सुविधाएं मिलने लगीं।

निजी या सरकारी नौकरी पाने वाले युवा और मध्य वर्ग का एक हिस्सा बम-बम हो गया। उसके परिवार के लोग भी पगला गये। इसमें हम जैसे वामपंथी सोच के परिवार में बच्चों को भी समझाना-समझना असंभव  हो गया। उसे पैकेज चाहिए, फालतू के उपदेश नहीं। मध्य वर्ग के उस हिस्से  को पूंजीवाद वरदान लगने लगा।

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अब आप सिर्फ एक बात पर विचार कीजिए। आर्थिक उदारीकरण के बाद पैकेज और लखटकिया नौकरी के पैसे आपको मिले जरूर, लेकिन उस पर पूंजीपतियों की गिद्ध दृष्टि गड़ी हुई थी। इससे आप बेखबर रहे। छोटे से लेकर बड़े शहरों तक में कार के शो रूम खुल गये। सफारी से ओडी तक कारों के बाज़ार गजगज। हाईवे चकाचक। फिर फ्लैट का बाज़ार! ऐसा कि एक आदमी कई फ्लैट लेने लगे। पच्चीस लाख से पांच-छह करोड़ के फ्लैट।

सौ-हजार के वेतन में घर परिवार, कभी रिश्तेदार तो कभी पड़ोस को देखने वाले की संतानें पैकेज और लखटकिया वेतन में कार-फ्लैट की किश्त, महंगी शिक्षा और लाम-काफ में माता- पिता, भाई-बहन और रिश्तेदार की ओर देखने की भला कहां से गुंजाइश निकालते? मरने पर पहुंच गए तो अहोभाग्य! पर्व-त्योहारों पर आना-जाना खतम।

चपंडूक भारतीय संस्कृति, भारतीय संस्कृति चिचिआते रहते हैं। उधर संस्कृति का भुरकुस निकाल कर उसे नंगे नचाते रहे पूंजीपति। अब आपकी आंख में माड़ा पड़ा है तो दिखेगा क्या? खाक? माला फेरते रहिये और भारतमाता-भारतमाता करते रहिये।

कार, सीमेंट, लोहा, प्लाईवुड, टाइल्स, शीशा-फानूश और न जाने क्या-क्या? खिलौनों और श्रृंगार के बाज़ार का पता कीजिए। गोराई और ग्लेज लाने वाले क्रीम की कीमत में किसी का महीने भर घर चल जाये। इलाज और शिक्षा में पूंजी का खेल आप जानते ही हैं। एक मोबाइल ने आमूल-चूल समाज और मनुष्य को, बच्चों और स्त्रियों को बदल डाला। लाख़- लाख के मोबाइल आने लगे। मसलन पैकेज और लखटकिया वेतन वाले लोगों के मार्फत पूंजी पहुंची पूंजीपतियों के पास। रेल पर चलने वाले हवाई जहाज से उड़ने लगे। जहाज़ कंपनियों को रकम पहुंचने लगी। होटलों में दो हजार तक के नाश्ते मिलने लगे। घोटाले जो हजार लाख में होते थे, करोड़, सैकड़ों, हजारों और लाखों करोड़ रुपये के होने लगे। इस दौरान धर्म की दुदुंभी की आवाज और शोर सबसे तेज हुई। हथियार खरीद में तो पूछिये मत। देश विकास करने लगा। विकास के प्रमाण गांवों तक मिलने लगे। हम छाती फुला-फुला कर अगल-बगल धमकाने लगे। लोग़ों की इस खुशी पर पूंजीपति मुस्कुराते रहे और उनके चाकर राजनेता भी गदगद! ये सब आर्थक उदारीकरण के नफा-नुकसान हैं।

अब आइये इस चकाचक के अंधकार की ओर। आप देखिये कि देश में कितनी आबादी पैकेज वाली और लखटकिया है और कितनी विशाल आबादी इससे वंचित है। जो निम्न और गांव के गरीब थे, उनकी सोचिये। पूंजीपतियों ने एक विशाल आबादी को छह से दस हजार। पन्द्रह से बीस हजार पर बारह-बारह घंटे पेरना शुरू किया तो सरकारों ने भी कैजुअल, ठेका, टेम्परेरी और कांट्रैक्ट का धंधा शुरू कर किया। नौकरियां सिकुड़ने लगीं। अधिकारियों को छोड़ लगभग तमाम पद पर ऐसे लोग खटने लगे। वे कभी भी निकाल दिये जाते। पैकेज और लखटकिया वेतन वालों को इस आबादी का कोई पता नहीं, कुछ मतलब नहीं! बेरोजगार और बेहद कम और अस्थायी कमाई के लोगों की सोचिये? ये पूंजीवाद के मवाद हैं! मरता क्या न करता? अपराधियों की संख्या भी साइजेबुल होने लगी। तरह-तरह के अनैतिक धंधे होने लगे। क्या यही विकास है? यही बेहतर समाज है? यही हमारा सपना और आदर्श था? आपको दाम बांधो और अधिकतम और न्यूनतम वेतन की बात को फिर से नहीँ उठाना चाहिए? यह समाज अंदर से बजबजा उठा है। पूरी तरह सड़ चुका है। आप किसी दल के हों, जरा पटरी पर दुकान लगाने वाले और फेरी वाले, घर की महरी या अपार्टमेंट के बारह घंटे की ड्यूटी करने वाले गार्ड्स को रोक कर पूछिये कि बाबू तुम्हारा घर कैसे चलता है? अगर आप अंदर से बेचैन नहीं हैं तो समझिये, भले आप सजीव मनुष्य लगते हों, असल में आप पूरे के पूरे काठ हैं। दीमक लग चुके काठ के चलते-फिरते मनुष्य हैं आप! चाहे आप किसी धर्म या विचार अथवा जाति के क्यों नहीं हों? आप आर्थिक उदारीकरण के लाभ-हानि से अब पूरी तरह वाकिफ हो गये होंगे!

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