आलोक तोमर को जनसत्ता के प्रधान संपादक प्रभाष जोशी बेहद मानते थे, फिर भी एक मौका ऐसा आया, जब उन्होंने आलोक तोमर से इस्तीफा मांग लिया। क्या था वह प्रकरण, जिसकी वजह से आलोक तोमर को जनसत्ता अखबार से इस्तीफा देना पड़ा, बताया है वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार हरीश पाठक ने अपनी प्रस्तावित संस्मरणात्मक पुस्तक में।
- हरीश पाठक
वह साल 1993 था। पीवी नरसिम्हाराव देश के प्रधानमंत्री थे। उन्होंने झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के सांसदों को साधकर अल्पमत की सरकार को, बहुमत की सरकार बना दिया था। हर कोने पर उनके लोग थे। सब तरफ उनका जयकारा था। प्रभाष जी ने वरिष्ठ कथाकार, गांधीवादी गिरिराज किशोर से सम्पादकीय पृष्ठ के लिए एक लेख लिखवाया। निष्पक्षता गिरिराज जी की पहचान थी। स्पष्टता उनका आचरण। वह लेख छपा। छपे लेख पर पद्मश्री गिरिराज किशोर हतप्रभ। उन्होंने प्रभाष जी को फोन किया और कहा, ‘मूल से मिलाकर छपा हुआ पढ़ लें। आगे से लिखने की कहना मत।’
सन्नाटे में डूबे प्रभाष जी ने लेख पढ़ा और तमतमाते नीचे न्यूज़ डेस्क पर पहुँचे। चिल्लाते प्रभाष जोशी को तब जिसने देखा था, वह आज भी उस क्षण को भूल नहीं पाता। समाचार सम्पादक, पेज प्रभारी सबको फटकारा। वे चीख रहे थे और एक कम्पन वहां सबको हिला रही थी।
लेख का अनर्थ हुआ था। जो लिखा था, उसका उल्टा छपा था। नरसिम्हा राव देश के ऐसे ‘सक्षम’ प्रधानमंत्री की जगह ‘अक्षम’ था। उन्होंने ‘अल्पमत’ सरकार को ‘बहुमत’ लिखा था। ‘अकेले’ को अंतिम, ‘सत्ता के संघर्ष’ को सट्टा के संघर्ष, ‘बेहतरीन’ को बहरीन, ‘बाहरी’ को भीतरी, ‘पुरुषार्थ’ को पुण्यार्थ जैसे शब्द आखिरी करेक्टेड गैली में जुड़े थे। वही गैली पेस्ट हुई थी। उसे ही होना भी था।
कोहराम में डूबे उस दफ्तर में सेवाएं दे रही सॉफ्टवेयर कम्पनी ने तत्काल अपने वरिष्ठतम इंजीनियर भेजे। हर कंम्यूटर से ब्रोमाइड निकला। उसकी कॉपी की जांच हुई। उस लेख की संशोधित कॉपी आलोक के कंम्यूटर से निकली। दफ्तर में सन्नाटा। प्रभाष जी भौचक। यह क्या, कैसे, किसलिए आलोक ने किया। आलोक उन सवालों के जवाबों से बच रहा था, बच जाने की उम्मीद में। खदबदाती हिंदी पत्रकारिता जानना चाहती थी कि प्रभाष जी क्या करेंगे?
वे आये, उन्होंने लिखा, ‘ प्रिय आलोक, जनसत्ता से तुम्हारे दिन अब पूरे हो गए हैं। मैं खाना खाने जा रहा हूँ, लौटकर आने पर तुम्हारा इस्तीफा मेरी टेबल पर होना चाहिए।’
यह भी पढ़ेंः आलोक तोमर की यादः अगर मैंने किसी के होंठ के पाटल कभी चूमे(Opens in a new browser tab)
यहां नीति, नियम, कानून से बंधे प्रभाष जी थे।उधर सफलता के शिखर पर बैठा आलोक तोमर।एक दरवाजा बंद,चार के विशाल दरवाजे झन झन खुलते हुए।दस दिन बाद ही उसे हिंदुस्तान टाइम्स की बिरला फाउंडेशन की फेलोशिप मिल गयी।इस फेलोशिप के अंतर्गत उसने ‘हराभरा अकाल’ जैसी बेहतरीन किताब लिख दी।इस साल इस फेलोशिप के मुखिया थे प्रभाष जी।यही नहीं जब आलोक ‘सीनियर इंडिया’ का सम्पादक बना और एक विवादित कार्टून को छापने के अपराध में गिरफ्तार हुआ तो सन्नाटे में डूबे उस माहौल को टीवी पर आकर प्रभाष जी ने ही तोड़ा। तब ‘सम्पादक की गिरफ्तारी’ पर बाकायदा बहस के कार्यक्रम खूब चले। रिश्तों का यह ऐसा कोमल कोना था, जो क्षतिग्रस्त हुआ ही नहीं। आजन्म।
यह भी पढ़ेंः आलोक तोमर की याद: अब यहॉं कोई नहीं है, सिर्फ पत्ते डोलते हैं(Opens in a new browser tab)
वह 2011 की एक शाम थी। मन उदास था। तब मैं पटना में ‘राष्ट्रीय सहारा’ का स्थानीय संपादक था। दो दिन से मेरे सपनों में परेशान आलोक आता। मैं डर गया। एक दिन उसे फोन किया। उसकी आवाज टूटी थी। मैंने कहा, ‘आप क्यों रोज मेरे सपनों में आ रहे हैं? सब ठीक है?’ उसने कहा, ‘नहीं, कान के नीचे एक फोड़ा था, उसे मैने निकलवा दिया।’ मैने कहा, ‘डॉक्टर की सलाह पर न? बॉयोप्सी को भेजा है?’ वह बोला, ‘हाँ,वुधवार को रिपोर्ट आयेगी।’
यह भी पढ़ेंः आलोक तोमर की यादः सुप्रिया के प्रेम में आकंठ डूब गया था(Opens in a new browser tab)
बुधवार को 4 बजे मैंने फोन किया। नहीं उठा। सुप्रिया को फोन किया। उसने बताया रिपोर्ट आ गयी है। कैंसर है। अभी आप उसे ज्यादा न बताएं’। मैं रोने लगा। फिर मैने राहुल देव को फोन किया। उन्होंने कहा, ‘इलाज होगा। रोना नहीं है’। मैंने दफ्तर जाने के लिये पहने कपड़े उतार दिए। मन बहुत बुरा हो गया। समूह सम्पादक के एक आदेश के चलते दफ्तर पहुँचना पड़ा। कंम्यूटर पर ‘डेटलाइन’ में आलोक की खबर थी ‘अब मुझसे लड़ेगा कैंसर।’ अंत तक वह कैंसर से लड़ा। बखूबी। उसने मरते दम तक पत्रकारिता भी नहीं छोड़ी। कैंसर की दवाइयों के काला बाजार पर खूब लिखा।
वह साल था 2011। मैं पटना में ‘राष्ट्रीय सहारा’ का स्थानीय संपादक था। तारीख थी 20 मार्च। मौसम में होली गीत थे और थी गुलाल की महक। मुम्बई होली मनाने आया ही था कि राहुल देव का फोन आया, ‘आलोक नहीँ रहा। कल लोधी रोड श्मशान में उसका अंतिम संस्कार है। सुबह की फ्लाइट पकड़ कर आ जाओ।’
यह भी पढ़ेंः जनसत्ता वाले आलोक तोमर: हर दुखी-पीड़ित की मदद को हमेशा तत्पर(Opens in a new browser tab)
लकड़ियों के ऊपर हिंदी का यह सितारा पत्रकार लेटा था, जैसे लीड की खबर लिखने के बाद आराम कर रहा हो। हमारे गर्दिश के दिनों का साथी अरुण तोमर बेतहाशा रोते हुए बड़बड़ा रहा था, ‘हर बात में जल्दी थी न तुझे। यहां भी जल्दी कर दी’। राहुल देव उसे सम्भाल रहे थे। उसके पिता भारत सिंह जी मुझे देख फफक पड़े और मेरी बाँहों में ही झूल गए।
कतार में सब थे। पुण्य प्रसून, राजीव शुक्ल, सुधीर तैलंग, आशुतोष, दिबांग, मनोहर नायक, शरद श्रीवास्तव, उमेश जोशी, कुमार आनन्द तमाम साथी। सामने था धूल, धुंआ फिर राख होता मेरा वह साथी, जिस पर हम सबको नाज था।
वापस चितरंजन पार्क आया तो बिलखती मम्मी ने एक मुड़ा तुड़ा कागज दिया। वह आलोक की अंतिम कविता थी। उसकी शुरुआती लाइनें थी:
‘ए अहेरी, काल तुझसे होड़ है मेरी
जानता हूँ चल रही है मेरी तुम्हारी दौड़
मेरे जन्म से ही
मेरे हर मंगलगान को
तुमने रखा है ध्यान में।
चल रही है दौड़ तुमसे मेरी
ए अहेरी।‘
वाया इंडिया इंटरनेशनल सेंटर सुधीर तैलंग ने मुझे एयरपोर्ट छोड़ा। हम दोनों चुप थे। सन्नाटे में थे। वापस मुम्बई घर पहुँचा तो आलोक की कमलेश जिज्जी रुआँसी बैठी थीं। भर्राई आवाज में उन्होंने कहा, ‘अब आलोक सिर्फ यादों में मिलेगा?’ उनकी आंखों का गीलापन मुझे अब तक डराता है। इसी गीलेपन में जब तब उभरता है वह अक्स, जो हिंदी पत्रकारिता का कभी न भूलनेवाला चेहरा था और रहेगा। बहुत मुश्किल है इस मौसम में आलोक तोमर बनना।
यह भी पढ़ेंः आलोक तोमर को कुछ इस तरह याद किया हरीश पाठक ने(Opens in a new browser tab)
(हरीश पाठक के संस्मरणों की पुस्तक ‘मलहरा टू मेम्फिस वाया मुम्बई‘ में आलोक तोमर से जुड़े संस्मऱणात्मक लेखों की अंतिम कड़ी)