आलोक तोमर ने इंडियन एक्सप्रेस घराने के अखबार जनसत्ता के शुरुआती दिनों में अपनी रिपोर्ट से धमाल मचा दिया था। खासकर सिख दंगों की रिपोर्टिंग से। क्राइम जैसी नीरस बीट को पेश करने का उनका जो अंदाज था, वह क्राइम की खबरों के लिए नया मानक बना। इसका जिक्र वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार हरीश पाठक ने संस्मरणों पर आधारित अपनी प्रस्तावित पुस्तक में किया है। पेश हैं उसके अंश
- हरीश पाठक
मैं बस में बैठ गया था। कानों में आलोक की खनकती आवाज बज रही थी, ‘बस अब देखना आपका यह दोस्त क्या कर जायेगा?’ मेरे मन के भीतरी कोने में यह विश्वास पक्के तौर पर बैठा था कि यदि दंगे भड़के, जिसका माहौल दिख रहा था तो ‘जनसत्ता’ सभी को पीछे छोड़ देगा। कारण भी साफ था। उसका तेवर, कलेवर, फ्लेवर और सबसे ऊपर अपनी टीम के पीछे हौसला, हिम्मत और हमदर्दी देते प्रभाष जोशी।
उन दिनों मैं नौरोजी नगर रहता था। आईटीओ से वहां तक पहुँचने में मुझे तीन घँटे लगे। जगह-जगह मशालें ले कर खड़ी उन्मादी भीड़, बस से उतरते लाचार से इधर उधर भागते फिर दूसरी बस में चढ़ते लोग, बदला लेंगे, बदला ले कर रहेंगे का सामूहिक उदघोष। जगह- जगह से उठते काले काले धुंए के गोले और दूर कहीं से रह-रह कर आती कोहराम की मर्मांतक ध्वनि। मैं हांफता-काँपता घर पहुंच गया।
वह 1 नवम्बर,1984 की सुबह थी। ‘जनसत्ता’ के पहले पन्ने पर आलोक चमक रहा था। लीड खबर उसी के नाम से थी। कई उप खबरों के साथ। इस लीड खबर की अंतिम लाइनें थीं, ‘इसके साथ ही आज दो हत्याएं हुईं- एक इंदिरा गांधी की, दूसरी विश्वास की।’ यह थी ख़बरों को पेश करने की आलोक तोमर शैली। मन में उतरकर दिल में बैठ जानेवाली अदभुत शैली, जो उस दौर की जड़वत भाषा और थके मुहाबरों से कोसों दूर अपना अलग द्वीप गढ़ती और अपने होने का अहसास कराती थी।
राजधानी दंगों की चपेट में थी। लगभग हर कॉलोनी, बाजार, सुपर मार्केट में वर्ग विशेष की दुकानें लुट रही थीं। लोग सरेआम सिर पर रखकर लूटा हुआ टीवी, वाशिंग मशीन आदि ले जा रहे थे।
ऐसे अराजक मौसम में जब ज्यादातर क्रांतिवीर घर में दुबके थे, तब आलोक निर्द्वन्द, निडर, निर्भीक उन इलाकों में भटक रहा था, जो सर्वाधिक दंगा पीड़ित थे। कभी त्रिलोकपुरी, कभी सीमापुरी, कभी तिलक नगर, कभी फतेहनगर। वह कभी दंगाइयों से रूबरू होता, कभी सेना के जवानों से, कभी उन राजनेताओं से, जो नेपथ्य के नायक थे, तो कभी पीड़ितों को गले लगाकर उनके जख्म कम करता। कभी उसके कपड़े फाड़ दिये जाते, तो कभी उसकी टैक्सी में आग लगा दी जाती। यह उसके भीतर का वह दबंग पत्रकार ही था, जो इन हालातों से जूझता बेहतरीन खबरें दे रहा था, जो उसकी मौत के नौ साल बाद भी ‘जनसत्ता’ का इतिहास और पत्रकारिता का जरूरी दस्तावेज हैं।
एक शादी के उस घर की ऐसी रिपोर्ट उसने लिख दी, जिस घर में उसी रात ही बिटिया विदा होने वाली थी और वह घर दंगे की चपेट में आ गया। सब मार दिए गए। उसने उस रिपोर्ट में मेंहदी, महावर, हवन सामग्री, विदाई का सामान सब आंखों के सामने रख दिया। पूरे पन्ने की इस खबर के शीर्षक में ओम प्रभाकर की पंक्तियां थीं, ‘अब यहां कोई नहीं है, सिर्फ पत्ते डोलते हैं।’ यही नहीं, फतेह नगर के एक खानदान में एक दिन में 21 महिलाएं विधवा हुई थीं। आलोक ने वहां जा कर रोंगटे खड़े करनेवाली खबर लिखकर सबको स्तब्ध कर दिया था।
दंगों के बाद की हिंदी पत्रकारिता में वह नायक की तरह उभरा। अब वह प्रभाष जी का लाडला और देश का सितारा पत्रकार बन चुका था। दंगों के बाद उसने एक-एक कर राजनीति के उन चेहरों को सप्रमाण बेपरदा किया, जिनकी दंगों में कलुषित और कलंकित भूमिका थी। तब उन सबके आरोप पत्र में जरूरी दस्तावेज की तरह आलोक की खबरें लगीं थीं।
सत्य निकेतन छोड़कर अब वह दफ्तर के नजदीक प्रीत विहार में शर्मा जी की विशाल कोठी के गैरेज के ऊपर के कमरे में जिसमें सब कुछ व्यवस्थित था, रहने लगा था। पास में ‘मधुबन’ में राहुल देव रहते थे। उन दिनों वे ‘माया’ मेँ दिल्ली ब्यूरो के प्रभारी थे। दिल्ली प्रेस उसका आना जारी था। आते ही रिसेप्शन पर बैठी नूतन नाथ से वह जरूर मिलता। कभी- कभी उनसे ऑटो के लिए खुल्ले पैसे भी ले लेता। एक दिन मैंने टोका तो वह एक झटके में बोला, ‘क्या करूँ बंगाली महिलाएं मुझे बहुत पसंद हैं’। दिल्ली प्रेस के सब लोग उसे खूब पसंद करते। वह सबसे मिलता और ऐन मेरी सीट के पास खड़े हो कर कहता, ‘हरिज्जि, यह बनिये की नौकरी आपकी नियति नहीं है। आपको ‘धर्मयुग’ जैसी बड़ी पत्रिका में रहना है। उसके बाद किसी बड़े अखबार का सम्पादक। मुझे पता है, आप एक बार सम्पादक बने तो फिर वहीं से रिटायर भी होंगे।’ वह उस विशाल हॉल में यह सब जोर से बोलता तो कभी मोहनदास जी, तो कभी मुकुल गर्ग उसे अपने पास बुला लेते। चाय पिलाते और देर तक बातें करते।
वह 1985 की एक सर्द शाम थी। 31 दिसम्बर की उस शाम प्रख्यात लेखिका पद्मा सचदेव के बंगाली मार्केट स्थित ‘मितवा घर’ में एक बड़ी पार्टी थी, जिसमें डॉ धर्मवीर भारती, पुष्पा भारती खास मेहमान थे। चित्रा मुदगल और अवधनारायण मुदगल चाहते थे कि मैं इस पार्टी में जरूर शामिल रहूँ, ताकि वे भारती जी से मेरा परिचय करवा दें। सुरिंदर सिंह जी का भी आमंत्रण आ गया, पर मैं वहाँ जाने से हिचक रहा था। एक तो पद्मा जी की पार्टी में नम्बर वन के लोग ही जुटते थे, दूसरा मेरा इकलौता कोट ड्राय क्लीनर्स के पास था। मैं एक पतला हाफ स्वेटर पहने दफ्तर में था। उस हाल में मैं जा ही नहीं सकता था। जाने का मतलब पहले आरकेपुरम जाऊं, फिर बंगाली मार्केट। आलोक का फोन आया। वह बोला, ‘आप आ रहे हैं? मैंने अपनी बात बतायी तो वह भड़क गया। बोला, ‘हरिज्जि, भारती जी मायने जानते हैं। यही मौका है मिलने का। क्या पता आप बनिये की नौकरी छोड़, अशोक जैन की नौकरी कर रहे हों। खेल हो जाएगा। काहे का स्वेटर, कहाँ का कोट। आपकी यह आदतें मुझे कभी नहीं जमीं। चाहें तो जल्दी निकल जाएं। मैं सात बजे मितवा घर के नीचे आपका इन्तजार
करूँगा।
सात बजे मैं ‘मितवा घर’ के दरवाजे पर था। आलोक पहले ही वहां मुस्तेद था। भीड़ जुटी थी। तब की दिल्ली के सितारा लेखक, सम्पादक, नौकरशाह वहां मौजूद थे। जसदेव सिंह, अलवेल सिंह ग्रेवाल, विशन टण्डन, सुरेंद्र तिवारी, सुनीता बुद्धिराजा, कन्हैयालाल नन्दन, चित्रा मुदगल, अवधनारायण मुदगल, शीला झुनझुनवाला, टीपी झुनझुनवाला जैसे तमाम दिग्गज। सुरिंदर सिंह ने भारती जी से मेरा परिचय कराया। भारती जी बोले, ‘तीन दिन से दिल्ली में हूँ। हर विचारधारा के लेखक से मिला। सभी ने तुम्हारी तारीफ की है। ‘धर्मयुग’ में नौकरी करोगे। यदि मन हो तो कल सुबह दस बजे इसी घर में मिल लेना।’ मेरे हाथ की प्लेट कांपने लगी। दूसरे दिन पौने दस पर ही मैं ‘मितवा घर’ में था। यहां से शुरू हुआ मेरी मुम्बई यात्रा का सफर।
अब मैं भारती जी के संपर्क में था। उन्हें आवेदन दे चुका था। कुछ दिनों बाद ‘नवभारत टाइम्स’ में एक बड़ा सा विज्ञापन निकला। ‘धर्मयुग’ में उपसम्पादक के लिए। सुमन सरीन का भारती जी ने ‘माधुरी’ में ट्रांसफर कर दिया था। उसकी जगह खाली थी। मैंने भारती जी को फोन किया। उन्होंने कहा, ‘आपका आवेदन मैं पर्सनल विभाग में भेज चुका हूं। आप आवेदन मत कीजिए, पर दिल्ली, मुंबई की लिखित परीक्षा और इंटरव्यू से आपको गुजरना होगा।’
मैं उन सब प्रक्रियाओं से गुजरा। अंततः मेरा ‘धर्मयुग’ में चयन भी हो गया और साल भी आ गया 1986। पिता की मौत हो चुकी थी। दिल्ली, दिल्ली प्रेस से मेरी चलाचली की बेला थी। पहले मेरी सगाई तय हुई, फिर विवाह होना था। फिर मुम्बई आना था। जिन कमलेश मिश्र से मेरा विवाह तय हुआ, वे पहले आकाशवाणी ग्वालियर में प्रसारण अधिकारी थीं। फिर अपने घर छतरपुर चली गयीं। बारात छतरपुर जानेवाली थी। आलोक, ग्वालियर आकाशवाणी में अक्सर जाता था। कभी अन्नपूर्णा तोमर से मिलने, कभी आभा मिश्र से मिलने। कमलेश मिश्र से भी वह मिलता और उन्हें जिज्जी कहता।
मैं सगाई के लिए ग्वालियर गया था। आलोक को मैने सब बताया। उसने एकदम चुप्पी ओढ़ ली पर कहा, ‘आना ही है। आऊंगा ही।’
इसी बीच एक चिट्ठी आकाशवाणी छतरपुर के पते पर कमलेश मिश्र को मिलती है। आलोक की उस चिट्ठी में लिखा होता है, ‘कमलेश जिज्जी, अब आप मेरे आत्मीय संसार में आ ही रही हैं, हरीश के बहाने ही सही। मैंने आपके लिए एक सिद्धांतवादी वर की कामना की थी, हरीश जैसे दुनियादार की नहीं। बहरहाल मिलेंगे ही।’
चिट्ठी मिलते ही विवाहवाले उस परिवार में सन्नाटा उतर आया। ‘दुनियादार’ ने संशय पैदा कर दिया। विभा तैलंग आकाशवाणी से जुड़ी थीं। वे सुधीर तैलंग की बड़ी बहन थीं। उनसे संपर्क किया गया। सुधीर ने कहा, ‘हरीश जी मेरे मित्र हैं। बढ़िया आदमी हैं। अब तो वे मुम्बई टाइम्स ऑफ इंडिया में जा रहे हैं। आलोक ने किसी झोंक में यह कुछ लिख डाला होगा। चिंता की कोई बात नहीं है।’
सगाई में आलोक ग्वालियर था। रमाशंकर सिंह, सीता सिंह, अरुण तोमर, शरद श्रीवास्तव, प्रदीप चौबे, जहीर कुरेशी के साथ देर तक रहा। फिर विवाह में रिसेप्शन में चित्रा जी, मुदगल जी के साथ आया था। मैंने अंत तक उससे उस चिट्ठी का कोई जिक्र ही नहीं किया।
एक दिन जब सुधीर ने उसे उस चिट्ठी के बारे में बताया तो वह छूटते ही बोला, ‘हरिज्जि के बारे में गलत कैसे सोच सकता हूँ? वे नहीं होते तो मैं दिल्ली ही नहीं होता।’ फिर उसने देर तक सुधीर को ‘दुनियादार’ का शाब्दिक अर्थ भी बताया।
1986 के अंत में, विवाह के तुरंत बाद मैंने दिल्ली और दिल्ली प्रेस को विदा कर दिया। जब मैं दिल्ली प्रेस छोड़ रहा था, उसके कुछ माह पहले ही सुप्रिया राय ने दिल्ली प्रेस जॉइन किया था। तब टाइम्स ऑफ इंडिया महिलाओं की पत्रिका ‘वामा’ निकालने जा रही थी, जिसकी सम्पादक चित्रा मुदगल के बनने की चर्चा थी। आलोक चाहता था कि सुप्रिया ‘वामा’ से जुड़े। ‘वामा’ की पहली सम्पादक बनीं मृणाल पांडेय। बाद में अवधनारायण मुदगल ‘सारिका’ के साथ ‘वामा’ के भी सम्पादक बने। सुप्रिया भी ‘वामा’ से जुड़ गयीं।
आलोक तोमर ने 1990 में उसने सुप्रिया से विवाह कर लिया। तब तक वह देश का स्टार पत्रकार बन चुका था। उसका विवाह उसी की तरह खूब चर्चित रहा। इस विवाह में रामनाथ गोयनका, अटलबिहारी बाजपेयी, राजमाता सिंधिया, अर्जुन सिंह, सरोज सिंह, बलराम जाखड़, मदनलाल खुराना, माधवराव सिंधिया, नारायण दत्त तिवारी, पी उपेंद्र, ओम पुरी, अन्नू कपूर जैसे दिग्गज मौजूद थे। यह देश की चर्चित शादियों में एक थी। इसी के आसपास एसपी सिंह-शिखा त्रिवेदी और राजीव शुक्ल-अनुराधा के विवाह हुए थे, जो खूब चर्चा के केंद्र में रहे।
(‘जनसत्ता‘ से विदाई, बीमारी से जूझता नायक और आलोक की अंतिम कविता- समापन किश्त का लिए पढ़ते रहें- sarthaksamay.com)
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