आलोक तोमर का जन्मदिन 27 दिसंबर को था। उनके जन्मदिन पर वरिष्ठ कहानीकार हरीश पाठक ने टिप्पणी लिखी। आलोक तोमर अब नहीं रहे। लेकिन उनकी यादों में लेखक हरीश पाठक खो गये-से लगते हैं। लेखक की संस्मरणात्मक एक पुस्तक शीघ्र आने वाली है। पेश है आलोक तोमर के बहाने उसके अंशः
- हरीश पाठक
पिछले नौ सालों से आलम यह है कि 20 दिसम्बर (मेरे जन्मदिन) पर उपजी खुशी 27 दिसम्बर (आलोक तोमर का जन्मदिन) तक आते-आते एक नामालूम से सन्नाटे, परिचित कोहराम और यादों के सघन वन में तब्दील हो जाती है। मैं तब उस शोकसभा का केंद्रीय पात्र बन जाता हूँ, जो शोकसभा किसी अपने के अंतिम संस्कार के ठीक बाद होती है। बिलखते लोग, होंठों पर जबरन रोकी चीख और डबडबाई आंखों का लंबा सिलसिला।
आलोक तोमर यदि जिंदा होता तो आज वह उम्र के 60 साल पूरे कर रहा होता। केवल तीन साल का फासला था हम दोनों में। यह भी कि जब हम मिले यानी साल 1979 (उस दिन शरद पूर्णिमा थी), तब वह उन्नीस साल का लड़का था और मेरी उम्र थी 22 साल। वह आलोक कुमार सिंह तोमर ‘पतझर’ के नाम से नवगीत लिखता था। ओम प्रभाकर का ‘पुष्पचरित्र’ उसे कंठस्थ याद था। भारत भूषण, वीरेंद्र मिश्र, मुकुटबिहारी सरोज, सोम ठाकुर, किशन सरोज और मुकुट सक्सेना के गीत उसे रटे हुए थे। बात-बात में वह ‘वह देखो कोहरे में चंदन वन डूब गया’ गाता और मैं हरीश कुमार पाठक ‘दीगर’ के नाम से कहानियां लिखता था। बाद में छिंदवाड़ा के समानांतर सम्मेलन में कमलेश्वर ने मेरा नाम हरीश पाठक कर दिया। तब दोनों की आंखों में सपने, मन में विश्वास और कुछ कर गुजरने का हौसला था।
ग्वालियर की हिंदी साहित्य सभा की गोष्ठियां और उसकी सक्रियता तब के ग्वालियर में प्रतिष्ठा की प्रतीक थीं। वहां जाना, रचना पढ़ना गौरव की बात थी। वह शरद पूर्णिमा की काव्य गोष्ठी थी, जो साहित्य सभा की छत पर होती थी। गोष्ठी के अंत में खीर बंटती थी। मैं इस गोष्ठी में पहुँचा। संचालन कर रहे जहीर कुरेशी ने मुझे मंच पर बुला लिया और मेरे बारे में कुछ बताया भी। तब तक मेरी कहानियाँ बाहर की पत्रिकाओं में छप चुकी थीं। कमलेश्वर के समानान्तर कहानी आंदोलन से मैं जुड़ा था। उनके सम्मेलनों में शिरकत कर चुका था और ग्वालियर के समानान्तर कथाकार मंच में सक्रिय था।
इसी गोष्ठी में आलोक, वरिष्ठ कवि-कथाकार त्रिमोहन सिंह चन्देल के साथ पहुँचा। उसने चन्देल जी से पूछा- ‘यह सज्जन कौन हैं, जिन्हें तत्काल मंच पर बुला लिया। चन्देल जी ने मेरे बारे में उसे बताया और यह भी कहा कि उससे जरूर मिल लेना।
गोष्ठी के तुरंत बाद वह मेरे पास आया और बोला, ‘मेरा नाम आलोक तोमर है और कल आपसे हर हाल में मिलना है। कैसे, कहाँ मिलूं’। मैं चौंक गया। मैंने कहा, ‘अरे, मैं नया बाजार के तेली के बाड़े में रहता हूँ। कभी भी आ जाना’। दूसरे दिन बारह बजे वह मेरे घर पर था। उसने आते ही कहा, ‘हरिज्जि (उसका यह संबोधन उम्र भर रहा) मैं कल तक स्वदेश में था, पर राजेन्द्र जी प्रूफ रीडिंग विभाग से मुझे सम्पादकीय में लेना ही नहीं चाहते। लिहाजा मैंने स्वदेश छोड़ दिया। भिंड वापस जा रहा हूं। वैसे करना तो पत्रकारिता ही चाहता था।’ मैं सन्नाटे में आ गया। मैंने तुरन्त कहा- ‘करेंगे भी पत्रकारिता। हो सकता है साथ-साथ। ‘तब मेरी स्वदेश में बातचीत चल रही थी। राजेन्द्र जी भले आदमी हैं, उनसे भी बात करेंगे।
पर मैं तो वह कमरा भी छोड़ आया हूँ, जहां रहता था। शिंदे की छावनी के सरकारी शौचालय के पास एक कमरा था। एक चादर की तरफ उसने इशारा किया। यह रहा मेरा सामान। ‘कोई बात नहीं। आप कुछ दिन मेरे साथ मेरे इसी घर मे रहोगे। मेरा परिवार दस दिन के लिए गांव गया है। तब तक व्यवस्था हो ही जायेगी।’
कुछ दिनों बाद हम साथ-साथ स्वदेश में काम कर रहे थे। वह संपादकीय विभाग में था। पहले प्रादेशिक डेस्क पर, फिर रिपोर्टिंग में। मैं पहले पेज पर महेश खरे के साथ था और नवल गर्ग के साथ रविवारीय परिशिष्ट देखता था।
एक दिन दफ्तर में खबर आयी कि एक सुंदर-सा लड़का, जो फर्राटेदार अंग्रेजी बोल रहा है, साइकिल चुराते पकड़ा गया है। वह हुजरात कोतवाली में बंद है। आलोक मेरे पास आया। बोला- ‘चलेंगे, पर जाएंगे कैसे’? दोनों के पास साइकिल नहीँ थी। अरुण शिरडोंडकर हमारे सहयोगी थे। उनकी साइकिल ले कर हम दोनों हुजरात कोतवाली पहुंचे। कोतवाली के भीतर एक पेड़ के नीचे कुर्सी पर एक सिपाही, नीचे जमीन पर एक सुंदर-सा नौजवान बैठा था।
पहले तो हमें यकीन ही नहीं हुआ कि अंग्रेजी बोल रहा यह लड़का साइकिल चुराएगा। सिपाही ने बताया, यह उरई का रहनेवाला है। दतिया में गीता नाम की एक लड़की के प्यार के चक्कर में पड़ गया। लड़की की शादी हो गयी और यह उसके गम में चोरी चकारी करने लगा। यहां मेडिकल कॉलेज के हॉस्टल में उस लड़की को लेकर आता है। खर्चे-पानी को चोरी करता है।
आलोक ने उससे पूछा, ‘आप अपराध की दुनिया में क्यों आ गये?’ उसने पूछा, ‘आपने द सरपेन्टाइन पढ़ी है?’ हम एक दूसरे का चेहरा देखने लगे। वह क्या है? मैंने पूछा। वह बोला, ‘यह चार्ल्स शोभराज की आत्मकथा है। वह मेरा आदर्श है। मैं उससे मिलना चाहता हूँ।’ उसकी बातें सुन कर हम दोनों भौचक्के थे। काम साइकिल चोरी, सपना शोभराज बनने का।
हुजरात कोतवाली के उस पेड़ के नीचे साइकिल चोरी के अपराध में गिरफ्तार उस शख्स का नाम था राजू भटनागर। जो बाद में इस देश में संगठित अपराध का सरगना बना और 1980 में जब चार्ल्स शोभराज तिहाड़ जेल से बर्थ डे पार्टी में धतूरा खिलाकर फरार हुआ था और उसे जो गाड़ी जेल में लेने आयी थी, उसे राजू भटनागर ही चला रहा था। यानी हुजरात कोतवाली में मिला वह साइकिल चोर अंततः अपने सपने तक पहुँच ही गया था।
हम दफ्तर पहुँचे। आलोक ने खबर लिखी। उसकी इच्छा थी कि इस खबर के साथ उसका नाम जाये। उसने मुझसे कहा। मैंने कहा, ‘महेश जी को खबर दे देना। उन्हें पसंद आयी तो उनसे आपका नाम देने की कहूंगा’। तब खबरों के साथ नाम देने की परम्परा शुरू ही हुई थी। तब जयकिशन शर्मा स्वदेश के स्थानीय संपादक थे। वे कैम्पस में ही रहते थे। कुछ देर को आराम करने के बाद सात बजे फिर आ जाते थे। वे एक एक खबर देखते थे। महेश जी ने खबर पढ़ी और शीर्षक लगाया- ‘करता है साइकिल चोरी, बनेगा शोभराज’। खबर राजू भटनागर के फोटू सहित छपी। यह थी आलोक के नाम से छपी पहली खबर।
फिर यह सिलसिला चल निकला। स्वदेश का वातावरण और प्रधान संपादक राजेन्द्र शर्मा का आत्मीय व्यवहार काम करने का ऐसा माहौल रचते थे कि बेहतर करने की इच्छा जगती थी। मैं नवल गर्ग के बाद रविवारीय भी देखता था। दीपावली विशेषांक भी निकालता था। आलोक दिन में आ कर संपादक के नाम पत्र में प्रदीप दुबे, शोध छात्र, इकबाल रिजवी और मीना तोमर, थाटीपुर कॉलोनी के नाम से भी पत्र लिख देता था, जिन पर लगातार बहस होती और वह स्तम्भ स्वदेश का चर्चित स्तम्भ बन गया।
तभी ग्वालियर के पास श्योपुर में दलिया खाने से 7 बच्चों की मौत हो गयी। पहले पन्ने पर यह खबर छपी। तब मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे अर्जुन सिंह। विधानसभा में अर्जुन सिंह ने कहा, ‘यह झूठ है। ऐसा कुछ नहीं हुआ।’ अगले दिन आलोक श्योपुर था। वह मृत बच्चों के परिजनों से मिला। तमाम तथ्य इकठ्टे किये और सब राजेन्द्र जी के सामने रख दिये। सुबह स्वदेश के पहले पेज की लीड थी, ‘मुख्यमंत्री झूठ बोलते हैं’। यह खबर आलोक के नाम से थी। सारे प्रमाणों के साथ। नतीजा यह हुआ कि विधानसभा में मुख्यमंत्री को स्वीकार करना पड़ा कि घटना हुई है और दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा।
यही नहीं, जब ओलम्पिक विजेता पान सिंह, चम्बल को अशान्त किये था, तब पुलिस के एक आला अधिकारी से मेरे साथ मिलने आलोक उनके दफ्तर गया। कुछ जरूरी और गोपनीय फाइलें उन्होंने आलोक को दिखायीं और कहा- जल्द ही हम उसका खात्मा कर देंगे। उसने कुछ नोट करने के बहाने उनसे पीछे जाने की अनुमति मांगी। फिर वह तुरन्त लौट भी आया। वापसी में मैंने पूछा, ‘इतनी जल्दी क्या नोट कर लिया’। उसने जेब से एक तस्वीर निकाली। वह पान सिंह की वह तस्वीर थी, जो आज भी अखबारों में छपती है। उसका साफ साफ कहना था, ‘मेरे लिए रिश्ते नहीं, पत्रकारिता सबसे आगे है।’ उसने यह किया भी।
वे 1980 के शुरुआती दिन थे। मेरा दिल्ली प्रेस में चयन हो गया था। मुझे देर-सवेर दिल्ली जाना ही था। मेरे सपनों में तब दिल्ली, मुम्बई ही आते थे। मैं वाया दिल्ली, मुम्बई बसने के ख्बाब सँजो रहा था। देर रात अखबार छपने के बाद जब हम अखबार के बंडलों के साथ स्टेशन जाते और कट चाय के साथ कभी अश्विनी सरीन, कभी अरुण रंजन, तो कभी अरुण शौरी, तो कभी उदयन शर्मा की खबरों पर चर्चा करते तो वह करुणा विगलित शब्दों में कहता, ‘आप मुझे अकेला छोड़कर क्यों जा रहे हो? कुछ दिन और रुक जाते।’
उस दिन जब मैंने आलोक से कहा, ‘कल मेरी ट्रेन है, आज ग्वालियर में हमारा यह अंतिम दिन है’ तो उसने दोनों हाथों से मुझे पकड़ लिया। उन दिनों वह स्वदेश के कैम्पस में ही रहता था। उस रात उसने मुझे अपने घर जाने ही नहीँ दिया।
‘हरिज्जी, विश्वास मत तोड़ देना‘
जब सब बातें लगभग खत्म हो गयीं और घड़ी में तीन के आसपास का कोई वक्त फंसा था, मैंने आलोक से कहा, ‘आज रात मैं दिल्ली निकल जाऊंगा कुछ बेहतर करने, बड़ा लेखक-पत्रकार बनने। होगा क्या, किसी को नहीं पता। तुम न भावुक होना, न मुझे रुलाना और कम से कम स्टेशन पर तो आना ही नहीं। बस इतना करना कि जब दिल्ली मुझे स्वीकार ले, वहां ठीकठाक हो जाऊं, एक दोपहर आ जाना। दोनों भाई शायद कुछ कर जायें।’ उसकी वह स्तब्ध मुद्रा आज तक ज्यों की त्यों मेरे सामने जीवित और जाग्रत है। कभी-कभी डराने के लिए वह मेरे सामने प्रकट भी होती है।
सदैव की तरह देर रात मैं घर पहुंचा। अब तक मेरा परिवार तेली बाड़े के उस किराये के घर से ललितपुर कॉलोनी, जिसे डॉक्टर्स कॉलोनी भी कहते हैं, की एक बड़ी सी कोठी में तब्दील हो गया था। उसी दिन रात 9.40 पर मेरी ट्रेन थी। शुरुआत में कुछ दिन मुझे सतीश पेडनेकर के मोती बाग 1 के D 68 के घर में रहना था। वहाँ वे सबलेटिंग में रहते थे। सतीश पेडनेकर ग्वालियर के ही थे। मुझसे सीनियर। तब वे जाह्नवी छोड़, पांचजन्य में आ गए थे।
मैं इसी सिलसिले में उनसे मिलने दिल्ली जानेवाला था, पर जब टिकट लेने स्टेशन जा रहा था कि वे मुझे एक टेम्पो से उतरते मिले। मैंने उन्हें यह सब बताया तो वे एक झटके में बोले, ‘आ जाओ। कुछ दिन तो रह ही सकते हो, फिर वहीं कहीं सबलेटिंग में ही देख लेना। उसने पता दिया और कहा- आने के एक दिन पहले कहीं से मुझे फोन कर देना। मकान मालिक को कुछ बहाना गढ़ना होगा।’ मैं जाने के पहले यह सब कर चुका था।
मेरे घर एक अव्यक्त, अदृश्य दुख पसरा था। तीन दिन पहले अम्मा और बड़े भाई साहब को बता चुका था, अब ग्वालियर के दिन खत्म। पहले दिल्ली जाऊंगा, फिर मुम्बई। वहीं बस जाऊंगा। किसी कामकाजी महिला से शादी करूँगा। ग्वालियर जब-तब आता रहूंगा। पिता से बोलचाल न के बराबर था। वे अंत तक चाहते रहे कि मैं बड़े भाइयों की तरह इंजीनियर, डॉक्टर नहीँ तो वकील ही बन जाऊं। पर मुझसे यह हो ही नहीँ पाया।
छोटा-मोटा सामान मैं ले आया था। कॉमरेड बादल सरोज ने अपने घर के पास की एक फैक्टरी से अत्यंत कम दाम में एक अटैची दिलवा दी थी। कॉमरेड शैलेंद्र शैली ने प्रकाश करात, सीताराम येचुरी के नाम चिट्ठी लिख दी थी, क्योंकि मैं एसएफआई का सक्रिय सदस्य था। शायद कभी कोई जरूरत पड़ जाये। बड़े भाई साहब ने गोपनीय तौर पर 400 रुपये दे दिए थे। अम्मा सुबह से रो रही थीं। कहाँ रहेगा, क्या खायेगा की उनकी रट थी। मेरा अत्यंत करीबी मित्र डॉ पंकज तिवारी (अभिनेता कार्तिक आर्यन के ताऊ) दिन भर मेरे घर, मेरे साथ रहा। सबसे दुखी वही था। अम्मा को वही दिलासा दे रहा था, खुद रोते हुए। रात आठ बजे जब मैं घर से निकला तो सभी परिजन बुत बने गलियारे में खड़े थे। कहीं बीड़ी फूंकते पिता, घूँघट की आड़ में दो भाभियाँ, अलग-अलग जगह खड़े तीन भाई और रुआंसे खड़े दो भतीजे।
पंकज तेजी से उठा। उसने अम्मा को गले लगाया। बोला, ‘आप मत रोइए। हरीश को जैसे ही वहाँ घर मिला कि आपको अपनी कार से दिल्ली ले जाऊंगा।’
सामान सहित मैं उसकी येजदी पर बैठा। घर, ग्वालियर धीरे-धीरे पीछे छूट रहा था। लक्ष्मीबाई की स्टैचू के पास उसकी गाड़ी बन्द हो गयी। पलक झपकते ही उसने गाड़ी बगल में खड़ी कर, एक ऑटो रुकवाया। ट्रेन आयी, छूट गयी। मैं देख रहा था ग्वालियर के एक बहुत बड़े डॉक्टर परिवार का वह वारिस फूट-फूट कर रो रहा था। मैं सहज, सामान्य था। रो भी नहीं पा रहा था। क्यों और कैसे रोता? यह कंटक मार्ग तो मैंने ही चुना था। फिर आसूं क्यों? मेरे भीतर एक कहानी पक रही थी। जो दिल्ली उतरते ही लिखी ‘शहर की मौत’।
सुबह दिल्ली उतरा। सतीश के घर पहुंचा। सरकारी किरायेदार चौहान साहब का अपना परिवार बड़ा था। उनका बड़ा बेटा विवाहित था, जो छोटे से स्टोर रूम में रहता था। एक कमरा सतीश के पास था। अब मैं भी आ गया था, पर दिक्कत नहीं थी। बीस-पच्चीस दिन बाद ही मैने कॉलोनी में एक घर खोज लिया। सतीश को बताया तो उसने कहा, ‘घर खाली करना है, पहले मैं चला जाता हूँ। तुम दूसरा देख लेना।’ जब चौहान साहब को यह बताया तो उन्होंने मुझे एक महीने की मोहलत दे दी। सतीश उस घर में, जो किसी आहूजा का था, चला गया। दस दिन बाद मैं थॉमसन रोड आ गया। महेश दर्पण ने यह घर दिलाया था। नयी दिल्ली स्टेशन के ठीक पीछे। बड़ा-सा घर, आने-जाने का रास्ता भी अलग था।
मैंने दिल्ली प्रेस जॉइन कर लिया। वेतन था 750 रुपये। पहले सरिता में मोहनदास जी के साथ रखा, फिर मुक्ता का प्रभारी बना दिया। दिल्ली प्रेस का अलग मिजाज, अलग तौर तरीके। व्यक्तिगत चिट्ठी, निजी फोन पर प्रतिबंध। लंच टाइम में घुप्प अंधेरा। सब लाइट बन्द। मैंने सबके विकल्प खोज लिए। आसपास ढंग का होटल नहीं था, सो पांचजन्य की कैंटीन में ही खाना खाता। तब वहां संपादक थे भानुप्रताप शुक्ल। प्रबाल मैत्र, तरुण विजय, आनन्द भारती, राजकुमार शर्मा आदि सम्पादकीय में थे। लगभग एक साल ही हो पाया था कि थॉमसन रोड के वे क्वार्टर टूटने के आदेश आ गए। बताया गया, नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन का विस्तार होगा। एक तरफ पहाडग़ंज,दूसरी तरफ अजमेरी गेट होगा। जिसको जहां उतरना है उतरे।
मैं फिर आहूजा साहब के पास गया। उन्होंने बताया, मेरे बड़े भाई हरीश आहूजा आरके पुरम सेक्टर 12 में रहते हैं। संगम टॉकीज के पीछे। उनका एक कमरा खाली है। आप उनसे मिल लेना, मैं बात कर लूंगा। मैं हरीश आहूजा के साथ रहने लगा। वे भले आदमी थे। पति-पत्नी और एक बच्चा। अत्यंत शान्त। मृदुभाषी।
यह 1982 की एक दोपहर थी। बगैर कोई सूचना दिये एक अटैची और 641 रुपयों के साथ आलोक मेरे दफ्तर आ गया। आते ही बोला, ‘ग्वालियर छोड़ आया हूँ। आपके सहारे ही आया हूँ। हरिज्जी विश्वास मत तोड़ देना। बड़ा आदमी बनना है न? ग्वालियर का नाम रोशन करेंगे न हम लोग।’ मैंने उसे गले लगाया। उस ढाबे तक ले गया, जहां दिन में खाना खा कर उसकी कॉपी में पैसा लिखता था। हमने साथ-साथ खाना खाया। ढाबे मालिक को बताया, आज से दो का खाना इसमें दर्ज होगा। पैसा 22 को ही हमेशा की तरह मिलेगा। फिर आलोक को बताया, ‘मैं आर के पुरम सेक्टर 12 में सब लेटिंग में रहता हूँ। वहां आपको अपना छोटा भाई बताऊंगा, जिसकी हाल ही में नौकरी लगी है। दो-तीन महीने बाद यह अलग रहेगा।’ वह छूटते ही बोला, ‘पहले वहीं गया था, पर एक महिला ने दरवाजे से ही मना कर दिया। कहा, पाठक जी शाम को आएंगे, आप तभी आइए।’
सब लेटिंग के घर में रहने की जितनी भी मजबूरी थी, मैंने आलोक को सब बता दीं, यह जानते हुए भी कि इन पर अमल शायद ही हो पाये। हम साथ-साथ रहने लगे। दिन में वह दिल्ली प्रेस आता, हम सरदार के ढाबे में खाना खाते, पैसा कॉपी में लिखते। शाम घर के नीचे गुप्ता जी के होटल में। वहाँ भी कॉपी में पैसा लिखते। 22 तारीख को दिल्ली प्रेस से वेतन मिलता तो सबसे पहले उन दोनों का भुगतान होता। देर हो जाती तो सरदार सीधे दफ्तर में सीट पर ही आ जाता।
दोनों घर से साथ साथ निकलते। आलोक इधर-उधर लिखने की जुगत लगाता। मैं भी इसी कोशिश में रहता कि उसका कुछ जम जाए। मोहनदास जी से भी मिलवाया था। वे हमारे प्रभारी थे। वे उससे जब-तब लिखवा भी लेते थे।
मेरे एक परिचित थे राजेन्द्र श्रीवास्तव। वे पहले दिल्ली प्रेस में ही थे। उन दिनों वे यूएनआई में थे। वे निशिकांत के नाम से बाहर खूब लिखते थे। दिल्ली प्रेस रोज आते। स्तम्भ विभाग का काम करते थे। मेरे पास बिला नागा आते। एक दिन मैंने उनसे आलोक को मिलवाया और कहा, कुछ मदद कर दीजिए। साथी है, काम की जरूरत है। वे बोले, ‘कल 11 बजे दफ्तर आ जाओ। शरद द्विवेदी से मिलवा दूंगा। यूएनआई हिंदी की एक एजेंसी वार्ता के नाम से ला रही है। वे उसके प्रभारी हैं। काम भी मिल सकता है, नौकरी भी।’
आलोक को उन्होंने शरद जी से मिलवाया। शरद जी बेहतरीन इंसान थे। जहीन, मददगार। उन्होंने तुरंत आलोक को फीचर लिखने का काम दे दिया। यह भी बताया, क्या और कैसे लिखना है। उसकी मेहनत रंग लायी। वह एक दिन में कभी-कभी तीन फीचर लिख देता। एक फीचर के 25 रुपये मिलते। कभी मशीन का ठंडा पानी पिलाने वाले पर, तो कभी गुब्बारे वाले पर, तो कभी कान का मैल निकालने वाले पर वह शानदार फीचर लिखता। वार्ता के ये फीचर खूब मशहूर थे। फिर उसे वार्ता में नौकरी भी मिल गयी। वह खूब मेहनत से काम करता। पहले मेरे साथ दिल्ली प्रेस आता। हम खाना खाते, फिर वह वार्ता चला जाता।
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एक दिन वह मेरे पास से गया ही था कि तुरन्त फोन आ गया। वह बोला, ‘आप तुरन्त वार्ता आ जाओ। कुछ अप्रिय घट गया है।’ मैं डर गया। पूछा क्या हुआ? किसी से मारपीट कर दी। वह हताश था। बोला, ‘आप आइए तब ही बताऊंगा’। मैंने तुरन्त राजेन्द्र श्रीवास्तव को फोन लगाया। वे छुट्टी पर थे। फिर अलका श्रीवास्तव, जो यूएनआई में ही थी और मोती बाग में मेरी पड़ोसी थी, उससे बात की। उसने कहा, ‘उनकी नौकरी चली गयी है। फोन पर ज्यादा नहीं बता सकती।’
मैं यूएनआई पहुँचा। बाहर कैंटीन में आलोक अकेला बैठा था। हताश, निराश। तब तक मुझे पूरी जानकारी मिल चुकी थी। 1983 में कपिल देव की कप्तानी में भारत ने प्रूडेंसिएल कप जीता था। उन्हें लगातार बधाइयां मिल रही थीं। इनमें एक बधाई उन रामप्रकाश मेहरा की भी थी, जिनकी तीन माह पहले मृत्यु हो चुकी थी। यह खबर आलोक ने जारी की थी। खबर छपते ही तत्कालीन जीएम मीरचंदानी के पास फोन आने लगे। मेहरा क्रिकेटर के साथ प्रशासक भी थे। वे 15 साल तक दिल्ली क्रिकेट एसोसिएशन के पदाधिकारी भी रहे थे। चर्चित हस्ती थे। मीरचंदानी ने तत्काल प्रभाव से आलोक की सेवाएं समाप्त कर दीं।
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हम दोनों आमने सामने थे। थके, उदास, हताश। बात करने से बचते। क्या बात होती। वह कुछ कह ही नहीं पा रहा था। बस इतना ही कह रहा था, हो गया पता नहीँ कैसे? वे हम दोनों के बेहद कठोर दिन थे। आंखों में सपने थे भरपूर,पर जेबें खाली थीं। उत्साह चरम पर था, पर एक बड़े होटल में एक खूबसूरत शाम बिताने को भी हम तरसते थे। प्रेस क्लब के बाहर से हम बीतरागी की तरह निकलते थे। वैसे तब मदिरा से मजबूरियों ने ही दूरी बनवा दी थी। घर पहुँचे, गुप्ता जी के होटल में खाना खाया और सन्नाटे में डूबे उस मौसम में चुपचाप सो गये।
(शीघ्र प्रकाश्य संस्मरणों की पुस्तक ‘मलहरा टू मेम्फिस वाया मुम्बई’ का एक अंश)