उच्चारण सही हो तो हिन्दी में लेखन भी शुद्ध हो जाता है। अपने अध्ययन काल में जवरी मल पारख और उनके साथ पढ़ने वाले अन्य छात्रों ने भी महसूस कर लिया था। शुद्ध उच्चारण की आवश्यकता और अपभ्रंश की पढ़ाई के दौरान झिझक को ले जवरी मल पारख ने फेसबुक पर अपने संस्मरण की सीरिज लिखी है। पेश है उसकी एक कड़ीः
- जवरी मल पारख
जोधपुर विश्वविद्यालय में मैं बीए ऑनर्स (1971-73) का विद्यार्थी था। उस समय प्रो. नामवर सिंह और डॉ मैनेजर पांडेय हिन्दी विभाग में अध्यापक थे। नामवर जी प्रोफेसर होने के साथ-साथ हिन्दी विभाग के अध्यक्ष और कला संकाय के अधिष्ठाता (डीन) भी थे। पांडेय जी व्याख्याता पद पर थे और दोनों ने डेढ-दो साल पहले ही विश्वविद्यालय में थोड़े से अंतराल के साथ कार्यभार संभाला था।
उस समय प्रो वीवी जॉन विश्वविद्यालय के कुलपति थे। उन्होंने हिन्दी ही नहीं, अन्य कई विषयों में लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों को नियुक्त किया था। उसी दौर में तुलनात्मक साहित्य का भी एक विभाग खोला गया था, जिसमें अज्ञेय की नियुक्ति हुई थी। प्रो. नामवर सिंह इसी की एक कड़ी थे। नामवर जी और पांडेय जी दोनों ही अपनी विद्वता, विश्लेषण क्षमता और अध्यापन कुशलता के कारण शीघ्र ही विद्यार्थियों में लोकप्रिय हो गये।
निश्चय ही नामवर जी अतुलनीय थे और हम विद्यार्थी अपने को गौरवान्वित महसूस करते थे कि हमें उनसे पढ़ने का अवसर मिला है। पांडेय जी ने बीए ऑनर्स और एमए की पूरी अवधि में हमें पढाया था, लेकिन नामवर जी एमए के अंतिम वर्ष में विश्वविद्यालय बीच में छोड़कर पहले केएम मुंशी विद्यापीठ और उसके कुछ दिनों बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय चले गये थे। नामवर जी के बोलने या पढ़ाने के ढंग में किसी तरह की मीनमेख निकालने की हम सोच भी नहीं सकते थे। कक्षा के दौरान मंत्रमुग्ध होकर उन्हें सुना करते थे।
पांडेय जी के साथ ऐसा प्रभामंडल नहीं जुड़ा था। अध्यापकों में नामवर जी को छोड़कर वे हमें सबसे अधिक प्रतिभाशाली और प्रभावशाली लगते थे और विद्यार्थी भी उनसे ज्यादा आत्मीयता महसूस करते थे। लेकिन हिन्दी का उनका उच्चारण बहुत मानक नहीं था। उस पर उनकी मातृभाषा का असर हमें भी महसूस होता था। वे सौंदर्य को सौंदर्ज उच्चारित करते थे। ऐसे और भी कई शब्द थे, जिनके बारे में हमें लगता था कि वे मानक उच्चारण नहीं कर रहे हैं। जाहिर है कि हम विद्यार्थी उनके उच्चारण की त्रुटियां कैसे निकाल सकते थे, जबकि हमारी अपनी भाषा अशुद्धियों से भरी थी।
समय के साथ उनके बोलने के ढंग से हम परिचित हो गये और हमें अटपटा लगना भी बंद हो गया। लेकिन एम ए पूर्वार्द्ध के दौरान वायुसेना के एक पूर्व अधिकारी श्री पुनिया ने साहित्य के प्रति लगाव से प्रेरित होकर एमए हिन्दी में प्रवेश लिया। थोड़े दिनों में वे परेशान रहने लगे। उनकी शिकायत यह थी कि कक्षा में अध्यापक शुद्ध हिन्दी नहीं बोलते और यदि वे ही दोषपूर्ण हिन्दी बोलेंगे तो विद्यार्थियो को अच्छी हिन्दी बोलना कैसे सिखायेंगे। वे अपना दुखड़ा दूसरे विद्यार्थियों से भी बांटते थे।
वैसे तो उनकी दृष्टि में कोई आदर्श अध्यापक नहीं था, लेकिन सबसे ज्यादा शिकायत उन्हें पांडेय जी से थी। एक दिन वे घर से निश्चय करके आये कि आज तो जाकर प्रोफसर नामवर सिंह से इस बात की शिकायत करनी है। संयोग कुछ ऐसा था कि अभी तक नामवर जी ने हमारी एक भी क्लास नहीं ली थी। पुनिया जी ने मुझे भी और अन्य कई विद्यार्थियों से कहा कि हम उनके साथ चलें लेकिन हमने इन्कार कर दिया। हमारा तर्क यह था कि जब हम ही शुद्ध नहीं बोलते वरन हमारे तो लिखने में भी दोष निकाले जा सकते हैं तो हम किसी दूसरे की शिकायत कैसे कर सकते हैं। यह उचित नहीं है। लेकिन वे नहीं माने।
शायद सैनिक होने के कारण साहस के साथ उनमें दुस्साहस भी था और हमारे देखते-देखते नामवर जी के कमरे में घुस गये। हम उत्सुकता से उनकी प्रतीक्षा करने लगे। मुश्किल से पांच मिनट बाद ही वे मुंह लटका कर बाहर आ गये। हमने पूछा क्या हुआ। वे वैसे ही मुंह लटकाये बोले, “क्या शिकायत करता, वे तो खुद चपरासी से कह रहे थे, एक ठो पान देना तो”। उनकी इस बात पर हममें से कुछ खिलखिलाकर हँस पड़े और कुछ बस मुस्करा कर रह गये। लेकिन इस घटना ने उनका दिल तोड़ दिया। कुछ दिनो बाद उन्होंने क्लास में आना बंद कर दिया और बाद में मालूम पड़ा कि उन्होंने एम ए हिन्दी करने का इरादा ही छोड़ दिया।
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नामवर जी और पांडेय जी की जिस बात से मैं काफी प्रभावित था, वह थी कक्षा में पूरी तैयारी के साथ आना। ऐसा कभी नहीं हुआ कि वे ऐसे ही हाथ हिलाते हुए क्लास में आ गये हों। वे विद्यार्थियों से भी पूरी सजगता और तैयारी की उम्मीद करते थे। कई अध्यापकों के पढ़ाने के ढंग से लगता था कि वे जो पढ़ा रहे हैं, उसके बारे में खुद बहुत कन्फ्यूज हैं। यह समझ ही नहीं आता था कि वे क्या पढ़ा रहे हैं और क्या समझा रहे हैं। भाषा भी उनकी जटिल और उलझी होती थी। लेकिन नामवर जी और पांडेय जी के पढ़ाने का ढंग कुछ ऐसा था कि जो भी वे बोलते थे आसानी से दिमाग में उतर जाता था। भाषा में कोई उलझाव नहीं होता था। खासतौर पर नामवर जी की यह विशेषता थी कि विद्यार्थियों के स्तर के अनुरूप वे भाषा को ढाल लेते थे लेकिन विषय के गांभीर्य को हाथ से नहीं जाने देते थे। नामवर जी की याददाश्त अनुपम थी। लेकिन जैसाकि कई अध्यापकों की आदत होती है, वे अपने व्याख्यान को उद्धरणों से बोझिल नहीं होने देते थे।
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बीए ऑनर्स में एक विषय अपभ्रंश का भी था और इसे पढाने की जिम्मदारी डॉ. मदनराज मेहता को दी गयी थी। वे बहुत ही ‘ईमानदार’ अध्यापक थे। उन्होंने पहले दिन ही स्पष्ट कर दिया था कि उनको अपभ्रंश उतनी ही आती है, जितनी हम विद्यार्थियों को आती है। यानी न उन्हें आती थी और न हमें आती थी। लेकिन उन्होंने हमें दृढता के साथ आश्वासन दिया कि हम सब साथ-साथ अपभ्रंश सीखेंगे। बस एक ही प्रश्न अनुत्तरित रह गया था कि उनको और हमको सिखायेगा कौन। अच्छी बात यह भी थी कि वे जब भी क्लास लेने आते थे, नामवर सिंह जी की पुस्तक “हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योगदान’ साथ ले आते थे और कुर्सी पर बैठने के बाद उसके पन्ने उलटने-पलटने लगते थे।
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कुछ ही दिनों में हमें समझ आ गया था कि साथ-साथ सीखने का यह प्रयोग कामयाब नहीं होने वाला है। अगर इसी किताब (जो हम विद्यार्थियों ने भी खरीद ली थी) से सीखना है, तो बेहतर नहीं होगा कि यह पीरियड स्वयं नामवर जी लें। एक दिन यही प्रार्थना लेकर हम नामवर जी के पास पहुंच गये और उनके सामने बिना रोये अपना दुखड़ा सुनाया। वे मुस्कराते और पान चबाते हुए सुनते रहे। उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि वे मेहता जी को हटाकर खुद क्लास नहीं लेंगे। यह सही नहीं होगा। हमारे मुंह भी वैसे ही लटक गये जैसा लटका हुआ मुंह हमने पुनिया जी का देखा था। तभी नामवर जी ने कहा, “हां यह कर सकता हूं कि इस कमरे में (जो उनका कार्यालय था) मैं एक सप्ताह अपभ्रंश का व्याकरण पढ़ा दूं”। हमारे लटके हुए मुंह अचानक खिल उठे। हमने तुरंत उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। हमें यह भी यकीन था कि व्याकरण पढ़ाते हुए साहित्य भी साथ-साथ चला ही आयेगा। इस तरह अपभ्रंश की नैया डूबते-डूबते किनारे लग गयी। बस अफसोस इस बात का रहा कि मेहता जी को अपभ्रंश सीखने का यह सुअवसर नहीं मिल सका।
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