- ध्रुव गुप्त
एक मंदिर ऐसा भी, जहां शिवलिंग व मजार एक ही छत के नीचे! दो दशक पहले बिहार के समस्तीपुर जिले में पुलिस कप्तान के रूप में मैं तैनाती के दौरान इसे देखा। तैनाती के अगले दिन वहां के एक अपराधग्रस्त ताजपुर थाने के गांवों में घूमकर लोगों से संपर्क कर रहा था। शाम को जब मैं वहां के एक गांव मोरवा के पास पहुंचा तो एक मंदिर के बाहर लोगों का बड़ा हुजूम देखकर रुक गया। पूछने पर किसी ने मंदिर का नाम खुदनेश्वर मंदिर बताया।
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बड़ा अजीब-सा नाम लगा- ख़ुदा और ईश्वर का मंदिर। वहां मौजूद कुछ ग्रामीणों ने मुझे एक बार चलकर मंदिर का गर्भगृह देख लेने का अनुरोध किया। भीतर जाकर मैं भौंचक रह गया। गर्भगृह में एक तरफ शिवलिंग था और दूसरी तरफ एक मजार। सैकड़ों श्रद्धालु शिवलिंग पर फूल-जल भी चढ़ा रहे थे और मज़ार पर भी मत्था टेक रहे थे। यह मेरे जीवन का पहला अनुभव था। मैं देर तक गर्भगृह के एक खाली कोने में बैठकर मंत्रमुग्ध-सा यह दृश्य देखता रहा।
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वहां के पुजारी ने मंदिर का इतिहास पूछने पर बताया कि सदियों पहले यह इलाका वनक्षेत्र था। यहां एक मुस्लिम लड़की खुदनी बीवी अक्सर गाय चराने आया करती थी। वन में एक जगह चमत्कार जैसा कुछ देख कर वह भागकर गांव में पहुंची। ग्रामीणों ने इस जगह की खुदाई की तो एक भव्य शिवलिंग यहां मिला। कुदाल की मार से शिवलिंग का कटा हुआ ऊपरी हिस्सा अब भी देखा जा सकता है। लोगों ने इसी जगह पर शिवलिंग की स्थापना कर दी। खुदनी के मरने के बाद उसकी इच्छा के अनुसार मुसलमानों ने शिवलिंग के बगल में उसे भी दफना दिया। मंदिर का पहला निर्माण 1858 में हुआ, जिसके बाद कई बार इसका पुनर्निर्माण हुआ।
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खुदनेश्वर मंदिर गांव के भोले-भाले लोगों का बड़ा मासूम-सा धार्मिक घालमेल है। सुखद है कि लोगों तक धार्मिक कट्टरवादिता की हवा यहां अबतक नहीं पहुंची है। देश में सांप्रदायिक सौहार्द और धार्मिक सहिष्णुता की इससे बेहतर मिसाल कम ही मिलेगी। दुखद यह है कि अपनी स्थापना के सदियों बाद भी यह मंदिर धार्मिक पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र नहीं बन पाया है। जिस देश के हिन्दू और मुस्लिम मानस का ज्यादातर हिस्से को एक अरसे से मज़हबी कट्टरता ने घेर रखा है, वहां अब खुदनी बीवी और भोलेबाबा का एक साथ प्रवेश शायद मुमकिन नहीं है।
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