ओमप्रकाश अश्क की पांच कविताएं

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  • समस्या है संगिनी

समस्याओं का साथ
मुझे रास आने लगा है।
तभी तो मैंने
इसे संगिनी स्वरूप

स्वीकृति दे दी है।
संज्ञा स्वरूप समस्याएं
रोज साथ सोती हैं,
जागती हैं,दुत्कारती तो कभी
पुचकारती भी हैं।
समस्याएं
अकेले आती भी नहीं।
साथ में
सहोदर समाधान को भी
लेकर बनाती हैं ठौर

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कसी के घर में।
अब ऊब नहीं होती,
उबकाई नहीं आती,
आहत या मर्माहत नहीं होता,
क्योंकि समस्या हर वक्त
समाधान के साथ
मेरी संगिनी बन कर

खड़ी रहती है,
बिना सात फेरे
और सात जनम के शपथ के।

  • कतरा भर सांस

कतरा भर सांस की

उधारी के लिए,आम-अवाम से

अनुनय-आग्रह करते

आदमी को देखा है,जिसके मूत से

कभी लोग

घर के चिराग

जलाते थे।

उसकी आड़ी-तिरछी नजरों में

छिपे खतरनाक संकेत से

कांपते थे लोग

चिलचिलाती धूप में भी

ठिठुराने वाली ठंड के

मौसम की तरह।

पसीने से लतपथ

हो जाते थे जन

माघ के हाड़ कंपाते

मौसम में भी।

सामने जिसे देख कर

लोग रास्ते बदल लेते थे।

गान,बजान या मुस्कान

वह विरोधी था या नहीं की

कौन पूछे

मातमी मौन चिपक जाता

चेहरे पर।

वही शख्स आज

कतरे भर सांस की

उधारी के लिए

रिरिया रहा है

हर आम ओ खास के सामने।

मौत का मंजर

ऐसा ही खौफनाक होता है।

इसका अंदाज

जीते जी

शायद ही हो पाता है

किसी को।

  • बिन बुलाये

बोलना, मगर बीन-बाछ कर।
मुंह बोलने के लिए है,
इसलिए बात-बेबात,
बुलाये-बिन बुलाहट
बकबक कतई नहीं।
मेरी मां कहती थी-
बिन बुलाये बरुआ बोले।
सत्ता में रहो
तो खामोशी ओढ़ लो,
हाथी चले बाजार,
कुक्कुर बोलें हजार
की तर्ज पर।
विपक्ष को बक-बक करने दो,
विपक्ष बक-बक के लिए ही बना है।
बोलो तो बोलते रहो।
अपनी बोलती बंद न करो,
ऐसा बोलो कि
दूसरे की बोलती
बंद हो जाये।
सलीका सीखो-
बेवजह नहीं बोलेंगे,
बेवक्त नहीं बोलेंगे,
बोलेंगे तो बिला नागा;
हर दिन आने-जाने वाले
सुबह-शाम की तरह बोलेंगे।

  • सन्नाटे में श्मशान

हरकारा हवाएं बनेंगी
पुरुआ, पछिया,
उतरही या दखिनही;
मेरे जाने की सूचना
हर जन, हर घर
पहुंचाने के लिए,
जब मैं
चला जाऊंगा।
सन्नाटे में
डूबा होगा
श्मशान।
अंतिम गति को पहुंचाते लोगों की
जुबान बंद होगी,
आंखें नम होंगी,
फिर भी
खोर खोर
जला कर
निश्चिंत हर कोई
होना चाहेगा।
कहीं कोई
किसी किनारे बैठ
मन ही मन कोस रहा होगा
तो कुछ की बोलती
बंद होगी
मेरे न रहने के गम में।
मैं तो निर्विकार
जलता रहूंगा
किसी अपने के हाथ
आग लगाने पर।
कौन हंसा, कौन रोया,
इस अहसास-परवाह से विलग।
सत्य यही है, यारो!
सच को स्वीकार करने की
ईश्वर आपको ताकत दे,
जाने से पहले
उनसे मेरा आग्रह भी
यही होगा।

  • अब गौरैया नहीं गाती

अब न गाती है गौरैया,
न मंडराते हैं गिद्ध।
ऐसा नहीं
कि अब भोर नहीं होती,
भिनसार नहीं होता,
गांवों में नहीं मरते डांगर।
हम विकसित हो रहे,
सफाई पसंद हो गये हैं।
अब इनकी जरूरत नहीं,
भोर भयी का
इत्तिला करने के लिए।
मरे डांगरों की सड़ांध से
हम बच जायेंगे
रूम फ्रेशनर छिड़क कर।
हम डांगरों को बचा लेंगे
तमाम दवाओं के डोज से;
हमने तरक्की जो कर ली है।
लेकिन मरने से
कोई बचा है,
जो डांगर नहीं मरेंगे।
मर कर भी
मार डालने की
दवाओं से ताकत
दे दी है इंसान ने
इन डांगरों को।
तभी तो
एक एक कर
गायब हो गये गिद्ध।
मुंडेर पर अब
नहीं जुटता
गौरैया का झुंड।
विकास ने
बांझ बना दिया इन्हें।
इंसानी जेहन का बांझपन
बांझ बना रहा
दुनिया, जहान को।

 

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