- प्रवीण बागी
ओशो के निर्वाण दिवस परसों यानी 19 जनवरी को था। एक मौका ऐसा भी आया, जब अमेरिका समेत समस्त यूरोप ओशो से डर गया था। ओशो यानी आचार्य रजनीश। ओशो को अमेरिका छोड़ने का आदेश भी जारी कर दिया गया था। एक-एक कर करीब 12 देशों ने उनके प्रवेश पर रोक लगा दी थी।
रजनीश एक युग द्रष्टा थे। उन्होंने मानवीय चेतना को धर्म की रूढ़िवादी व बद्धमूल धारणाओं से मुक्त किया। ओशो ने किसी नवीन धर्म या पंथ का प्रतिपादन नहीं किया, अपितु उन्होंने जनमानस का वास्तविक धर्म से साक्षात्कार कराया। उन्होंने अपने संदेशों में नकारात्मकता व दमन के स्थान पर सकारात्मकता व ध्यान पर ही अधिक जोर दिया। वे केवल एक ही बात का विशेष आग्रह अपने प्रवचनों में किया करते थे, वह है- ध्यान।
उनका जन्म मध्यप्रदेश के कुचवाड़ा में 11 दिसंबर 1931 को हुआ था। उन्हें 21 वर्ष की आयु में संबोधि की प्राप्ति हुई। उन दिनों वे जबलपुर कॉलेज में पढ़ाया करते थे। वहीं से उन्हें ‘आचार्य’ कहा जाने लगा। बाद में उन्हें ‘भगवान’ के नाम से संबोधित किया जाने लगा, जो थोड़ा विवादों में भी रहा। ‘भगवान’ संबोधन के संबंध में ओशो की मान्यता थी कि भगवत्ता को प्राप्त व्यक्ति। ओशो ने अपने संन्यासियों को निषेध व दमन के स्थान पर ध्यान से जोड़ा। उन्होंने उन विषयों पर बहुत ही मुखरता से अपनी बात रखी, जिनकी चर्चा करने में धर्म-जगत झिझकता है।
दरअसल वह अपने समय से बहुत पूर्व थे। जिस समय वे हुए, लोग उन्हें समझ नहीं पाये। इसलिए उनका ठीक तरीके से मूल्यांकन नहीं हुआ। यह कितनी बड़ी बात है कि दुनिया का सबसे ताकतवर मुल्क किसी के विचारों से इस कदर डर जाए कि उसे अपनी संप्रभुता पर खतरा महसूस होने लगे? कहा जाता है कि अमेरिका में उन्हें थैलियम नामक जहर दिया गया, जिससे बाद में उनकी मौत हुई। यह बहुत धीरे-धीरे असर करता है।
उनकी बातें व संदेश शायद उस समय उतने प्रासंगिक न प्रतीत हो रहे हों, जब वे देह में थे, किंतु वर्तमान परिदृश्य में ओशो दिनोदिन प्रासंगिक होते जा रहे हैं। आज इस जगत को ओशो जैसे ही संबुद्ध गुरुओं की आवश्यकता है। ओशो का सारा दर्शन प्रेम व ध्यान पर आधारित था। वे परमात्मा का साक्षात्कार प्रेम व ध्यान के माध्यम से करने में विश्वास करते थे। ओशो के दर्शन से भारत ही नहीं, अपितु विश्व के लगभग 19 देश प्रभावित हुए। इन देशों के अनेकानेक नागरिक ओशो के अनुयायी बने।
स्वास्थ्य संबंधी प्रतिकूलताओं के कारण ओशो ने 19 जनवरी 1990 को पुणे स्थित अपने आश्रम में सायं 5 अपना शरीर त्याग दिया। आश्रम में ही ओशो का अस्थिकलश स्थापित कर उनकी समाधि का निर्माण किया गया, जहां आज भी देश-विदेश के हजारों संन्यासी आकर ओशो के द्वारा प्रवाहित ध्यान की सरिता में अवगाहन कर अपना जीवन धन्य करते हैं। बाहरी लोगों के वहां प्रवेश की इजाज़त नहीं है। वहां हमेशा मेडिटेशन के आवासीय क्लास चलते रहते हैं। उस क्लास की फीस चुका कर कोई भी व्यक्ति आश्रम में रह सकता है।
कोरेगांव आश्रम में अद्भुत शांति का अहसास होता है। मन स्वतः ध्यान में एकाग्र होने लगता है। बड़े-बड़े वृक्ष, पक्षियों का कलरव और झरने में किलकती मछलियां मन को किसी दूसरे लोक में ले जाती हैं। ऐसा लगता है जैसे ओशो यहां घूम रहे हों। आंखें बंद करने पर उनकी गंभीर आवाज कानों में गूंजने का अहसास होता है। मानो वे कह रहे हों- सब कहते कागद की लेखी/ मैं कहता आंखन की देखी। अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन साहब को भी ये शब्द सुनने चाहिए। अमेरिका को ओशो के प्रति किये दुर्व्यवहार पर खेद भी जताना चाहिए।
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