कर्पूरी ठाकुर में जातीय कटुता ने कभी धमक नहीं दी। यहां तक कि आरण लागू करने पर सवर्णों की गालियां उन्होंने सुनीं, पर पलट कर अशालीन कुछ नहीं कहा। आज कर्पूरी जी का जन्मदिन है। उनके प्रायवेट सेक्रेट्री रहे वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर ने उनसे संबंधित कई संस्मरणों का उल्लेख किया है। आप भी पढ़ेंः
- सुरेंद्र किशोर
सन् 1971 के मध्य की बात है। मैं संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की सारण जिला शाखा का कार्यालय सचिव था। एक दिन कर्पूरी ठाकुर छपरा पहुंचे। वे जिला आफिस के हाल में नीचे बिछी दरी पर ही सो गए थे। उठे तो उन्होंने मुझे पास बुलाया। कहा कि ‘‘मुझे ईमानदार मिलते हैं तो तेज नहीं। तेज मिलते हैं तो ईमानदार नहीं। आप दोनों हैं। क्या आप मेरे प्रायवेट सेक्रेट्री रहिएगा?’’
मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। उन दिनों किसी भी वास्तविक कार्यकर्ता के लिए ऐसा आफर, वह भी तारीफ के साथ, गदगद कर देने वाला था। मैंने कहा कि ‘‘मेरा सौभाग्य है कि आप मेरे बारे में ऐसी राय रखते हैं। मुझे आपका प्राइवेट सेक्रेट्री रह कर खुशी होगी। किंतु अभी नवंबर में मेरी परीक्षा है। उसके बाद मैं आपसे मिलूंगा।’’
परीक्षा के बाद मैं पटना आया। तब तक 1972 के विधानसभा चुनाव में कर्पूरी जी एक बार फिर विधायक बनकर आ गए थे। वीरचंद पटेल पथ स्थित उनके आवास में मैं जब उनके सामने पड़ा तो उन्होंने पूछा, ‘‘क्या तय किया आपने?’’ मैंने कहा कि ‘‘रहने के लिए आ गया हूं।’’ तब से सन 1973 के मध्य तक मैं पटेल पथ स्थित उनके सरकारी आवास में साथ ही रहा।
इतने समय तक रात-दिन साथ रहने पर किसी भी व्यक्ति के चाल-चरित्र-चिंतन के बारे में पूरा पता चल जाता है। अभी थोड़े में यही कह सकता हूं कि वे ‘भारत रत्न’ जैसे सम्मान के वाजिब हकदार हैं। मैं वैसे किसी अन्य अपरिग्रही, ईमानदार व शालीन नेता को नहीं जानता, जो एकाधिक बार बड़े पदों पर रहने के बावजूद अपना संयम नहीं खोया हो। जबकि, वे खुद भारी अभाव में जीते थे। वे अपने परिवार को भी भौतिक सुख न दे सके।
ठाकुर जी ने अपने पुत्र को विधानसभा का टिकट नहीं लेने दिया। जबकि पार्टी दे रही थी। गांव की अपनी पुश्तैनी झोपड़ी ही अपने परिजन के लिए छोड़ गए। कर्पूरी जी के निधन के बाद हेमवतीनंदन बहुगुणा उनके गांव गए थे। उनकी पुश्तैनी झोपड़ी देखकर बहुगुणा जी रो पड़े थे।
विधायकों को उन दिनों इतना वेतन नहीं मिलता था कि वे परिवार को पटना में रख सकें। तीन सौ वेतन और 15 रुपए भत्ता। कर्पूरी जी अपने परिवार को अक्सर कहा करते थे कि आप लोग गांव चले जाइए।
उन्हीं दिनों कर्पूरी ठाकुर के गांव में उनके परिजन को वहां के कुछ दबंगों ने पीटा था। विरोधस्वरूप कर्पूरी जी ने वहां जनसभा की। कर्पूरी जी ने सभा में कहा था कि हमारा राजपूत भाइयों से कोई दुराव नहीं है। इन दिनों मेरे प्रायवेट सेक्रेटी राजपूत ही हैं। उनका इशारा मेरी ओर था। कर्पूरी जी 1967 में जब उप मुख्यमंत्री बने, तब भी संयोग से उनके निजी सचिव यू.पी. सिंह राजपूत ही थे। यू.पी. सिंह ईमानदार अफसर रहे। बाद में आई.ए.एस. बने। अब भी वे हमारे बीच हैं।
1978 में बिहार में आरक्षण लागू होने के बाद कर्पूरी जी को आरक्षण विरोधियों से बहुत गालियां सुननी पड़ी थीं। उनकी सरकार ने लागू किया था। किंतु कर्पूरी जी ने तनावपूर्ण माहौल में भी अपनी शालीनता नहीं छोड़ी। वैसी भाषा में पलट कर जवाब नहीं दिया। इसके विपरीत 1990 के मंडल आरक्षण के समय दोतरफा गाली-गलौज हुआ। बाद में मैं पत्रकार के रूप में कर्पूरी जी से अक्सर मिलता रहता था। कभी कोई जातीय कटुता उनमें नहीं दिखी।
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