हिन्दी के आलोचक- जिनका 26 अगस्त को जन्मदिन है
- अमरनाथ
कर्मेन्दु शिशिर हमारे समय के अत्यंत अध्ययनशील, वैज्ञानिक दृष्टि सम्पन्न और हर परिस्थिति में अपने उसूलों पर अडिग रहने वाले मार्क्सवादी आलोचक हैं। हिन्दी नवजागरण पर उनका विशेष काम है। ‘नवजागरण और संस्कृति’, ‘राधामोहन गोकुल और हिन्दी नवजागरण’, ‘हिन्दी नवजागरण और जातीय गद्य परंपरा’, ‘1857 की राज्यक्रान्ति : विचार और विश्लेषण’, ‘भारतीय नवजागरण और समकालीन संदर्भ, ’‘डॉ. रामविलास शर्मा : नवजागरण एवं इतिहास लेखन’, ‘निराला और राम की शक्ति-पूजा’ आदि उनकी प्रमुख आलोचनात्मक पुस्तकें हैं।
कर्मेन्दु शिशिर ने कई महत्वपूर्ण पुस्तकों एवं पुरानी पत्रिकाओं के चयनित अंश का संपादन भी किया है, जिनमें प्रमुख हैं- ‘सोमदत्त की गद्य रचनाएं’, ‘ज्ञानरंजन और पहल’, ‘राधामोहन गोकुल समग्र’ (दो भाग), ‘राधाचरण गोस्वामी की रचनाएं’, ‘सत्यभक्त और साम्यवादी पार्टी’, ‘नवजागरण पत्रकारिता और सारसुधानिधि’ (दोखंड), ‘नवजागरण पत्रकारिता और मतवाला’ (तीन खंड), ’नवजागरण पत्रकारिता और मर्यादा’ (छह खंड), ‘पहल की मुख्य कविताएं और वैचारिक लेखों का संकलन’ (दो भाग) आदि। उनके तीन कहानी संग्रह और एक उपन्यास भी प्रकाशित हैं।
हाल ही में भारतीय ज्ञानपीठ से उनकी अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक दो खंडों में प्रकाशित हुई है, जिसका शीर्षक है- ‘भारतीय मुसलमान : इतिहास का संदर्भ’। इसके पहले खंड में भारत में इस्लाम के आगमन से लेकर मुगल काल के पतन तक का और दूसरे खंड में 1857 की राज्य क्रान्ति से लेकर मुस्लिम नवजागरण के महानायक मौलाना अबुल कलाम आजाद तक की सांस्कृतिक विरासत का प्रामाणिक आकलन किया गया है। इस पुस्तक की भूमिका में वे लिखते हैं, “मोटे तौर पर भारत में इस्लाम का प्रसार दो तरीकों से हुआ। एक तो सूफीवाद की प्रेमिल भावधारा वाली आध्यात्मिकता, साहित्य और संगीत के माध्यम से समाज तक पहुंची तो दूसरी धारा राजनीति के माध्यम से समाज तक आयी। पहले वाले माध्यम को लेकर हिन्दी में भी विपुल मात्रा में उत्कृष्ट कार्य हुए हैं और वह परंपरा समाज के रग-रग में पसरी हुई है। सच पूछिए तो जिस साझी संस्कृति की बात होती है, उसकी प्राणधारा इसी परंपरा से प्रवाहित होती है; जिसकी एक समृद्ध विरासत है, जिस पर भारतीय समाज को गर्व है और सहजीवन की यह मिशाल उसे पूरी दुनिया में आज भी अद्वितीय बनाए हुए है। यह बात बहुत कम लोग जानते होंगे कि दुनिया में आज भी भारत ही ऐसा इकलौता देश है, जिसमें इस्लाम की तमाम पंथिक धाराओं के अनुयायी मौजूद हैं। ऐसा गौरव और किसी देश को हासिल नहीं है। विरोधाभासों से भरे इस विशाल देश में विभिन्न जातियों, नस्लों और धर्मों का जमावड़ा परस्पर सौहार्द और निजता के साथ मौजूद है।” (भारतीय मुसलमान : इतिहास का संदर्भ, अपनी बात, पृष्ठ-12)
यह पुस्तक भारतीय मुसलमान और इतिहास के संदर्भ में अनेक बंद गवाक्ष खोलती है। इससे इतिहास के अनेक भ्रम दूर हो सकते हैं। उदाहरणार्थ राम जन्म भूमि पर बने मन्दिर को गिराकर बाबरी मस्जिद का निर्माण कराने वाले के रूप में कुख्यात बाबर के वसीयतनामे का यह अंश द्रष्टव्य है, “हिन्दुस्तान का मुल्क भिन्न-भिन्न धर्मों का गहवारा है…. यह मुनासिब है कि तूँ अपने दिल से सभी धर्मों की तरफ अगर कोई बदगुमानी है तो उसे निकाल दे और हर मिल्लत अथवा संप्रदाय के साथ उनके अपने तरीके से उनका न्याय कर और विशेष रूप से गाय की कुरबानी से बिलकुल परहेज कर, क्योंकि इससे तूँ हिन्दुस्तान के दिल को जीत लेगा और इस मुल्क की रायता का दिल इस अहसान से दबकर तेरी बादशाही के संख रहेगा। तेरे साम्राज्य में हर धरम के जितने मंदिर और पूजाघर हैं, उनको नुकसान न हो। इस्लाम की तरक्की जुल्म की तेग के मुकाबले अहसान की तेग से ज्यादा अच्छी तरह हो सकती है….प्रकृति के पांचो तत्वों की तरह विविध धर्मों के पैरोकारों के प्रति व्यवहार करना, ताकि सल्तनत के जिस्म विविध व्याधियों से पाक और साफ हो।” (भारतीय मुसलमान : इतिहास का संदर्भ, खण्ड-1, पृष्ठ- 182)
प्रश्न उठता है कि जो बाबर मंदिर न तोड़ने और धार्मिक भेदभाव न करने की सीख अपने बेटे हुमायूँ को दे रहा था, उसने भला राम जन्मभूमि पर स्थित मंदिर क्यों तोड़ा होगा? जाहिर है हिन्दुत्व के उभार तथा इस्लामिक आतंकवाद के इस युग में यह पुस्तक अत्यंत प्रासंगिक है।
इस पुस्तक में उनकी स्थापना है कि, “भारत और पाक का विभाजन हमारे लिए हिन्दू और मुसलमान का विभाजन नहीं था, पाकिस्तान के लिय़े भले ही यह हिन्दू-मुसलमान का विभाजन था। बाद में पाकिस्तान के मेंटर बने मौलाना मौदूदी के लिए और उन जैसों के लिए बेशक यह हिन्दू-मुसलमान का बंटवारा रहा हो, मगर भारत के लिए यह सहअस्तित्व था, सहजीवन और मुस्लिम कौम की कट्टरता का विभाजन था…….एक विशाल मुस्लिम आबादी ने महान विरासत वाली साझी संस्कृति की सोच का चयन किया। पाकिस्तान ने सोचा, उसने हिन्दू-मुसलमान का बंटवारा कर लिया। भारत ने कहा, यह तो साझी संस्कृति की सोच वाले मुसलमानों से कट्टर और हठीली सोचवाले मुसलमानों का बंटवारा हुआ। भारत–पाकिस्तान का विभाजन तात्विक और मूल्यगत स्तर पर मुसलमानों का मुसलमानों के बीच बंटवारा बन गया। इस तात्विक और मूल्यगत विभाजन ने पकिस्तान को एकदम से बौना कर दिया।” (उपर्युक्त, खंड-2, पृष्ठ –दस)
कर्मेन्दु शिशिर ने हिन्दी नवजागरण पर विशेष काम किया है। उनका मानना है कि हिन्दी क्षेत्र में वैसा नवजागरण नहीं दिखायी देता, जैसा बंगाल अथवा महाराष्ट्र में था. इसका कारण यह है कि हिन्दी क्षेत्र अन्य क्षेत्रों से काफी भिन्न था। पूरे हिन्दी क्षेत्र में कोई बंदरगाह नहीं था। कुछ व्यापारिक केन्द्र जरूर थे, जो न तो ज्यादा विकसित थे और न ही उत्पादन की कोई विकसित या सामूहिक प्रणाली थी। सबसे बड़ी बात यह कि हिन्दी क्षेत्र को लेकर अंग्रेज भी पूर्वाग्रहग्रस्त थे। अंग्रेजों ने अन्तिम लड़ाई हिन्दी क्षेत्र में ही चौसा-बक्सर में लड़ी थी और उसके ठीक सौ साल बाद 1857 की क्रान्ति की शुरुआत भी इसी क्षेत्र से हुई। अंग्रेजी हुकूमत के प्रति जो रोष, जो नफरत, जो प्रतिरोध हिन्दी क्षेत्र में था, वह महाराष्ट्र या बंगाल में नहीं था। उन्होंने इस ओर भी संकेत किया है कि हिन्दी क्षेत्र में महाराष्ट्र या बंगाल की तरह कोई सुधारवादी शक्ल वाला नवजागरण जैसा मुखर आन्दोलन भी नहीं हुआ। मसलन हिन्दी क्षेत्र में गतिहीनता ज्यादा थी। यहां हिन्दी लेखकों को ज्यादा प्रतिकूल स्थितियों में परिवरर्तन करना था। (द्रष्टव्य, ‘डॉ. रामविलास शर्मा : नवजागरण एवं इतिहास लेखन’ शीर्षक पुस्तक का ‘हिन्दी नवजागरण : वाद-विवाद और आधुनिक संदर्भ’ शीर्षक लेख)
उल्लेखनीय है कि भारतीय नवजागरण की परंपराओं के क्रम में ‘मर्यादा’ बीसवीं सदी के उन हिन्दी पत्रों में है, जिसने अपने अथक संघर्ष से भारतीय मानस का निर्माण किया। स्वाधीन चेतना और हिन्दी नवजागरण का स्वरूप निर्मित करने में ‘मर्यादा’ का विशेष महत्व है। कर्मेन्दु शिशिर ने अत्यंत सूझ-बूझ और अध्यवसाय के साथ ‘मर्यादा’ की चुनिन्दा सामग्री का छ: खंडों में संकलन करके ऐतिहासिक काम किया है।
हम कर्मेन्दु शिशिर के जन्मदिन (26 अगस्त) पर हिन्दी-संस्कृति एवं हिन्दी-आलोचना के क्षेत्र में उनके द्वारा किए गए महान अवदान का स्मरण करते हैं, उन्हें जन्मदिन की बधाई देते हैं और उनके सुस्वास्थ्य व सतत सक्रियता की कामना करते हैं।