- अमरनाथ
कृषि कानून के विरोध को पश्चिम बंगाल के अकाल के परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है। अकाल में भूख से 30 लाख लोगों की तड़प-तड़प कर मौत हुई थी। वर्ष 1943 में पश्चिम बंगाल में भीषण अकाल पड़ा था। लोगों ने भूख से तड़पते अपने जिगर के टुकड़ों को नदियों में फेंक दिया था, अनेक ने ट्रेनों के सामने कूदकर जान दे दी थी, पत्तियाँ और घास चबाकर जिन्दा रहने की लोगों ने कोशिश की थी। इस अकाल में कुल 30 लाख लोग भूख से तड़प-तड़प कर मर गए।
यह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं थी, मानवनिर्मित थी। उस वर्ष जनवरी में आए तूफान से धान की फसल को कुछ नुकसान जरूर हुआ था, किन्तु इसके बावजूद अनाज का उत्पादन घटा नहीं था। बकौल अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन, “उस वर्ष 1941 की तुलना में उत्पादन बढ़ा था।”
इस अकाल के लिए तत्कालीन सरकार की नीतियाँ जिम्मेदार थीं। द्वितीय विश्वयुद्ध का समय था। अंग्रेजों ने अपने सैनिकों और युद्ध में लगे लोगों के लिए चावल की जमाखोरी कर ली थी। दूसरी ओर विंस्टन चर्चिल ने स्थिति से वाकिफ होने के बावजूद अमेरिका और कनाडा के इमरजेंसी फूड सप्लाई के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था।
यह अकाल खाद्यान्न की जमाखोरी के कारण कीमतों में हुई अप्रत्याशित वृद्धि का परिणाम था। कोलकाता की सड़कों पर लोग तड़प-तड़प कर मर रहे थे, जबकि बंगाल से चावल का निर्यात हो रहा था। अमीरों के घर खाद्यान्न से भरे थे। अंग्रेज और उच्च वर्ग के भारतीय भद्रजन क्लबों में मस्ती कर रहे थे। आस्ट्रेलियाई वैज्ञानिक और सोशल ऐक्टिविस्ट डॉ. गिडोन पोल्या के अनुसार, “बंगाल का अकाल मानव-निर्मित होलोकास्ट था।”
क्या आज के विवादित कृषि कानून का चरित्र बंगाल के अकाल के समय की सरकारी नीतियों जैसा नहीं है? अनाज की जमाखोरी को वैध ठहराकर और उद्योगपतियों को अपनी इच्छानुसार बेंचने का अधिकार देकर ये कानून खाद्यान्न के कृत्रिम अभाव को आमंत्रित नहीं कर रहे हैं? मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि जिस तरह शिक्षा और स्वास्थ्य को सरकार ने मुनाफे के लिए व्यापारियों के हाथों में जबसे सौंप दिया है, तबसे हमें अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा अपने इलाज और बच्चों की शिक्षा पर खर्च करना पड़ रहा है। उसी तरह यदि किसानों की खेती को भी इन काले कानूनों के जरिये मुनाफे के लिए व्यापारियों के हाथ में सौंप दिया गया तो हमें अपने परिवार का भूख मिटाना भी बहुत मँहगा हो जाएगा और खाद्यान्न की मँहगाई से गरीबों के लिए अकाल स्थायी भाव बन जाएगा।
बंगाल के अकाल के समय नोबेल पुरस्कार विजेता और भारत रत्न प्रो. अमर्त्य सेन दस साल के थे। उन्होंने भूख से तड़प-तड़प कर मरते लोगों को अपनी आंखों से देखा था। अकारण नहीं है कि उन्होंने, “नये कृषि कानूनों को लेकर चल रहे किसानों के आन्दोलन का समर्थन किया है।” (द वायर, 29 दिसंबर 2020)।
देश के प्रबुद्ध जनों से अनुरोध है कि वे किसानों के संघर्ष से अपने को जोड़ें. तन-मन-धन से उनका साथ दें. किसानों की माँगों से पूरे देश की जनता का हित अविभाज्य रूप से जुड़ा हुआ है।
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