केंद्र सरकार के हालिया एक फैसले से निजी क्षेत्र के कामगारों पर ‘कोरोना’ संकट का खतरा मंडरा रहा है। केंद्र सरकार ने डीए की किश्तें रोकने का फैसला किया है। अगर केंद्र सरकार ऐसा फैसला ले सकती है तो निजी क्षेत्र में इस तरह की मांग उठेगी, जिनके लिए यह निर्देश है कि संस्थान-प्रतिष्ठान या कंपनियां कामगारों को न निकालेंगी और उनका वेतन काटेंगी। पढ़ें, इस पर वरिष्ठ पत्रकार श्याम किशोर चौबे की विश्लेषणात्मक टिप्पणी
- श्याम किशोर चौबे
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा लिए गए एक फैसले से देश भर के कामगारों, जिनमें सरकारी कर्मी और अधिकारी भी शामिल हैं, पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। यह सीधे-सीधे आर्थिक मामला है, जिसे हम ‘कोरोना’ संकट कह सकते हैं। मोदी सरकार ने केंद्रीय कर्मियों के मंहगाई भत्ते (डीए) और पेंशनधारियों की महंगाई राहत की तीन किश्तें रोक देने का एलान किया है। इन तीन किश्तों में पिछली जनवरी में घोषित मंहगाई भत्ता भी शामिल है। इस एकमात्र घोषणा के न केवल गहरे निहितार्थ हैं, अपितु इसके दूरगामी आर्थिक परिणाम भी होंगे। इसका संबंधित परिवारों सहित बाजार की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।
कुछ राज्यों ने अपने कर्मियों के वेतन में कटौती का एलान कर दिया है, जबकि झारखंड सहित शेष राज्यों में भी ऐसा ही होने की प्रबल संभावना दिख रही है। चूंकि राज्यों में केंद्रीय वेतनमान के अनुरूप वेतन देने की परिपाटी चल निकली है, इसलिए घाटे का बजट पेश करने वाली ये सरकारें भी ‘दिल्ली’ का अनुकरण न करें, ऐसा कोई कारण नहीं। बहुत संभव है कि लोक कल्याण को ध्यान में रखते हुए राज्य सरकारें विधायक क्षेत्रीय विकास निधि पर भी कैंची चलाएं।
पहले से ही आर्थिक मंदी से गुजर रहा भारत कोरोना संकट के कारण आनेवाले दिनों में कितनी गहरी आर्थिक खाई में जाएगा, इसका आकलन अब शुरू हो गया है। इसी के तहत मोदी सरकार ने महंगाई भत्ते में कटौती का निर्णय लिया है। आर्थिक जगत के समक्ष उत्पन्न अब तक के क्रूरतम और भीषणतम संकट का असर निजी क्षेत्रों और उनके कर्मियों पर पड़ना कतई अस्वाभाविक नहीं। सरकारों ने हालांकि लाक डाउन घोषित करते समय सद्भावनावश यह जरूर अपील की थी कि इस अवधि में निजी क्षेत्र अपने कर्मियों को न तो नौकरी से निकालेंगे, न उनकी तनख्वाह रोकेंगे और न ही उसमें कटौती करेंगे।
अब अपने कर्मियों और यहां तक कि पेंशनधारियों के भी मंहगाई भत्ते पर रोक लगाकर सरकार ने निजी क्षेत्र से की गई अपील पर अमल कराने का नैतिक अधिकार एक तरह से खो दिया है। ऐसे भी झारखंड सहित विभिन्न राज्यों में विकसित नगरों/ महानगरों से लौट आए या वहां फंसे निजी क्षेत्र के लाखों कामगारों के चेहरों पर उड़ रहीं हवाइयां बयान कर रही हैं कि उनकी नौकरी/ रोजगार खतरे में है। वह या तो खत्म हो चुकी है या निकट भविष्य में खत्म होने के कगार पर है। निजी क्षेत्र के ये अधिकतर कामगार किसी अनुबंध के तहत बहाल नहीं किए जाते। इसलिए वे कोई क्लेम भी नहीं कर सकते।
निजी क्षेत्र की कंपनियां, जिनमें रेस्टोरेंट से लेकर छोटी-बड़ी फर्मों तक की गिनती की जानी चाहिए, 40 दिनों का लाक डाउन झेलने के बाद ये उपक्रम अपने कामगारों का आर्थिक बोझ किस हद तक संभाल पाएंगे, यह समझना मुश्किल नहीं। जब खुद केंद्र सरकार एमपीलैड में कटौती कर चुकी है, मंहगाई भत्ते और महंगाई राहत की तीन किश्तें रोक चुकी है, राज्य सरकारों को रिजर्व बैंक से वेज एंड मिन्स के तहत 90 दिनों का कर्ज लेने की छूट दे दी है और राज्यों को संघीय व्यवस्था के तहत दी जाने वाली राशि में भी कटौती संभावित है तो निजी क्षेत्रों की बदहाली समझी जा सकती है।
उनका उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हुआ है और माल की आपूर्ति में कमी हुई है। उपभोक्ता बाजार पर इसका सीधा असर पड़ने लगा है। सरकार की तमाम हिदायतों के बावजूद कई जिन्सों की कीमतें बढ़ गई हैं। यहां यह भी समझने की जरूरत है कि जीडीपी में सरकारों का योगदान न्यून होता है, जबकि निजी क्षेत्रों की बड़ी भागीदारी होती है। इसलिए दरवाजे पर खड़ा अर्थ संकट घर के किस-किस कोने को ढहा देगा, इसका आकलन अभी ही कर लिया जाना चाहिए। मंहगाई और बेरोजगारी बढ़ना सुनिश्चित है।
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अर्थ-व्यवस्था के तहत यह माना जाता है कि बाजार में गया एक रुपया रोल करते-करते दस रुपये में बदल जाता है। इससे उत्पादन और क्रय शक्ति बढ़ती है। अर्थव्यवस्था पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। बाजार में जितनी ज्यादा राशि जाएगी, अर्थव्यवस्था उतनी ही मजबूत होगी। इस सूरत में सरकार/ सरकारों द्वारा की गई कटौती/ कटौतियों का सीधा असर कामगारों पर दो लिहाज से असर डालेगा। एक तो उनकी क्रय शक्ति घटेगी, दूसरे उनकी बचत भी प्रभावित होगी। खासकर पेंशनधारियों के समक्ष अधिक विषम स्थिति उत्पन्न होगी, क्योंकि बढ़ती महंगाई में उनके भोजन-पानी से लेकर दवा-दारू तक पर मंहगाई राहत की रकम पैबंद का काम करती है, जिसकी गणना जनवरी से की जाये तो डेढ़ साल तक बुरी तरह खलेगी।
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रपटन शैली में लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था साफ-साफ बता रही है कि उसके लिए आनेवाले दिन बेहद खतरनाक हैं। लाक डाउन से प्रभावित कितनी फर्में/ कंपनियां किस हद तक और किस सूरत में चालू होंगी, इसका बस अनुमान ही लगाया जा सकता है। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। सब्र का लगातार पाठ पढ़ाने वाले अखबारों ने अपने पन्ने बेहिसाब घटा दिये हैं। उनका प्रसार गिरा है। विज्ञापन में भी कमी आई है। कई मीडिया हाउसों ने वेतन कटौती शुरू कर दी है, जबकि अघोषित तौर पर कुछ कर्मियों को घर बैठा दिया गया है। हालांकि केंद्र सरकार ने ऐसा करने से सबको मना किया है।
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ऐसा तब हुआ है, जब अधिकतर मीडिया हाउस उद्योगपतियों के हाथों में हैं। कुछ राज्य सरकारों ने इस पर संज्ञान भी लिया है, लेकिन वह कितना प्रभावकारी होगा, यह कहना मुश्किल है। मीडिया जगत में इस बात की तीव्र आशंका व्यक्त की जा रही है कि कोरोना इफेक्ट के बाद या इस दौरान ही कम-अज-कम 25-30 फीसद बेरोजगारी क्रियेट की जाएगी। बाकी उत्पादक इकाइयां तो किसी मिशन की घोषणा नहीं करतीं। वे विशुद्ध रूप से मुनाफे का ही धंधा करती हैं। उनके मुनाफे पर पड़नेवाली हर चोट बेरोजगारी का एक नया अध्याय सृजित करेगी। कहने की बात नहीं कि इसका सीधा असर सरकारों पर पड़ेगा। कोरोना संकट के दौरान आपराधिक कृत्यों में आई बेहिसाब गिरावट बाद के काल में कानून-व्यवस्था की कोई ताज्जुब नहीं।
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