- अजय कुमार
कोटा में फंसे बच्चे लाक डाउन खत्म होने पर ही लौंटेगे। अब यह साफ हो गया है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को बिहार के लोगों की पीड़ा-परेशानी से कोई मतलब नहीं। वे पूरी तरह केंद्र के आदेशों के पालक हैं, जनता के सेवक नहीं। यह नीतीश कुमार का नया रूप है। इससे पहले उनके एजेंडे में जनता का सुख-दुख, उसकी परेशानी-पीड़ा ज्यादा अहमियत रखती थी। वे अपनी जनता के लिए केंद्र के एजेंडे को ठेंगे पर रखने वाले मुख्यमंत्री के रूप में पहचान बना चुके थे। उन्हें जो उचित लगता था, वहीं कहते और करते थे। कोरोना संकट ने उनके बदले रूप का लोगों को एहसास करा दिया है।
अब उनका सरोकार जनता से कम और केंद्र सरकार के प्रति नैतिक ज्यादा है। इसके लिए सिर्फ दो उदाहरण काफी है। जिन घरों के बच्चे पढ़ने के लिए बिहार से बाहर हैं, खासकर कोटा में, उनके अभिभावक लाक डाउन की मुश्किलों को देख-झेल कर अपने बच्चों की परेशानी-मुश्किलों की कल्पना कर परेशान हैं। लाक डाउन के कारण लोग मजमा बना कर नीतीश तक पहुंच भी नहीं सकते और न पीड़ा का इजहार कर सकते हैं। लेकिन ऐसे आड़े वक्त में मीडिया-सोशल मीडिया ने उनकी बात सरकार तक पहुंचा दी। गार्जियन इस बात के लिए भी तैयार हैं कि सरकार सिर्फ बच्चों को कोटा से लाने की व्यवस्था करा दे, वे खर्च उठाने को तैयार हैं। लेकिन नीतीश केंद्र के आदेश का हवाला देकर अड़े रहे।
चलिए, यह मान लेते हैं कि लाक डाउन में इसकी इजाजत गृह मंत्रालय ने नहीं दी, लेकिन जब दूसरे राज्य ऐसा करने लगे, तब ऊ नीतीश की नंद नहीं खुली। उन्होंने खामोशी ओढ़ ली। प्रधानमंत्री के साथ वीडियो कांफ्रेंसिंग में जब सारे मुख्यमंत्री जुटे, तो इस पर आपत्ति जतने के बजाय उन्होंने यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि बिहार के बाहर फंसे लोगों को वापस बुलाना अकेले बिहार सरकार के बूते की बात नहीं। केंद्र मदद करे। वह केंद्र के आदेशों का पालन कर रहे हैं कि लाक डाउन में एक राज्य से दूसरे राज्य में आवाजाही बंद रहेगी।
यानी नीतीश की बातों से एक बात साफ हो गया है कि कोटा या बिहार के बाहर दूसरे राज्यों में फंसे लोगों को वे नहीं ला सकते। प्रधानमंत्री ने भी नीतीश के इस दबी जुबान आग्रह पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। होना तो यह चाहिए था कि उत्तर प्रदेश, गुजरात या दूसरे राज्यों ने अगर ऐसा किया तो बिहार को इस सुविधा से क्यों वंचित किया गया, वे इस पर कड़ी आपत्ति दर्ज कराते। केंद्र सरकार की दोरंगी नीति को बेनकाब करते और उसे कठघरे में खड़ा करते। लेकिन उनकी हनक अब पहले से जैसी रही कहां।
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नीतीश जी को बिहार में सरकार चलानी है। आगे भी उन्हें अपनी कुर्सी सुरक्षित रखनी है। धारा 356, राम मंदिर, तीन तलाक, एनआरसी, एनपीआर और सीएए जैसे केंद्र की भाजपा सरकार के एजेंडे पर जिस तरह वह खुल कर बोलते, उसका विरोध करते और इनमें बिहार से जुड़े मुद्दों को अपने यहां लागू न करने का जिस तरह वह जोखिम उठाते रहे हैं, अब वैसी बात नहीं रही। उन्हें भाजपा ने खुले तौर पर आश्वस्त कर दिया है कि बिहार में एनडीए के वही अव्वल नेता रहेंगे। यानी सीएम का चेहरा वही रहेंगे। संभव है कि उनकी पार्टी जेडीयू को एनडीए में चुनाव के दौरान सर्वाधिक सीटें भी मिल जायें, लेकिन नीतीश जी भूल रहे हैं कि उनके अलग अंदाज की वजह से ही लोग उन्हें पसंत करते रहे हैं और पिछले 15 साल से वे मुख्यमंत्री की कुरसी पर विराजमान हैं।
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नीतीश कुमार अपनी शर्तों पर चलने और काम करने के आदी रहे हैं। इसी वजह से उन्होंने आरजेडी से नाता तोड़ दोबारा भाजपा के साथ सरकार बनाने का फैसला किया। बड़े-बड़े दबंगों को उन्होंने जेल की कोठरी तक भेज कर अपराधियों का मनोबल तोड़ा। गुजरात दंगे का दागी होने के कारण भाजपा के साथ रहते हुए उन्होंने बिहार में नरेंद्र मोदी का चुनावी दौरा रुकवाया। बाढ़ राहत कोष में आये उनके पैसे वापस कर दिये। नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा करना तो दूर, उनके साथ बोज भी उन्होंने रद्द कर दिया था।
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नीतीश कुमार अब पहले वाले नीतीश नहीं रहे। उनके लिए जनभावनाएं या जनसरोकार कोई मायने नहीं रखते। उनके विधायक लाक डाउन में रोक के बावजूद राजस्थान जाकर अपने बच्चों को ले आते हैं, लेकिन नीतीश इस पर कोई टिप्पणी नहीं करते। और जब दूसरे बच्चों की बात आती है तो केंद्र के निर्देशों का हवाला देते हैं। नीतीश जी को यह समझना चाहिए कि जनता सब समझती है। डिजिटल युग में उसे पल-पल की एक-एक गतिविधि की जानकारी रहती है। सब ठीक रहा तो कुछ ही महीने बाद आपको उसी जनता के बीच वॉटों के लिए जाना है, जहां जाकर आप कहते रहते हैं कि मैं अपने काम के लिए वोट मांगने आया हूं। इस बार भी आप जाएंगे। जनता आपके काम का इनाम भी देगी, लेकिन किस रूप में, यह वक्त बतायेगा।
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