कोरोना, कोरोना वायरस और COVID-19 या नोवेल कोरोना सुनते-सुनते अगर आप ऊब गये हैं तो थोड़ा फणीश्वर नाथ रेणु के बारे में भी पढ़ लें। इधर भी ध्यान दें। इससे आपके मन को सुकून तो मिलेगा। साथ ही आपके ज्ञान में भी वृद्धि होगी। फणीश्वर नाथ रेणु के बारे में यह लेख आपके साहित्यिक मिजाज को पसंद आयेगा।
रूप का वह आकर्षण मतलब बिन डोर खिंचा जाना!
- भारत यायावर
फणीश्वरनाथ रेणु का कथा साहित्य रूप और सौंदर्य के प्रति व्याकुलता से भरा हृदय है। विद्यापति के पद उनको सम्मोहित करते थे। “जनम अवधि हम रूप निहार लूँ, तइयो न तिरपित भेल” उनमें बचपन से ही था। ‘रसप्रिया’ कहानी में ‘अपरूप रूप’ शब्द का प्रयोग उन्हें विद्यापति से जोड़ता है। हिन्दी के साहित्यिक जगत में अपरूप बिगड़े हुए भद्दे चेहरे या कुरूप को कहते हैं। लेकिन विद्यापति ने उसे अपूर्व के रूप में प्रयोग किया है।
अपरूप रूप अर्थात् अपूर्व रूप विद्यापति मोहन या कृष्ण में देखते थे, लेकिन रेणु को तो अपने जीवन में ही वह अपूर्व रूप जगह-जगह दिखाई देता रहा। अपनी प्रेम कथाओं पर उनकी एक पुस्तक लिखने की इच्छा थी। लेकिन जगह-जगह उन्होंने रूप और सौंदर्य के प्रति अपने आकर्षण को ईमानदारी से प्रस्तुत किया है। उन्होंने स्वीकार किया है, “प्रेम नहीं, प्रेमों में पड़ा हूँ। प्रेमी बनकर तीन-चार सालों तक प्रेम के निराले पथ पर ठोकरें खाते फिरने का अभिनय करना पड़ा है। प्रेमनगर में कई घर बसाए- सब संसार को तजकर। कई घर आँधी-तूफान में उड़े।”
रेणु के प्रेम की अजब-गजब कहानियाँ हैं। एक कहानी बनारस की है। वे बनारस में दशाश्वमेध घाट के पास बंगाली मोहल्ले में रहते थे। वे छत पर बैठकर सड़क पर आते-जाते लोगों को देखते रहते थे। इसी सड़क पर एक दिन एक बंगाली युवती पर उनकी नजर पड़ी। उसके रूप में कुछ ऐसा आकर्षण था कि वे तेजी से उतरकर उसके पीछे-पीछे चलने लगे। दशाश्वमेध घाट पर कीर्तन मंडली में वह खो गई। वे बेचैन होकर उसे खोजते रहे। फिर उनकी आँखों ने उसे खोज निकाला। वह कीर्तन मंडली की भीड़ में एक जगह भजन संध्या में निमग्न बैठी हुई थी। रेणु अपलक उसे निहारते रहे, निहारते रहे। यह अनुभव अनुपम था। अपूर्व था। वह घाट पर रोज आती,अपनी माँ के साथ। और वे उसके पीछे-पीछे चलते। बस उसे देखने की तड़प। कुछ करते नहीं। बस उसका रूप निहारते रहते, अपलक।
रेणु ने लिखा है, “जिस दिन वह नहीं आती, बेचैन हो जाता। उस पर दृष्टि पड़ते ही रोम-रोम बज उठते। कीर्तन समाप्त होने के बाद मैं प्रतीक्षा करता। फिर कालीस्थान की गली, कालिसपुरा गली होते हुए एक अंधी गली तक उसके पीछे-पीछे जाता। मैंने उसका घर देख लिया था- उसका नाम जान लिया था। दिन-रात बस उसी की चिंता, उसी की याद। साल भर तक मैं पागल होकर उसके पीछे-पीछे चलता रहा- गोदौलिया, विश्वनाथ गली, बाँस फाटक, जहाँ-जहाँ वह जाती- मैं साथ रहता। आँखें चार होते ही उसका चेहरा लाल हो जाता। मेरी कनपटी गर्म हो जाती, कलेजे की धड़कन बढ़ जाती। किंतु, मुँह से कभी कुछ न निकला। साहस ही नहीं हुआ कभी। एक बार, मिठाई की दुकान में वह कुछ कहते-कहते रुक गई- ” सुनून….!” बस, इतना ही। एक दिन वह खो गई। फिर नहीं मिली, कभी।”
रेणु जब साहस करके यह प्रसंग लिख रहे थे, तब इतना अपने-आप में खो गए थे कि उन्होंने दिल की जगह कलेजे की धड़कन लिख दिया। लेकिन अपने बारे में खुलकर बताया, यह उनका साहस था। अपनी जवानी में मैं भी ऐसे ही रूप के पीछे-पीछे बिन डोर खिंचा जाता था, लेकिन बदनामी के डर से बता नहीं पाता था। इस पागलपन और जुनून के दौर से गुजरने के बाद आज प्रकट रूप में कहने का साहस मैंने भी किया है और इस शेर के मर्म को समझता हूँ, जिससे रेणु गुजर चुके थे :
यूँ तो होते हैं मोहब्बत में जुनूँ के आसार, कुछ लोग उसे और भी दीवाना बना देते हैं।
लेकिन रेणु को लगभग सोलह वर्षों के बाद मिली, तब तक रूप का वह आकर्षण क्षीण हो चुका था। लेकिन फिर भी भूलना तो मुश्किल था। वाकया यह हुआ कि उस लड़की की शादी इलाहाबाद के लूकरगंज में ही हुई थी, जहाँ एक किराये का कमरा लेकर वे ‘परती : परिकथा’ के लेखन कार्य में लगे हुए थे। उनके घर के सामने एक मैदान था, जिसमें बंगाली लोगों ने सरस्वती पूजा का आयोजन किया था। रेणु जी लतिका जी के साथ पूजा करने गए तो वह लड़की एक महिला के रूप में अपने बेटे का अक्षरारम्भ करवाने पहुँची थी और पुजारी आनाकानी कर रहा था।
उस महिला से रेणु की नजरें मिलीं। रेणु ने उसे पहचान लिया। उसने भी रेणु को पहचान लिया। अपने पति से इजाजत लेकर वह उनके पास आई और कहा, “चिनी चिनी मैने होच्छे।” अर्थात् मन में पहचाना हुआ लग रहा है। रेणु ने बांग्ला में कहा, “मुझे आप नहीं पहचानतीं, लेकिन मैं अवश्य आपको जानता-पहचानता हूँ।”
महिला ने पूछा, “आप बनारस में थे।” रेणु ने कहा, “कुछ दिनों तक था।” तभी भीड़ से निकल कर एक किशोरी कन्या आई और अपनी माँ से कहा, “आज के रात्रे रामेर सुमति देखानो होबे, अइखाने ! ” रेणु ने देखा और आश्चर्य से भर उठे। हू-ब-हू सोलह साल पहले जिस लड़की के रूप-सौंदर्य में बंधकर पीछे-पीछे बनारस में घूमते रहते थे, फिर से वही चेहरा सामने था। भला वह चेहरा वह कैसे भूल सकते थे। अब माँ की जगह बेटी थी।
रेणु आश्चर्यचकित हो कर उसे देखते ही रह गए। उनका मन काशी के दशाश्वमेध घाट पर पहुँच गया, न जाने कब! साथ में पत्नी लतिका भी पूजा की थाल लिए खड़ी थी। कुछ देर के बाद पुजारी ने पूजा करवाना शुरू किया- बोलिए….शुरू कीजिए….ऊँ भद्रकाल्ये नमोनित्य सरस्वते नमो नमः। वेद-वेदांग विद्यास्थाने….।”
लेकिन यह क्या चमत्कार! देवी सरस्वती की छवि की जगह उसी किशोरी कन्या की रूप छवि अंकित हो गई थी, जो हटाने पर भी नहीं हट रही थी। लेकिन यह सब उनके साथ बचपन से ही हो रहा था। वे चौदह साल के हो चुके थे। शरत् का देवदास उनके मन में आहत प्रेमी के रूप में समाहित हो चुका था। उसी समय जवाहरलाल नेहरू पुस्तक का प्रेमचन्द द्वारा हिन्दी अनुवाद ‘पिता के पत्र : पुत्री के नाम’ अररिया के एक व्यक्ति ने मँगवाया था। उसका पुत्र रेणु का सहपाठी था। वह उस पुस्तक को अपने मित्रों को दिखला रहा था। पुस्तक के शुरू में इंदिरा प्रियदर्शनी की तस्वीर आर्ट पेपर पर छपी थी।
उस तस्वीर को जब रेणु ने देखी तो देखते ही रह गए। अपरूप रूप अर्थात् अपूर्व रूप का दर्शन। उनका रोम-रोम प्रेम डूब गया। फिर उन्होंने वह किताब चुरा ली और सावधानी से किताब से फोटो निकाल कर अपने बस्ते की किताब के भीतर छुपा लिया। घर आकर अपलक उस फोटो को देखते रहते थे। उस लड़के ने रेणु से पूछा, “क्या तुमने फोटो चुराई है? ” रेणु ने स्वीकार किया, “हाँ, मैंने चुराई है! पर नहीं दूंगा।” फिर दोनों दोस्तों में भीषण लड़ाई हुई। मारा-मारी। कपड़ा फाड़ा-फाड़ी। दोस्ती दुश्मनी में बदल गई।
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रेणु इंदिरा का फोटो देखकर ही उससे प्रेम करने लग गए थे। जब वह फोटो जीर्ण-शीर्ण होकर नष्ट हो गया, तभी उनका यह रोग उतरा। समय के साथ रेणु की भावुकता कम हुई । 1970 में जब राष्ट्रपति के हाथों उन्हें पद्मश्री प्रदान की गई, इंदिरा वहीं खड़ी थी। उसने दोनों हाथों से रेणु को प्रणाम किया और रेणु ने भी किया। यह प्रथम अवसर था जब उनका प्रेम साकार खड़ा था।
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1974 में इंदिरा के दमनकारी नीतियों के तहत उन्हें लम्बे समय तक जेल में रहना पड़ा था। जेल से बाहर आने के बाद एक दिन वे अररिया गए थे। अचानक पीछे से उनके कंधे पर एक आदमी ने हाथ रखा। पलटकर देखा, बचपन का वही मित्र मुस्कुराते हुए खड़ा था। उसने कहा, “जिस इंदिरा की तस्वीर के लिए तुमने मुझसे मारामरी की उसी तुम्हें जेल में डाल कर रौंद दिया। बहुत अच्छा हुआ। मेरा तो कलेजा ठंडा हो गया।”
पर रेणु क्या करते ! उनका दिल ही ऐसा था। वहीं हिरामन थे। बार-बार यह गुलफाम मारा जाता रहा और एक तड़प उनको भीतर तक रौदती रही, रुलाती रही। तीसरी कसम का अंतिम दृश्य बार-बार याद आता है और मन में एक कसक छोड़ जाता है :
गाड़ी ने सीटी दी।
हिरामन को लगा ,
उसके अंदर से
कोई आवाज़ निकल कर
सीटी के साथ ऊपर की ओर चली गई — टू-उ-उ !
इस्स… !
छि-ई-ई-छक्क!
गाड़ी हिली।
हिरामन ने अपने दाहिने पैर के अंगूठे को बायें पैर के एड़ी से कुचल लिया। कलेजे की धड़कन ठीक हो गई। .. हीराबाई हाथ की बैगनी साड़ी से चेहरा पोंछती है। साड़ी हिलाकर इशारा करती है–अब जाओ!
… आख़िरी डब्बा गुजरा।
प्लेटफार्म खाली
सब ख़ाली।
खोखले मालगाड़ी के डब्बे।
दुनिया ही खाली हो गई, मानो।
हिरामन अपनी गाड़ी के पास लौट आया। …
उसने उलटकर देखा,
बोरे भी नहीं,
बाँस भी नहीं,
बाघ भी नहीं।
मरे हुए मुहूर्तों की गूंगी आवाजें मुखर होना चाहती हैं।
हिरामन के होंठ हिल रहे हैं।
शायद वह तीसरी कसम खा रहा है…कंपनी की औरत की लेनी…।
रेणु का प्रेमी मन बार-बार आहत होकर टूटता रहा था। इसलिए इन पंक्तियों को तोड़ कर धीरे-धीरे पढने से ही उनके मन के मर्म को छूने की कोशिश की जा सकती है।
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