कोरोना काल की डायरी- हर सुबह न जाने डराती क्यों है !

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कोरोना के बाद अनुशासित और ईमानदार प्रशासन की पड़ेगी जरूरत होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मानते हैं कि आत्मनिर्भर बनने का वक्त आ गया है।
कोरोना के बाद अनुशासित और ईमानदार प्रशासन की पड़ेगी जरूरत होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मानते हैं कि आत्मनिर्भर बनने का वक्त आ गया है।

कोरोना काल डायरी- हर सुबह न जाने डराती क्यों है ! कोरोना काल में लाक डाउन को डायरी के पन्नों पर उतारा है वरिष्ठ पत्रकार डॉ. संतोष मानव ने। पल-पल, हर दिन की सुबह-शाम और निहायत रात तक जीवन के जद्दोजहद का बेहद रोचक अंदाज में वर्णन। यह न सिर्फ उनके दैनंदिन का हिस्सा है, बल्कि हर आदमी अपने को इसमें अपने को पायेगा।

  • डॉ. संतोष मानव
डा. संतोष मानव
डा. संतोष मानव

काम नहीं है। कहीं जाना भी नहीं। मुहल्ला, शहर, राज्य, देश बंद है, तो क्या हुआ?  उठना तो पड़ेगा न? सूर्य का उगना संदेश ही तो है कि चलो, उठो, भागो, दौड़ो। आप प्रकृति के खिलाफ नहीं जा सकते। क्या जाएंगे? अगर जाएंगे,  तो प्रकृति आपको नष्ट कर देगी। और नष्ट होना कौन चाहता है? कदाचित कोई नहीं। इसलिए चैन की बात न करो। कोरोना हो या न हो, कोरोना और कोरोना से पहले नष्ट होने की आशंका हमेशा बनी रहती है। यह शरीर, यह दुनिया सब नष्ट होना ही है, कभी न कभी।

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पर जल्दी क्यों? कोरोना काल की एक सुबह यही सब विचारते, उधेड़बुन के बीच, 9.20 बजे बिस्तर से अलगाव हो ही गया। क्या करना है?  कहीं जाने का तो सवाल ही नहीं। फिर?  किसी को फोन करना है? न-न। नोटबुक में अप्रैल माह के इस दिन का पन्ना खाली है। नहीं, कुछ भी नहीं है। रिक्त है। जिंदगी इतनी खाली कभी नहीं थी। इतनी बेचैन? वह थी, पिछले साल इन्हीं दिनों, जब पिता रोगशय्या पर थे। ओह! कोरोना, मरो न। मोबाइल, टीवी, अखबार सब डरा रहे हैं। ऐसे, हां, वैसे कोरोना वायरस शरीर में प्रवेश कर सकता है। चप्पल से भी। मोबाइल से भी। इसलिए तो बचपन में जूते-चप्पल घर के बाहर उतारने, हाथ-पांव धोकर घर में प्रवेश की चिढ़ाने वाली सीख अब भाने लगी है। ऐसे ही ढेरों हिदायतें अब याद आने लगीं  हैं। अनेक को। कदाचित सभी को।

ये सीख अच्छी थी न? अरे, चप्पल की बात करते हो, ताला-चाबी, मोबाइल, डोर बेल- खतरा सभी जगह है। कोरोना का डर हर जगह है। कहाँ जाए आदमी?  टीवी से भय लगता है। कहाँ पहुंचा होगा आंकड़ा? कौन गया- डॉक्टर, पुलिसवाला, अखबार वाला, दूधवाला—। कुछ करना होगा। निठल्ला चिंतन भयभीत करता है। इसलिए हे वत्स ! कर्मयोगी बनो। रोज जो करते हो, कम से कम वह तो करो। अखबार, ई-पेपर। चलो ठीक है, घंटे-दो घंटे का रोज का काम है। सालों से। नित्य का काम। लो, हो गया। नाश्ता भी। माडर्न ब्रेड की सैंडविच।

कोरोना काल में अब तक दुनिया में डेढ़ लाख से अधिक को लील गया कोरोना। अब दो लाख की र बढ़ रहा है। हमारे देश में हजार के करीब। आगे जाने क्या होगा? आंकड़ा तेजी से दौड़ रहा है। जो मर गए, जो बीमार हो गए, जो ठीक हो गए, सारे आंकड़ों में तेजी है। एक सर थे। वे कहते थे कि आबादी जब बढ़ जाती है, तो प्रकृति अपने तरीके से उसे नियंत्रित करती है। तो क्या यह प्रकृति का नियंत्रण है? अगर नहीं, तो भय के  साथ सोना और भय के साथ जागना क्या है?

कोरोना सिर्फ मौत और जिंदगी का सवाल लेकर नहीं आया। दिक्कतें हजार हैं। बेरोजगारी, भुखमरी, बेबसी, पलायन के सवाल मुंह बाए खड़े हैं। कल-कारखाने, दुकान, हाट-रेहड़ी सब बंद हैं। लाखों-लाख बेरोजगार हो गए हैं। लाखों भाग रहे हैं, गोया शहर काट खाएगा। भागो, जैसे भी। साइकिल, रिक्शा, पैदल ही सही। ग्यारह-बारह सौ किलोमीटर, दुर्ग से दुर्गापुर, दिल्ली से दानापुर, मुंबई से महाराजगंज—-। जिंदगी बचाने की जद्दोजहद। कभी पेट की पुकार पर शहर आए थे, अब पेट की पीड़ा शहर छुड़ा रही है। अजीब खेल है जिंदगी का। जो शहर कभी प्यारा था, अब दुश्मन से कम नहीं। इस भागमभाग में जान भी जा रही है, जा सकती है। पर किसे फिक्र है इसकी। यहाँ भी मौत, वहां भी मौत का खतरा। चलो, भागो, मर भी गए तो क्या?  अपने गांव में मरेंगे। है न जी?

महाभारत का समय हो चला है। चलो, टेलीविजन चालू करो। बैठ गया। द्रौपदी के चीरहरण की कोशिश हुई। दुष्ट दुशासन ने कोशिश की, दुर्योधन के इशारे पर। देश में मजदूरों का चीरहरण हो रहा है, किसके कहने पर?  जवाब समय देगा जी। हाय रे कोरोना! मुआ, मरता क्यों नहीं तू? डरता क्यों है।  तूने लाखों को करुण स्थिति में ला दिया। चीरहरण के समय पुकारती द्रौपदी की तरह। कामगार कहाँ जाएं, किसे पुकारें? द्रौपदी के लिए कृष्ण थे। कामगारों का कृष्ण कौन?

सूर्य सिर पर है। और सिर भारी। कुछ चिंता अपनी है, कुछ दुनिया-जहान की।  चलो, फिर सो जाएं। यह भी एक तरह का पलायन ही है। चुनौतियों से पलायन। सुनो, सुनते हो। खाना खा लो। ठीक इसी समय एनडीटीवी बता रहा था, देश में कोरोना के तेवर। बाकी चैनलों के लिए सास-बहू और साजिश का समय था। वह भी, जो बड़ा ही तेज है। खाना हो गया। फिर?  कुछ नहीं। लोहिया जी की जीवनी है न। सुनो, चायपत्ती नहीं है। आनलाइन मंगा लो। वहां हैवी ट्रैफिक है। शायद चार दिन लग जाएं। गारंटी नहीं, शायद आए भी न। चलो, फिर चलते हैं। मास्क लगा लेना। बेस्ट प्राइस बंद, डी मार्ट बंद, आनडोर बंद। पास की बुढ़िया की दुकान भी बंद। पांच-सात किलोमीटर हो गए। सारी दुकान बंद। इक्का-दुक्का मेडिकल छोड़ दो। राशन वाली एक दुकान खुली थी- चौधरी सुपर बाजार। चाय, बिस्किट और कुछ?  अरे, अमूल की छाछ भी ले लो… सूरज अब सोने जाएगा। यह कोरोना काल है।

एकसरसाइज करते हैं। एक-दो-तीन-चार वाली। वो, स्कूल में सर ने बताया था। फिर महाभारत देखेंगे, शाम की शो। ….आज भीष्म भारी चिंता में हैं। युद्ध का खतरा मंडरा रहा है। अर्जुन को शकुनि, कर्ण, दुर्योधन, दुःशासन का शव चाहिए। इधर कोरोना को भी शव चाहिए। लाखों। मरने का डर मंडरा रहा है। पीएम, सीएम इससे चिंतित हैं। पर कोरोना से इस महाभारत में सब की हालत भीष्म वाली ही है। सब बंधे हैं खूंटे से। समझाइश तो भीष्म की तरह ही है। सब के अपने-अपने भीष्म।

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ऐ कोरोना। रोज खा रहे हो। अब थम जाओ न। हमारे देश में खा रहे हो 30-35-50 हर रोज। कितना बड़ा पेट है तुम्हारा? बोलो न कोरोना? देखो न कोरोना। अखबार में एक तस्वीर छपी है। तुमने एक दारोगा की जान ले ली। मृत देह ताबूत में है। रोती-बिलखती दारोगा की स्त्री अपने स्व. पति का देह-दर्शन भी नहीं कर सकती। कारण तुम्ही हो कोरोना। उस स्त्री में तुम प्रवेश कर सकते हो, इसलिए उसे दर्शन न कराया गया। अंतिम दर्शन की इच्छा ताबूत दर्शन तक समेट दी गई। इतने खतरनाक, साजिशकर्ता क्यों हो कोरोना। महाभारत के दुर्योधन-शकुनि की तरह।

महाभारत के साथ, रामायण भी है इन दिनों। रामानंद सागर की रामायण। वहां राम राज आ गया है। मंथरा, केकैयी सब को राम ने माफ कर दिया है। कैसा अनुपम चरित्र है राम का। और आधुनिक रामों का यानी नेताओं का। मत पूछो। अब भी वे दोषारोपण में व्यस्त हैं।  क्या इसलिए तुम मस्त हो कोरोना। अब तुम जाओ, सोने दो, रात के एक बज गए हैं कोरोना ।

(लेखक दैनिक भास्कर, हरिभूमि, राज एक्सप्रेस के  संपादक रहे हैं)

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