कोरोना का कहर, हर दिल-दिमाग रणभूमि। मौत दर मौत। सब नेगेटिव। खिन्न मन। अच्छा सोचो। अच्छा करो। अच्छा पढ़ों। अच्छा लिखो। सब ठीक होगा। कैसे होगा? धैर्य रखो। मन खुद से सवाल-जवाब करता है। मिनटों नहीं, घंटों। कोशिश करो। अच्छा देखने की कोशिश करो। घना अंधेरा हो, तो समझो, सुबह होने वाली है। यह कोरोना भी जाएगा। वरिष्ठ पत्रकार डा. संतोष मानव की कोरोना काल में लिखी डायरी की 7वीं कड़ी का एक अंश। विस्तार से पढ़ेंः
- डा. संतोष मानव
यह गंदी आदत है, पर है। बहुत पुरानी नहीं है। बस, सात साल की। नींद खुलते ही, मोबाइल टटोलना। उसमें वाट्सएप और फेसबुक देखना। कम से कम पंद्रह-बीस मिनट गंवाना। फिर आगे बढ़ना। इसके बिना सुबह का कार्य प्रारंभ नहीं होता। कह सकते हैं कि यह सुबह की पहली खुराक है और आज पहली खुराक में ही अमंगल हो गया। फेसबुक पर मीडिया की एक देवीजी का पोस्ट था- ऋषि कपूर नहीं रहे। सिर पर जोर का हथौड़ा- भाई रे! कल इरफान और आज ऋषि। ऋषि कपूर की 1973 में आई फिल्म बाबी 84-85 में देखी थी। राजा और बाबी यानी ऋषि कपूर और डिंपल कपाड़िया का संगीतमय रोमांस- हम तुम एक कमरे में बंद हों और चाबी खो जाए….। 1973 की सबसे सफल फिल्म। ख्वाजा अहमद अब्बास की लिखी कहानी पर राज कपूर निर्देशित फिल्म।
यह स्वभाव-चरित्र का दोष हो सकता है कि चाकलेटी अभिनेता बहुत नहीं भाते। खुरदरे किस्म के अभिनेता पहली पसंद। पसंद-नापसंदगी से अलग ऋषि कपूर का जाना झटके की तरह है। टेलीविजन के सामने ही बैठ गया- सब आता-जाता रहा। शोक, याद, ट्वीट, पुराने इंटरव्यू के अंश–। अचानक बिजली की तरह कौंधा कुछ, याद आई फिल्म पिपली लाइव। इस फिल्म का एक गीत, जो संभवतः छत्तीसगढ़ी लोकगीत है- चोला माटी के हे राम, ऐकर का भरोसा, चोला माटी के रे— द्रोण जैसे गुरू चले गए, कर्ण जैसे दानी, बाली जैसे वीर चले गए, रावण जस अभिमानी, —– काल केहू के न छोड़े राजा -रंक-भिखारी–। आई एक दिन सबके पारी —यह लोकगीत मन-मस्तिष्क में गूंजता रहा। जुलाई 2010 में पिपली लाइव रांची के सिनेमाघर में देखी थी।
कोरोना का कहर, हर दिल-दिमाग रणभूमि। मौत दर मौत। सब नेगेटिव। खिन्न मन। अच्छा सोचो। अच्छा करो। अच्छा पढ़ों। अच्छा लिखो। सब ठीक होगा। कैसे होगा? धैर्य रखो। मन खुद से सवाल-जवाब करता है। मिनटों नहीं, घंटों। कोशिश करो। अच्छा देखने की कोशिश करो। घना अंधेरा हो, तो समझो, सुबह होने वाली है। यह कोरोना भी जाएगा। समय की बात है। हां, यह तो है। पर यह भी है- जिंदगी किराए का घर है, एक न एक दिन बदलना पड़ेगा—ऐसा क्यों सोचते हो? चार्वाक दर्शन याद करो- जावेत जीवेत सुखम जीवेत, ऋणम कृत्वा घृतम् पिवेत। जीओ यार। छोड़ो दुनियादारी। अस्सी का काशी पढ़े हो? काशीनाथ सिंह वाला। क्या लिखा है उसमें? याद करो—- हम बजाएं हरमुनिया। जिंदादिल बनो, मुर्दे क्या खाक जिया करते हैं। मन की गति! कहाँ-कहाँ घुमा लाया।
कोरोना काल में कुछ तो अच्छा हो रहा होगा। सोचो न। हां, हो रहा है। प्रकृति कर रही है अपना काम। गंगा साफ हो रही है, नर्मदा कलकल बह रही है, दिल्ली में यमुना जल में अब दुर्गंध नहीं है। हरिद्वार में गंगा का पानी तो पीने लायक हो गया है। प्रयागराज में भी जल स्तर सुधर गया है। देश-दुनिया में नदियों का जल पवित्र हो रहा है। यह कैसे हुआ? कोरोना वायरस नहीं आता, तो यह संभव था? नहीं, बिल्कुल नहीं। इसलिए ज्ञानी कह गए हैं, कहते रहे हैं कि हर संकट के पीछे, कुछ वरदान भी होता है। अंधेरे के पीछे प्रकाश छिपा होता है। आवश्यकता है, उस आभा को ढूंढने की ।
क्या सिर्फ नदियों का जल पवित्र हुआ है? नहीं, हवा भी। आज ही एक अखबार ने खबर दी है कि झारखंड की राजधानी रांची की हवा पचास फीसदी साफ हो गई है। ऐसी मनोरम हवा पचास साल पहले थी। इस बार रांची अब तक तपी नहीं है। क्यों हुआ ऐसा? इसलिए कि कोरोना के कारण दुनिया के साथ-साथ झारखंड बंद है। ऐसी खबरें विभिन्न शहरों के संदर्भ में लगातार आईं है और आ रही हैं।
देश-दुनिया में बदलाव की झड़ी लगी है। उन सकारात्मक बदलाव को देखने वाली आंखों की जरूरत है या कहें कि नजरिया बदलने की आवश्यकता है। कैरियर, पैसा की अंधी दौड़ में लगे रहे लोगों ने परिवार को भरपूर समय दिया। यह उनके पारिवारिक जीवन और खुद उनके स्वास्थ्य के लिए सुखकर, प्रीतिकर हुआ। बंधे-बंधाए रुटीन वाले लोगों ने कुछ नया सीखा-आजमाया होगा। पारिवारिक गलतफहमियां दूर हुई होगीं। यह सब भी तो कोरोना की ही देन है। क्या सिर्फ मौत है, जीवन नहीं है?
बाजार बंद है। शराब, सिगरेट, गांजा, तंबाकू को जीवन का अपरिहार्य भाग समझ बैठे लोगों की आदत छूटी है। वे समझते थे कि इन बुराइयों के बगैर जीना मुश्किल है। अब चालीस दिन जी गए, तो आगे भी जीना सीख जाएंगे। यह भी तो कोरोना का अप्रत्यक्ष असर ही है न! परिस्थितियां उतनी खराब कभी नहीं होतीं, जितना हम समझ लेते हैं। संकट का आना महत्व नहीं रखता, सवाल है कि उन परिस्थितियों में हम कैसी प्रतिक्रिया देते हैं। संकट तो आएंगे। कोई भी संकट आखिरी नहीं होता। कोई भी चिंता अंतिम नहीं होती। जब तक चिता नहीं जलती, तब तक चिंता रहती है। इसलिए हे पार्थ! प्रतिक्रिया में सावधानी बरतो। उमंग में जीना सीखो। चिंता से कुछ नहीं होता। तुलसी बाबा कह गए हैं- चिंता से चतुराई घटे, घटे रूप और ज्ञान। चिंता बड़ी अभागिनी, चिंता चिता समान।।
इस कोरोना काल में भी मौत हो रही है। दुनिया में आना-जाना लगा है। इस बीच अनेक समाज ने कोरोना बंद के मद्देनजर मृत्यु भोज का आयोजन नहीं किया। अनेक समाजों ने मृत्यु भोज न करने की शपथ ली है। यह भी एक सकारात्मक बदलाव है। देश-दुनिया बंद है, तो वर्क फ्राम होम का जोर है। यह भी एक सुखद बदलाव है। स्वास्थ्य, सफाई के प्रति सजगता बढ़ी है। घर पहुंच सेवा यानी होम डिलेवरी का जोर है। इस संकट काल में छोटे-छोटे शहरों में एप के जरिए होम डिलेवरी की सफल कोशिश हो गई। यह अब तेजी से बढ़ेगा। भविष्य में इससे समय, श्रम, ऊर्जा, ईंधन की बचत होगी। रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे।
कोरोना के कारण नए-नए आविष्कारों की ओर कदम बढ़ाए गए हैं। नर्सों को संक्रमण से बचाने के लिए वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद ऐसे रोबोट बनाने में जुट गया है, जो नर्स का काम करे। यह भी एक उपलब्धि है। इस कोरोना काल में विदेशों में डिलेवरी ब्याय की जगह रोबोट का उपयोग किया गया। और अब कोरोना कितने दिन? वैक्सीन सितंबर तक आ ही जाएगी। तापमान बढ़ रहा है। रिसर्च बता रहे हैं कि ज्यादा तापमान में कोरोना अधमरा हो जाता है। सो, चिंता कम, रहो बिंदास।
मन का तपना कम हुआ, तो देखा सूर्य का तपना भी कम हो गया। आज दवा ले लेते हैं। चलो, घर से बाहर निकलते हैं। दुकान पर हर कोई दो गज की दूरी पर। दूध दुकान पर भी। पेट्रोल पंप पर भी दूरी। पेट्रोल पंप कर्मचारियों ने दस्ताने पहन रखे हैं। मास्क लगा रखा है। अच्छे हैं जी अपने देश के लोग। थोड़ा समय लेते हैं, पर सीख जाते हैं, संभल जाते हैं।
सूचना आ गई है। टेलीविजन पर रामायण समाप्त होने वाला है। महाभारत भी अंतिम चरण में है। बुलंद रहिए, कोरोना का महाभारत भी समाप्त होने ही वाला है। सुबह के तीन बज गए हैं। कालोनी में सब सो रहे हैं। मुझे भी सोने दीजिए। जय भारत-विजय भारत।
(लेखक दैनिक भास्कर, हरिभूमि, राज एक्सप्रेस के संपादक रहे हैं)