कोरोना काल में शहादत, शराब और शर्म का आलम !

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कोरोना काल में शहादत, शराब और शर्म को शिद्दत से सुनने-समझने और तस्वीरों में देखने का मौका मिला। कहीं भावनाओं के भंवर में उलझा तो कई बार हालात पर हंसी भी आई। पढ़ें, कोरोना डायरी की 11वीं कड़ीः
कोरोना काल में शहादत, शराब और शर्म को शिद्दत से सुनने-समझने और तस्वीरों में देखने का मौका मिला। कहीं भावनाओं के भंवर में उलझा तो कई बार हालात पर हंसी भी आई। पढ़ें, कोरोना डायरी की 11वीं कड़ीः

कोरोना काल में शहादत, शराब और शर्म को शिद्दत से सुनने-समझने और तस्वीरों में देखने का मौका मिला। कहीं भावनाओं के भंवर में उलझा तो कई बार हालात पर हंसी भी आई। पढ़ें, कोरोना डायरी की 11वीं कड़ीः

डा. संतोष मानव
डा. संतोष मानव
  • डा. संतोष मानव

कोरोना डायरी- 11     

शहादत: करुण रस में डूबते-उतराते  रहे दिन भर। रह-रह कर हूक-सी उठी दिल में। काश! आह! ओह! जैसे शब्द  उमड़ते-घुमड़ते रहे। दूसरे रसों का संचार भी यदाकदा हुआ, पर प्रधानता करुणा की रही। पल्लवी शर्मा, इस नाम को हर भारतीय को जानना चाहिए। हां, कश्मीर के हंदवाड़ा में शहीद हुए कर्नल आशुतोष शर्मा की पत्नी। उनकी तस्वीर थी अखबारों में। लिखा था- आशू के लिए आंसू नहीं बहाउंगी। वह देश पर शहीद हुआ। कर्तव्य पथ पर——।  ऐसी भावना! सहज नहीं है,  ऐसा कह भी पाना। टेलीविजन पर देखा- आंखों की कोरों में भरे थे आंसू। दद्दा  माखनलाल चतुर्वेदी की कविता के अंश झकझोरने लगे- मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर देना तुम फेंक। मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जाएं वीर अनेक। दिन भर कवि, संत, गायकों, शुभचिंतकों की छाया आती-जाती रही।

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शराब: एक अंकलजी थे। चचा जान।  चाचाजी। चचवा। कुछ भी कह लीजिए।  पटनिया थे। यानी पटना में रहते थे। लिखने-पढ़ने का काम करते थे। अच्छा-भला लिखते थे। मुंबइया लहजे में बोले तो झक्कास। उन दिनों  हम तीन-चार लोग एक महानगर में इकट्ठे रहते थे। सब के सब कुंवारे। चचा हम में से एक के सगे चाचा थे। इसलिए हम सभी उन्हें चचवा ही कहते। चचवा आर्थिक मामलों में आलादर्जे के ईमानदार थे। मृदभाषी-मितभाषी। व्यवहार भी उम्दा। सबकी उनसे अच्छी पटती थी। वे कभी-कभार  आते।  हमलोगों के पास ही टिकते। तीन-चार दिन में वापस पटना। वे साथ में हमेशा एक डायरी रखते। उसमें लिखते थे कविता- सोनचिरैया तुम मादा हो…तुम्हारी…। ऐसा ही कुछ-कुछ-कुछ। पूछते कैसी कविता है। हम कहते- एक नंबर। चचवा अब नहीं हैं। चले गए। जब वे गए, उस समय जाने की उम्र नहीं थी उनकी। पर गए!

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सुबह-सुबह चचवा की याद आ गई। इस कोरोना काल में चचवा की याद? हैरत की बात नहीं है। याद आनी ही थी। चालीस दिनों के बाद, कोरोना बंदी के बीच देशभर में थोड़ी छूट मिली थी। हम जानना चाहते थे कि देश का हालचाल कैसा है? न्यूज चैनल वालों ने दिखाया और बताया कि  शराब दुकानों के सामने तीन-तीन किलोमीटर तक की लंबी लाइन लगी है। यही देखकर-सुनकर याद आए चचवा। एंकर बोल रही थी- मदिरालय खुलने से पहले मदिराप्रेमी आ गए। मदिरालयों की आरती उतारी गई। फूल-माला चढ़ाकर नारियल फोड़े गए। कोरोना काल की शारीरिक दूरी लोग भूल गए। एक-दूसरे पर चढ़े जा रहे थे। दिल्ली, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़—- अनेक जगह पुलिस को लाठी चलानी पड़ी। कुछ जगह दुकान बंद करानी पड़ी। जिन्हें सुरा मिल गई, वे विजेता भाव से घर गए। जो नहीं ले पाए, वे पराजय के अपराध बोध के साथ। ……ओह! कोरोना से अकाल मौतों, बंदी, कष्ट, हाहाकार के बीच सुराप्रेमियो का यह उतावलापन, उनके मदिरा प्रेम ने चचवा की याद दिलाई।

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चचवा जब भी आते, उत्सव के दिन होते। चचाजान प्याले के साथ सोते। सुबह उठते, तो प्याले में जो कुछ बचा होता, गटक जाते। घंटे भर में तीन-चार प्याला गटकने के बाद ही बिस्तर से उठते। एक दिन की बात है। चचा बोले- आज बाहर चलते हैं। सब सहमत।  भाई, आज भोजन नहीं पकेगा। बाहर ही खाएंगे। चचा का दौर चलता रहा। भतीजे भी थोड़ा बहुत साथ देते रहे। एकाध थम्सअप वाला भतीजा भी थे। रात बारह बज गए। एक भतीजे ने आर्डर दिया- चार तड़का, छह जगह, आठ रोटी। चचा चीखे- अरे नहीं बुरबक। पैसा बरबाद मत करो। इसकी भी बुला लो—। तो ऐसे थे चचा। मदिरा पर पैसा सदुपयोग और भोजन पर बरबाद। सुबह की भीड़, पागलपन  दिन भर  चचा की याद दिलाती रही।

जब पूरा देश कोरोना से बेइंतहा परेशान-हलकान, तब मदिरा के लिए मारामारी! मतलब आप सेंसलेश आदमी हैं। देश-दुनिया से आपको मतलब नहीं। आप मदिरापान के लिए जीवित हैं? आपके व्यसन नहीं, बेवकूफी पर प्रश्न है। ऐसा एडिक्शन!  मदिराप्रेमियों की बेवकूफियों, मतिभ्रम पर सिर पीटने की इच्छा हुई, वैसी ही इच्छा दो दिन पूर्व भी हुई थी, जब सीमेंट-रेत-गिट्टी मिक्स करने वाली मशीन कहें या वाहन में यात्रा करते अठारह मजदूर पकड़ाए थे। लोहे के बंद डब्बे में महाराष्ट्र से उत्तर प्रदेश तक की यात्रा। यह तो अच्छा हुआ कि वे इंदौर के पास पकड़े गए, नहीं तो पता नहीं क्या होता? यहाँ मजदूरों की बेबसी थी, वहां बेवकूफी। नासमझ मदिराप्रेमी।

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क्या यह मान लिया जाए कि मदिराप्रेमी होते ही हैं बेपरवाह, सेंसलेश? सरकार-प्रशासन को चाहिए था कि दुकान खुलने से पहले वह सोशल डिस्टेंसिंग बरकरार रहे, इसकी व्यवस्था कर ले? हम तो कहेंगे कि प्रेमी और प्रशासन दोनों को थोड़ी सावधानी बरतनी थी। नहीं बरते, तो अब बरत लें। ऐसा नहीं करेंगे तो अब तक की बंदी के जाया होने का खतरा बना रहेगा। सुराप्रेमियों के बहाने कबीर बाबा भी याद आए। सुनिए- अवगुण कहूँ शराब का, ज्ञानवंत हो सुन ले। मनुष्य से पशु करे, द्रव्य गांठी का खोया- अर्थात हे ज्ञानी!   शराब में अवगुण बहुत हैं। यह आपको मनुष्य से पशु बना देगा और जमाधन भी गवां देंगे। हरिवंशराय बच्चन की  काव्य रचना मधुशाला की दो-चार पंक्तियां भी याद आईं। सुनिए- मुसलमान और हिंदू हैं दो, एक मगर उनका प्याला। एक मगर, उनका मदिरालय, एक मगर उनकी हाला। —-बैर बढ़ाते मस्जिद-मंदिर, मेल कराती मधुशाला। बैर बढ़ाने का पता नहीं, पर हेलमेल के प्रमाण दिख जाते हैं।

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शर्म : पूरी दुनिया में हाहाकार। और इस बेशर्म पाकिस्तान को देखिए। इस काल में भी आतंकियों को घुसपैठ कराने पर तुला है। सच में, यह आतंकी देश ही है। क्या पाकिस्तानियों तुम्हें शर्म आती है कि किस जहन्नुम में रहते हो?  लो फिर चचवा की याद- ऐ छोड़ो न खाना, बेकार में पैसा। एक और मंगा लो। अच्छा रहेगा–। एक सहकर्मी था। अच्छा-भला। बेबाक। बेलौस। बहादुर। बगल वाली सीट उसकी थी…. क्यों, फिर तुम आज? क्या करें बे,—-बिना इसके कलम नहीं चलती। शराब की दुर्गंध। पान से कहाँ दबती। ओओअइ…। ओह, तुम यार अलग बैठा करो। चुप बे। ऐसा है क्या? वह सहकर्मी भी अब नहीं है। बहुत पहले चला गया। काश! वह कहता- गालिब छूटी शराब। कहाँ? साली, यह कोरोना भी नहीं छुड़ा सकी—-।

(लेखक दैनिक भास्कर, हरिभूमि, राज एक्सप्रेस के संपादक रहे हैं)

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