कोरोना के इस दौर में जहां बहुत कुछ थम-सा गया है, वहीं राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित श्रीराम डाल्टन अपनी फिल्म ‘बसंत का वज्रनाद’ लेकर आ रहे हैं। बसंत का वज्रनाद कहें या स्प्रिंग थंडर- दोनों ही नाम इस फिल्म के लिए सार्थक हैं। फ़िल्म जल्दी ही रिलीज होने वाली है।
वर्तमान समय में जहां फिल्में सिर्फ मनोरंजन और व्यवसाय का जरिया बनी हुई हैं, ऐसे में बहुत ही कम ऐसे निर्देशक हैं, जो फिल्मों के जरिये विमर्श की जमीन तैयार कर रहे हैं। श्रीराम डाल्टन एक ऐसा ही नाम है। इससे पहले सिर्फ उनका नाम ही सुना था। कुछ समय से उनसे सोशल मीडिया के जरिये जुड़ा हूँ।
उनके द्वारा निर्देशित इस फिल्म की बात करें तो इसके केंद्र में 80 के दशक के अविभाजित बिहार की राजनीति और आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन की लड़ाई है। छोटी-सी फिल्म है, लेकिन अपने बुनावट में कसी हुई है। एक तरह से यह मंच पर या सड़क पर खेले जाने वाले नाटक की तरह है। जो अपने दर्शकों से संवाद करती हुई चलती है।
छोटे-छोटे किरदारों के जरिये इस फिल्म ने बहुत बड़े फ़लक को छूने की कोशिश की है और उसमें कामयाब भी हुई है। मैं फिल्म निर्माण से जुड़ी तकनीकी खूबियों और खामियों के बारे में तो नहीं जानता, लेकिन एक दर्शक के नजरिए से कह सकता हूँ कि यह फिल्म अपने समय के ज्वलंत सवालों को लेकर चलती है। वे सवाल, जो आज हर आदिवासी पूछना चाहता है अपने प्रतिनिधियों से। आखिर विकास के नाम पर कब तक उन्हें उनकी ज़मीन व जंगलों से विस्थापित किया जाता रहेगा।
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यह फिल्म पलामू जिले को केंद्र में लेकर चलती है। पलामू, जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए विख्यात रहा है। वह भारतीय राजनीति और विकास के चक्रव्यूह में फँसकर किस तरह बिखरता है और फिर खड़ा होता है। जमीन अधिग्रहण कानून के तहत आदिवासियों की ज़मीन पर कब्जे की पूंजीवादी षड्यंत्र को बड़ी साफगोई से परत दर परत उधेड़ती है यह फिल्म। जिस समाज को अभी तक हिन्दी फिल्म जगत में रोमांटिसिस्म के नजरिए से देखा जाता रहा है, उस नजरिए को तोड़ने का प्रयास है यह। इस फिल्म के सभी कलाकारों एवं श्रीराम जी को हार्दिक बधाई देता हूँ। आप सभी ने बेहतरीन काम किया है।
- दीप प्रकाश
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