शुक्रवार को रेल की पटरियों पर सोये जो 16 मजदूर कट-मर गए, उन्हें कोरोना ने नहीं नियति ने मारा है। ये इसलिए मरे, क्योंकि ये दरिद्र हैं। दरिद्रता दुनिया का सबसे बड़ा दुख है। कोरोना से पहले इस दरिद्रता को मारना होगा, है कोई दवा? पढ़िए, शुक्रवार को लिखी वरिष्ठ पत्रकार डॉ. संतोष मानव की कोरोना डायरी।
नींद खुली ही थी कि कारवां उजड़ जाने की मनहूस खबर मिली। वह कारवां जो चला था, महाराष्ट्र से मध्यप्रदेश के लिए। दिल कांप गया। सुबह-सुबह ऐसी खबर! मजबूर मजदूर महाराष्ट्र के औरंगाबाद से मध्यप्रदेश के उमरिया, शहडोल— के लिए, अपने घर के लिए, पांव-पांव निकले थे। 40 किलोमीटर के बाद थक गए। भूख लगी। साथ लाई रोटियां-चटनी हलक में उतारा। प्लास्टिक की बोतलों में उबलता गर्म पानी गट-गट, गटक गए। लोहे की पटरी को तकिया और पत्थरों को बिछावन समझ सुस्ताने लगे। खुला आसमान आशियाना था। सांप-बिच्छू, कीड़े-मकोड़े संगी-साथी। दोस्तो से क्या डरना? नींद नहीं, झपकी लगी ही थी कि मालगाड़ी आई, 16 को काट गई। चार जिंदगी के लिए मौत से जूझ रहे हैं। कारवां उजड़ गया। चले थे घर, पहुंच गए अंतिम घर। दिमाग सुन्न। हे ईश्वर! ये कोरोना कैसे-कैसे दिन दिखाएगा?
सुबह ही नहीं, दिन भर खबरें- ऐसी ही खबरें आईं। आती रहीं- जम्मू, अंबाला, आसनसोल—–। मजदूर घर जाना चाहते हैं, पुलिस रोक रही है। डंडा, दर्द, बेबसी, बेचैनी, छटपटाहट, आंसू, तड़प—-। हंगामा बरपा है। रट एक ही है- अपने घर जाने दो। नहीं तो गोली मार दो। यहां क्या करें? काम नहीं, रोटी नहीं, छत नहीं। मरेंगे तो अपने गांव में। सोशल मीडिया गरम है- प्रधानमंत्री जवाब दें। विपक्ष गुस्से में है- यह दुर्घटना कम, हत्या ज्यादा है। बंद करो टेलीविजन। मोबाइल कर दो स्वीच आफ। उठाओ, सुबह से बसियाता अखबार। वहां मिले शायद जिंदगी की खबर! यहाँ तो मौत और आंसू हैं। पर वहां भी यही सब। मुंबई से उत्तर प्रदेश लौट रहे तीन मजदूर सड़क दुर्घटना में मारे गए। और यह भी- मुंबई से उत्तर प्रदेश पैदल जा रहे निसार अहमद बड़वानी के पास चक्कर खाकर गिर पड़े। मौत।
मेरा मन सुबह से कह रहा है- न दुर्घटना, न हत्या, यह सब नियति है। हां, यह नियति ही है। महाभारत में यक्ष युधिष्ठिर से पूछता है, सबसे बड़ा दुख क्या है? युधिष्ठिर का जवाब था- दरिद्रता। हां, सारे दुखों की जड़ यही है। दरिद्र न होते, तो पटरियों पर सोते ही क्यों? पटरियों का बिस्तर? सरकारें आएंगी-जाएंगी। कोरोना भी जाएगा-आएगा। लेकिन, दरिद्रता? कोरोना से पहले इस दरिद्रता को मार डालो। है कोई दवा? दरिद्रता मिटाने तो गए थे औरंगाबाद। अमीरी लाने तो गए थे लुधियाना, मुंबई, बेंगलुरु, —–। न ला पाए, न मिटा पाए। जो पाया, वह है मौत, आंसू, बेइंतहा कष्ट, आंसू, डंडा—– हे ईश्वर! तुम कहाँ हो? हो या नहीं हो ?
क्या ईश्वर अब हरिश्चन्द्र, शिवि, कर्ण— नहीं बनाते। क्या माताओं ने दिल वाले, धर्मवीर, दानवीरों को जन्म देना बंद कर दिया? हां, ऐसा ही है। ऐसा न होता, तो ये धनपति, ये आधुनिक राजा-महाराजा, कुबेरों के दिल पत्थर के क्यों होते? लाकडाउन क्या हुआ, समेट लिए हाथ। बंद कर लिए दिल के दरवाजे। घरों के तो पहले ही बंद थे। जिन मेहनतकशों ने तुम्हारी फैक्टरी आबाद की। जिनके पसीने की बदबू से तुम्हारे घरों में खुशबू फैली। जिनकी मेहनत ने तुम्हें मातबर बनाया, जिनके धैर्य ने तुम्हें धनवान बनाया, एक लाक डाउन में तुमने उनकी जिदंगी ही लाक कर दी। झटके में पटक दिए सड़क पर- जाओ, अब काम नहीं। माना कि रक्त संबंध नहीं, पर कुछ तो थे तुम्हारे। कामगार नहीं, कंडोम थे कि यूज किया और नाली में फेंक दिया? संभाल लेते, माह-दो माह। एक तो कोई होता, जो सामने आता। चीखकर कहता- कामगार मेरे भाई। मेरा अपना। जब तक लाक डाउन, पूरा वेतन दूंगा। एक भी नहीं। सब के सब? ये तो असंगठित क्षेत्रों के कामगार थे- हैं, जो तथाकथित संगठित हैं, वहां भी यही हाल है। वेतन कटौती, छंटनी–। कल से नहीं आना। आदमी न हुए, रबड़ हो गए। बुरा हाल है। जिंदगी मदारी का खेल हो गई। बंदर हो गया मजदूर। जब चाहा खेल दिखाया, जब चाहा, पिछवाड़े पर लात। ऐसा तो मदारी भी नहीं करता।
ये ऊपर वाला भी बेईमान हो गया है। उसके दरबार में भी न्याय नहीं। झूठी हैं सारी कहावतें। झूठ हैं सारी कहानियां। भगवान भी उन्हीं का है, जो समर्थ हैं। जो दरिद्र हैं, उसके नहीं हैं नारायण। नारायण भी आजकल महलों में रहते हैं। खाए होंगे राजा राम ने शबरी के जूठे बेर। कहा होगा मां। अब राजा शबरी को नहीं जानते। नाश हो ऐसी दुनिया का।
औरंगाबाद का सारा गुस्सा सोशल मीडिया में उतर रहा। टेलीविजन पर गुस्सा नहीं है। है तो बस, नाम भर। कल, अखबारों में भी नहीं होगा। जो जानते हैं अखबारों, टेलीविजन का अर्थशास्त्र, वे समझते हैं कि वहां आग/ गुस्सा क्यों नहीं होगी? कोई कुछ भी कहे, कोई किसी पर आरोप लगाए। कुछ नहीं होगा। तुम निकाल लो आंसू, पीट लो छाती। लोट लो धूल में। कोस लो सरकार को। व्यवस्था पर गुस्सा उतार लो। कुछ भी कर लो, कुछ नहीं होगा। जो दरिद्र हैं, वे हमेशा मारे जाएंगे। कभी करोना, कभी इबोला, कभी साइक्लोन, कभी कुछ— ऐ तुच्छ दरिद्र तू मरने के लिए ही पैदा हुआ है। तेरी नियति है आंसू बहाना। बहा ले, कब तक बहाएगा। आंसुओं का समंदर बना ले। कुछ नहीं होगा। मरेगा तू। हां, तू दरिद्र है इसलिए। जीना है, तो पहले इस दरिद्रता को मार डालो।
ये राजनीतिक पार्टियां, ये नेता बोलेंगे अभी। खूब बोलेंगे। तेरे संग दो-चार आंसू की बूंदें भी टपका लेंगे। पर याद रखना, ये तेरी नहीं, अपनी दरिद्रता मिटाने के लिए तेरी दरिद्रता का सवाल उठाएंगे। ये जाति, उपजाति, गोत्र, भाषा, धर्म की बात करेंगे। तू दरिद्र का दरिद्र रहेगा। ये अमीर हो जाएंगे। तू भोला है, नहीं सुधरेगा। हजारों बार छला गया, फिर छला जाएगा। दरिद्र का दरिद्र कहलाएगा। मरना ही तेरी नियति है।
देख, तेरी हालत से दहल गए हैं हजारों। पर होगा क्या? सबकी मर्दानगी तेरे सवालों पर बुझ जाएगी। सुन गजल सुन। पढ़़ अखबार पढ़। सुन भाषण सुन। देख न्यूज देख। देख- रहनुमा कितने दुखी हैं। दो-चार, सप्ताह की बात है। कोरोना चला जाएगा। पर खुश न होना। फिर कोई दूसरा वायरस आएगा। तब भी तू ही मरेगा। तुझे जीने का अधिकार नहीं है। दरिद्रो, सुन- गिड़गिड़ाने का यहां असर होता नहीं, पेट भरकर गालियां दो, आह भरकर बद्दुआ। जो तेरी मौत, तेरी बेबसी, तेरी दरिद्रता के कारक हैं, उन्हें आज जी भरकर गालियां दे। जा रहा हूं भरी दोपहरिया में सोने। नींद में मैं भी दूंगा गालियां। मनाऊंगा तुम सब की मौत का शोक। नींद में ही। जगे में नहीं! नींद में।
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शाम हो गई है। सब कलमबाजों, कलमकारों ने तेरी मौत का शोकगीत लिख दिया है। मर्सिया पढ़ लिया है। मैं भी। हां, मी टू। मैंने जाना। अभी पढा़। डायन कोरोना ने देश में अब तक लिए हैं लगभग उन्नीस सौ प्राण। जानते हो, तुम बेबस, बेकसूरों ने राह में, राह की दुर्घटनाओं में कितनी संख्या में गवाएं हैं प्राण? लगभग चार सौ। अब तक कोरोना से मौत का लगभग बाइस प्रतिशत। सब कामगार, सब मजदूर, सब प्रवासी मजदूर। देखो, बहस तेज हो रही है। दिन-दो दिन। फिर आ जाएगी, तुम्हारे ही भाई-बंधुओं की दूसरी खबर। फिर औरंगाबाद को भूलकर, किसी दूसरे शहर की घटनाओं, दुर्घटनाओं, मौतों पर करेंगे बहस। लिखेंगे-पढ़ेंगे मर्सिया। इसलिए कि मौत तेरी नियति है। और मौत का मर्सिया पढ़ना-लिखना हम जैसों की नियति। तू भी मजबूर। हम भी आदत से मजबूर। आबहू, सब मिली रोबहूं भारत भाई। ये कोरोना से दुर्दशा अब देखि न जाई।
(लेखक दैनिक भास्कर, हरिभूमि, राज एक्सप्रेस के संपादक रहे हैं)
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