कोरोना डायरी- हर रोज एक नया अनुभव, नयी समझ। वरिष्ठ पत्रकार डॉ. संतोष मानव इस कोरोना काल में हर रोज के अनुभव डायरी के पन्नों पर उकेर रहे हैं। उन्होंने समाज और देश के साथ अपनी चिंता भी की है। उनके अनुभव आपको झकझोरेंगे। प्रस्तुत है डायरी की दूसरी कड़ी।
- डॉ. संतोष मानव
खिड़की से धूप झांक रही थी। आंखें खोली। उठने की इच्छा न थी। फिर आंखें फिर मूंद ली। करना क्या है जागकर? वैसे भी मच्छरों ने सोने कहाँ दिया है? हम शहरी मच्छरदानी नहीं लगाते। गुडनाइट, आल आउट, मैक्सो, ओडोमास यूज करते हैं। कोरोना काल में इन सब का अकाल है। दवा दुकान वाले कहते हैं- ये सब आवश्यक वस्तुओं में नहीं आते, इसलिए आपूर्ति बंद है। अभी नहीं मिलेगा। सो, कोरोना काल में एक काल मच्छर भी है। चुसवाइए रक्त। निर्बाध नींद की न सोचिए। अबाध हो या निर्बाध आप देर तक सो भी नहीं सकते। इसलिए हे पार्थ उठ जाओ, रामायण आने वाला है- टेलीविजन पर। इसलिए कुछ वक्त कोरोना डायरी के लेखन में बीते तो बेहतर।
लो, उठ गया। रामायण के राम के आदर्श जीवन की झलक देख ली। ई-पेपर देख लिया। सारी खबरें कोरोना की। होता भी क्या? सब तरफ कोरोना जो है। कहाँ जाए आदमी? बाजार बंद। कार्यालय बंद। रेल बंद। सब बंद। ऐसी बंदी! देश के इतिहास में पहली बार। कदाचित मानव सभ्यता के इतिहास में भी पहली बार। देश तो देश, दुनिया के अनेक देश बंद हैं। कोरोना मानव को समाप्त करने पर तुला है। मानव जाति को इतनी कठिन चुनौती कदाचित पहली बार मिली है। चीन से निकले इस विषाणु से दो-चार देश ही बच पाए हैं।
इस विषाणु को निकलना भी चीन से ही था। पिछले विषाणुओं के नाम याद कीजिए और उनकी उत्पत्ति कहाँ से हुई है, ढूंढ़िए, तो आश्चर्य होगा कि अधिकतर की जन्मभूमि चीन है। कारण? यही कि चीनी पत्थर छोड़कर सब खाते हैं। सांप से टिड्डी तक। चमगादड़ से कुत्ता तक। ऐसे ही किसी चमगादड़ से कोरोना की उत्पत्ति की बात सामने आई है। फिर दुनिया भर में फैलाव। यह विषाणु यानी वायरस नया-नया है। इसलिए इससे जनित बीमारियों की दवा फिलहाल नहीं है। प्रयोग जारी है, दवा/ वैक्सीन आ जाएगी तो हाहाकार थमेगा। इससे पूर्व सतर्कता ही दवा है। यह संक्रमण का रोग है। यानी एक से दूसरे में फैलता है। बचाव यही है कि खुद को जितना एक दूसरे से दूर रख सकें, उतना बचाव।
बावजूद इसके गारंटी नहीं है। न शर्तिया गारंटी न शर्तिया इलाज। सरकार बहादुर इसीलिए सोशल डिस्टेंसिंग यानी सामाजिक दूरी की बात कर रहे हैं। इसीलिए लाक डाउन है। घर में बंद रहो। सब बंद कर दो। वह तो गनीमत है कि दूध-दवा का इंतजाम है। यह तो आम आदमी की बात हुई। कामगारों का क्या? वही, जो सो जाता है, फुटपाथ पर अखबार बिछाकर। मजदूर कभी नींद की गोली नहीं खाता- इस कोरोना काल ने सबसे ज्यादा कामगारों को सताया है। उन्हें ज्यादा, जो अपने घर से बहुत दूर थे। रोजगार छूटा, किराए की छत छूटी, बस, रेल सब बंद। जेब में पैसे नहीं। क्या करते? चल पड़े पैदल। कई मर-खप गए। 30 दिन बाद भी सिलसिला जारी है।
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सरकारों ने भी दरियादिली कम ही दिखाई। जिन्होंने भी दिल्ली में आनंद विहार, मुंबई में बांद्रा, सूरत, बेंगलुरु, अहमदाबाद का दृश्य देखा। हैरान, अवाक रह गए। पत्थर दिल भी पसीज गए। नुकसान तो सबका हुआ। किसी की आजादी छिनी। किसी का व्यापार गया। किसी को घाटा हुआ, हो रहा है। किसी की नौकरी गई। पर जो सबसे ज्यादा पिसे, उसे कामगार कहते हैं। उनकी पीड़ा आपकी भी है। देशकाल की घटनाएँ-दुर्घटनाएं चिंता में डालती ही है। मन बेचैन होता ही है। अखबार, टेलीविजन, मोबाइल बांध नहीं पाते। मन हिरण की तरह उछलकूद करता है। कभी यहाँ-कभी वहाँ। यह तो ऐसा, वह तो वैसा। बंधा रुटिन चल नहीं पाता। कभी समाचार, कभी कुकरी शो, कभी फिल्म… और कहीं मन न बंधे तो बिस्तर। पर वहाँ भी कितनी देर? कितना सोएंगे आप? और जबरिया आंख मूंद भी लो, तो आवाज आएगी- अथ श्री महाभारत कथा। दोपहर और शाम। और जब मन के अंदर महाभारत हो, तो छोटे परदे का महाभारत कम ही बांधता है। मन की अशांति, आंखों को भी अशांत कर देती है। कितने महाभारत हैं- जान के डर का महाभारत, सावधानी का महाभारत, घर-परिवार का महाभारत, नौकरी-व्यापार का महाभारत, ईएमआई का महाभारत…। बैठे हैं टेलीविजन के सामने और मन कहीं और है। भीष्म कुछ बोले, कर्ण ने कुछ कहा, लेकिन कहा क्या? ध्यान नहीं। यह है कोरोना और उससे उत्पन्न भय!
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किसी महान पुरुष की जीवनी पर भी नजर कहाँ ठहरती है। पन्ना दर पन्ना पलट लीजिए। याद कुछ नहीं। उस दिन लोहिया की जीवनी के दस पन्ने पलट गया। पर याद इतना रहा कि उनकी पार्टी के कोई नूर मोहम्मद थे, जमींदार थे। उन्होंने विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से पहले लोहिया जी के कहने पर अपनी सारी जमीन दान कर दी थी। तो ऐसा है कोरोना काल। मतिभ्रम के बीच मोबाइल बज भी जाए, तो समझिए, चिंता की बात ही होगी। उस दिन मोबाइल पर एक शुभचिंतक का कातर स्वर था- सर, पैसा-कौड़ी खत्म। कब सुधरेंगे हालात? क्या जवाब देता? कहा- धीरज रखिए। सब ठीक हो जाएगा। यह नहीं कह पाया कि जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए। कभी टेलीविजन, मोबाइल से चिढ़़ होती है। एक जैसी खबरें। सौ शहर, सौ खबर और सारी खबरें कोरोना की। अखबार में भी वहीं। वे भी आखिर क्या दिखाएं? कभी मन कहता है-नयह न हो तो कोरोना काल में जीना पहाड़ हो जाए!
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टेलीविजन के महाभारत- रामायण ही इस काल में संबल बने हैं, खासकर महिलाओं के। उन्हें बेकार कैसे कहा जाए? उनके छह घंटे आदर्श, संस्कार, संघर्ष, मिलना-बिछुड़ना, लोभ- माया, साहस, पराक्रम, जय-विजय में लग जाते हैं। यहाँ इसकी उपादेयता पर बहस बेमानी है। समय का सच यह है कि तीस साल बाद इन धारावाहिकों के प्रसारण ने हजारों-लाखों के ओह! आह को कम किया है। है कि नहीं?
(कोरोना डायरी के के लेखक दैनिक भास्कर, हरिभूमि, राज एक्सप्रेस के संपादक रहे हैं)
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