- डॉ. संतोष मानव
कोरोना संक्रमण शहरों से अगर गांवों तक पहुंच गया, तो क्या होगा? हाहाकार और क्या? इस हाहाकार के लक्ष्ण दिखने भी लगे हैं। उम्मीद करनी चाहिए कि ऐसा न हो। पर, हालात तो ऐसे ही बन रहे हैं। कोरोना अब तक शहरों में था, लेकिन जिस बदहवासी के साथ शहरों से कामगारों का पलायन गांवों की ओर हो रहा है, उसके परिणाम अच्छे होने की उम्मीद कम ही हैं। और जिस तरह सरकार अर्थव्यवस्था की चिंता में दुबली हो रही है, वह भी गांवों तक कोरोना पहुंचाने में मददगार होगा।
एक छोटा-सा उदाहरण देखिए- झारखंड का कोडरमा जिला। कोरोना का एक मरीज मिला था। वह ठीक हो गया। लगभग एक माह बाद चार कोरोना पाजिटिव मिले। ये सूरत से आए मजदूर हैं। भला हो कोडरमा के अधिकारियों का कि ये मजदूर क्वारंटाइन सेंटर में रखे गए थे। अगर अपने गांव-घर पहुंच गए होते तब? यह एक उदाहरण था। 51 दिनों के बाद कुछ ट्रेन दौड़ी हैं। धीरे-धीरे ट्रेनों की संख्या बढ़ती जाएगी। उम्मीद कीजिए कि मेल-एक्सप्रेस ट्रेन चलाने की घोषणा भी हो ही जाएगी। मतलब आवागमन तेज होगा और कोरोना को भी पंख लगेंगे। कहाँ-कहाँ क्वारंटाइन सेंटर और कितने होंगे? लोग सीधे गांव-घर जाएंगे ही और साथ जाएगा कोरोना। लेकिन, इसके लिए दोषी किसे कहा जाए?
लाक डाउन रखेंगे तो लोगों का जीना दूभर हो जाएगा। बेकारी, बेरोजगारी, भूख, अवसाद से लोग मरेंगे। लाक डाउन हटाएंगे तो कोरोना से मरेंगे। मरना दोनों ही सूरत में है। अब तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि आशंका है कि कोरोना, एड्स की तरह हमेशा बना रहेगा। उधर एक सर्वे का कहना है कि अगर 17 मई के बाद एक सप्ताह और लाक डाउन रहा, तो देश की 33 फीसदी आबादी के खाने-पीने की समस्या होगी। अब समझिए कि कोरोना ने क्या कर दिया है। संदर्भ अलग है पर आप सुनिए।
जवानी में विवाह को लेकर विवाद होता, तो एक मित्र कहता- शादी ऐसा लड्डू है, जो खाए वह पछताए और जो न खाए, वह भी पछताए। जब पश्चाताप करना ही है तो क्यों न विवाह करके पश्चाताप करें। कोरोना ने ऐसा ही कुछ कर दिया है। बंदी रखें, तो दिक्कत और न रखें तब भी दिक्कत! कदाचित इसलिए प्रधानमंत्री ने भारी-भरकम पैकेज की घोषणा की है और कह दिया है कि लाक डाउन पार्ट फोर भी रहेगा, लेकिन, ज्यादा छूट-राहत के साथ। सही भी है, आखिर कब तक देश को बंद रखा जा सकता है? पर सच मानिए, अपना ध्यान पैकेज से दूर रह-रहकर मजदूरों की ओर जाता है। स्पेशल ट्रेन, स्पेशल बस, प्राइवेट गाड़ियों-साइकिल, टेंपो, ट्रक, स्कूटी, स्कूटर, बाइक, ट्राला-ट्राली के बावजूद मजदूरों का रेला रुक ही नहीं रहा। वे चले जा रहे, भागे जा रहे, जैसे भी- पैदल, साइकिल, रिक्शा, ठेला कुछ भी। बस, चलो गांव की ओर। पांव में छाले, खाली पैर। पैर जलने लगे तो पानी की बोतलों से बनाए जुगाड़ चप्पल। बस, किसी तरह अपने घर पहुंच जाएं। साथ में बाल-बच्चे। मोटरी-टोकरी। लगता है अब महानगरों में मजदूर मिलेंगे ही नहीं। शहर खाली हो जाएंगे? कारखानों में कौन काम करेगा? क्या ये लौट आएंगे?
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इस भागमभाग में जान भी जा रही है। दुर्घटना, अवसाद, आत्महत्या—। एक अखबार ने खुलासा किया है कि 5 मई तक 418 मजदूर भागमभाग में मर गए। इधर दुर्घटना की अनेक खबरें हैं। फिर अनेक का पता ही नहीं चलता, वे रिकार्ड में नहीं आ पाते। मानकर चलना चाहिए कि कोरोना ने अबतक जितनी जान ली है, कम से कम उससे आधी जान भागमभाग में भी गई है।
भागमभाग तक तो मन स्थिर रहता है, पर रास्ते की करुण कहानियां दिल तोड़ देती हैं। अलीगढ़ से एक कहानी आई है। सुनिएगा तो मन पसीज जाएगा। मान कुमारी चंडीगढ़ में रहती थी। पति के साथ मजदूरी करती थी। लाक डाउन जब बरदाश्त नहीं हुआ, तो पैदल चल पड़ी मध्यप्रदेश-अपने घर। नौ माह की गर्भवती। एक सौ अस्सी किलोमीटर चलने के बाद सड़क पर ही प्रसव पीड़ा। बच्चे को जन्म दिया। घंटा-दो घंटा बाद फिर चल पड़ी। रूकती कहाँ? पौष्टिक भोजन, देखभाल? ढाई सौ किलोमीटर और चली। अलीगढ़ पहुंच गई। अभी लगभग हजार किलोमीटर और चलना है। सोचिए, मान कुमारी की पीडा़। कलेजा न फटे ऐसी खबरों से?
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नाम कुछ भी हो, ऐसी मान कुमारियों की खबरें रोज आ रही हैं। बडी़ संख्या में। बस, ट्रक या सड़क पर जन्म। मुंबई से पैदल निकले थे पांच दोस्त। घर पहुंचे तीन या चार। जो रास्ते में हार गए, उधर ही फूंक दिया गया- घर मिट्टी भी न पहुंची। गाड़ी पलट गई। अटैक आया। साइकिल पर थे, गाड़ी वाले ने टक्कर मार दी, डिहाइड्रेशन से मौत हो गई——-। उत्तर प्रदेश के शैलेष मिश्रा मुंबई से अपने घर जौनपुर के लिए पैदल ही निकले थे। मध्यप्रदेश के सिहोर तक ही पहुंच पाए। अब जौनपुर कभी न जा पाएंगे। जब उद्योग खुल रहे हैं फिर क्यों भाग रहे हैं लोग? यह सरकारी-प्रशासनिक विफलता है या भावनात्मक उबाल- अब नहीं आएंगे शहर? चाहे कुछ भी हो जाए!
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मुंबई में तीन हजार की साइकिल छह हजार में मिल रही है। बिहारी किसी भी दाम पर साइकिल लेने पर आमादा हैं। व्यापारी मौके का फायदा उठा रहे हैं। बिहारियों को जाना है गांव। साइकिल से जाएंगें दो हजार-तीन हजार किलोमीटर! क्या कहें- जिअ हो बिहार के लाला— या और कुछ। दस ने मिलकर पच्चासी हजार में लोडिंग आटो किराए पर ली। जुगाड़ से उसे डबल डेकर बनाया। चल दिए ढाई हजार किलोमीटर की यात्रा पर। सब कह रहे हैं कि अब शहर नहीं आएंगे, गांव में ही कुछ करेंगे। क्या सच में शहर नहीं आएंगे? क्या कोरोना शहरों को वीरान कर देगा?
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आज दो व्यक्तियों की चर्चा
भागीरथ मिश्रः बिहारी हैं। सरकारी सेवा में थे। रिटायर हुए तो प्रयागराज में बस गए। नि:संतान हैं। इसलिए दो लाख रुपए अंतिम संस्कार के लिए रखा था। कोरोना काल में एक लाख मुख्यमंत्री कोष और एक लाख प्रधानमंत्री फंड में डाल आए। कहा कि देश संकट में है, तो अपना भी कुछ फर्ज बनता है।
प्रदुम्न सिंह तोमर: पंद्रह माह की कांग्रेस सरकार में मंत्री थे। ग्वालियर से विधायक चुने जाते हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ भाजपा में चले गए। न मंत्री रहे न विधायक। इन दिनों सोशल मीडिया पर हर रोज वीडियो वायरल होता है, जिसमें वे गली-मुहल्ले को खुद कंधे पर मशीन लादकर सेनीटाइज करते दिखते हैं। मंत्री रहते कमर भर कीचड़ में उतरकर नाली साफ करते हुए भी दिख चुके हैं। मध्यप्रदेश में तोमर का सेवाभाव और सिंधिया के प्रति भक्ति भाव ख्यात है।
(लेखक दैनिक भास्कर, हरिभूमि, राज एक्सप्रेस आदि अखबारों के संपादक रहे हैं)
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