क्या आप जानते हैं कि चर्चित साहित्यकार मुद्राराक्षस भी चुनाव लड़े थे

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मुद्राराक्षस
मुद्राराक्षस
  • नागेन्द्र
नागेंद्र प्रताप
नागेंद्र प्रताप

क्या आप जानते हैं कि चर्चित साहित्यकार मुद्राराक्षस भी चुनाव लड़े थे और तमाम लहर और सहयोग के बावजूद 1200 वोटों से संतोष करना पड़ा। साथी लेखक-मित्रों की तमाम आशंकाओं और खुद वोट न देने के बावजूद वे इतना वोट पाने में सफल हुए थे। ये अलग बात है कि अपने इन 1200प्रेमियों को लेकर मुद्राजी खुद भी लम्बे समय तक चुहल करते रहे थे कि आखिर उन्हें वोट देने वाले ये थे कौन लोग। मुद्राजी का चुनाव लड़ने का फैसला भी चुहलबाजी में ही हुआ था।

1984 की बात है जब इंदिरा जी की हत्या के बाद देश में आम चुनाव हुए, और ये चुनाव तमाम कारणों से महत्वपूर्ण हो गए थे। यही वह चुनाव थे,जिसमें कांग्रेस ने भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास की सबसे बड़ी जीत हासिल कर 401 सीटों पर कब्जा किया था। यह अब तक की किसी भी दल की सबसे बड़ी जीत भी है।

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लखनऊ के ऐतिहासिक काफी हॉउस में बैठे कुछ लेखक मित्रों ने एक शाम बातों ही बातों में पहले तो उन्हें चुनाव लड़ने के लिए चढ़ाया, लेकिन जब मुद्राजी वाकई गम्भीर हो गए तो सभी बगलें झाँकने लगे। फिर तो कुछ ऐसा हुआ कि उन्हें समझाने की सारी कोशिशें धराशाई हो गईं और मुद्राजी इन्हीं लेखक मित्रों के साथ नामांकन भी दाखिल करने गए। इत्तिफाक यह भी रहा कि उसी दौरान मुझे लखनऊ में दैनिक जागरण छोड़कर पटना में’पाटलिपुत्र टाइम्स’ की लांचिंग टीम का सदस्य बनने का मौका मिला और मुझे मुद्राजी के उस चुनाव के जीवंत आनंद को छोड़कर पटना जाना पड़ा। मुद्रा जी से मैंने जब पटना से फोन पर उनकी ‘विजय’ के लिए शुभकामनाएं दीं तो मुद्रा जी अपने ही अंदाज में ‘अधर में छोड़ जाने’ का उलाहना देने से बाज नहीं आये। मुद्राजी हंसते हुए इसे ‘कुछ खास मित्रों’ की साजिश कहते थे। हालांकि दिलचस्प यह है कि मुद्राजी को अपने चुनाव में आम लोगों ने प्यार खूब दिया जो छोटी-छोटी राशि के रूप में भी होता था। खैर…

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चुनाव के दौरान ही बाबा नागार्जुन लखनऊ आये तो मुद्राजी उनके सामने भी सहयोग के लिए झोली फैलाकर खड़े हो गए। प्रकृति से कंजूस बाबा नागार्जुन ने जेब से सौ रुपये का नोट निकाला और इस शर्त पर बढ़ाया कि पचास रुपये लेकर बाकी पचास वापस कर दो। लेकिन मुद्राजी ने जब पूरे पैसे रख लिए तो बाबा ने कहा, ‘रख लो, लेकिन जमानत बच जाए तो वापस जरूर कर देना।’

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मुद्राजी ने इस चुनाव के किस्से अपने कई लेखों और  किताबों खासकर आत्मकथात्मक उपन्यास “नारकीय” में बयान किये हैं। इस चुनाव में पहले उन्हें चढ़ाने, फिर उतारने (मनाने) की कोशिश करने वाले उनके लेखक मित्र वीरेंद्र यादव और राकेश बताते हैं कि किस तरह मतदान वाले दिन जब मुद्राजी की कार पर घूमते हुए पोलिटेक्निक स्थित बूथ पहुंचे तो कार से उतरते ही जो पहला शख्स टकराया उसके मुंह से निकला… अरे, आप तो हैंडपंप वाले हैं… (मुद्राजी का चुनाव निशान हैंडपंप था)। यह शायद उस पर्चे का असर था, जो शहर में खूब बंटा था, और स्वाभाविक है कि मुद्राजी का था तो अलग ही रहा होगा। इस पर्चे का सस्वर पाठ तो लखनऊ के तत्कालीन एसएसपी एसपी सिंह ने भी अपनी टीम के सामने किया था। तब ब्रजलाल एसपी हुआ करते थे।

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उस चुनाव के तमाम रोचक प्रसंगों में एक यह भी है कि महानगर इलाके में जब वोट देने निकले वरिष्ठ कवि कुंवर नारायण जी ‘अमृत प्रभात’ के पत्रकार विनोद श्रीवास्तव से टकराए तो उनकी टिप्पणी थी कि “वोट इसलिए भी देना जरूरी है कि मुद्रा एक-एक वोट गिनेगा और अगर 12 वोट भी न मिले तो समझ लेगा कि उसे किसने वोट नहीं दिया होगा।”

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मुद्रा जी ने खुद लिखा है– “इंदिरा गांधी की मृत्य के बाद जो लोकसभा चुनाव हुए, उनमें उम्मीदवारी के लिए मैंने भी पर्चा भरा। यह वीरेंद्र यादव और राकेश जैसे दोस्तों की साजिश थी। हम लोग बड़ी गम्भीरता से यह सोचने लगे थे कि चुनाव जीत लिया जाएगा। इसी लखनऊ में जस्टिस आनन्द नारायण मुल्ला ने स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा था और भारी समर्थन से जीते थे। …पर मेरे लिए यह चुनाव हास्यास्पद घटना बनी। मैं समझ रहा था कि, कम्युनिस्ट पार्टियां और ट्रेड यूनियन मेरा समर्थन करेंगी, पर हुआ इसका उल्टा…। …चुनाव के लिए मेरे पास सिर्फ दो सुविधाएं थीं। एक मेरे ये दोनों मित्र और दूसरी मेरी एक पुरानी मोटर। …मतदान के दिन हम तीनों सारे दिन चुनाव का मेला उसी मोटर पर देखते रहे। मैंने खुद भी मतदान नहीं किया…” (वाणी से प्रकाशित आत्मकथात्मक उपन्यास नारकीय‘ से)

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