देश भर में हुए उपचुनाव के नतीजे 2019 में होने वाले आम चुनाव में विपक्ष के लिए थोड़ी राहत देते दिख रहे हैं। बावजूद यह कहना मुश्किल है कि एका 2019 तक बरकरार रह पाएगी या नहीं । क्योंकि पिछले चार वर्षों में उपचुनाव के नतीजों का जो आंकड़ा रहा है, वह आम चुनाव में फेल होता रहा है।
देश के 10 विधानसभा क्षेत्रों में हुए उपचुनाव के इन नतीजों पर एक नजर डालें तो भाजपा केवल उत्तराखंड के थराली में अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाई है। नूरपुर (उत्तर प्रदेश) में सपा, महेशतल्ला (पश्चिम बंगाल) में टीएमसी, गोमिया व सिल्ली (झारखंड) में झामुमो, जोकीहाट (बिहार) में राजद, चेंगन्नुर (केरल) में सीपीएम तथा अम्पाति (मेघालय), शाहकोट (पंजाब) और आरआर नगर (कर्नाटक) में कांग्रेस ने किला फतह किया है। इस सफलता को विपक्ष 2019 के आम चुनाव में भावी सफलता के आधार बिंदु के रूप में देख रहा है, जो एक स्वाभाविक क्रिया है। मगर विपक्ष को उन पिछले आंकड़ों को नहीं भूलना चाहिए कि जहां उपचुनावों में भाजपा फिसड्डी रही है, वहीं आम चुनावों में वह बाजी मारती रही है।
आम चुनावों में भाजपा की इस सफलता का ठीकरा विपक्ष ईवीएम पर फोड़कर अपनी विपक्षी भूमिका का एहसास तो कराता है, मगर अपनी हार की कमियों पर आत्ममंथन नहीं करता है। विपक्ष की यह लापरवाही भाजपा के लिए सबसे बड़ी ताकत साबित होती रही है।
दरअसल उपचुनावों और आम चुनावों में कुछ मौलिक फर्क होते हैं। उपचुनाव उन्हीं विधानसभा क्षेत्रों में होते हैं, जहां किसी न किसी कारणवश उस क्षेत्र की सीट खाली हो जाती है। जाहिर है कि प्राथमिकता के आधार पर वहां उसी पार्टी का ही पहला दावा बनता है, जिस पार्टी के सदस्य की वह सीट होती है। अत: जब गठबंधन होता है, तब एकाध सीट के लिये पार्टियां और उसके नेता ज्यादा माथापच्ची नहीं करते हैं और गठबंधन सफल हो जाता है, मगर जब आम चुनाव होते हैं, तब सभी दलों और नेताओं को अपनी सीट बढ़ाने का लालच बढ़ जाता है, जिसके कारण भितरघात की संभावना बढ़ जाती है और विपक्ष कमजोर होने लग जाता है।
उदाहरण के तौर पर हम झारखंड को देख सकते हैं। यहां सिल्ली और गोमिया विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव इसलिए हुए कि दोनों क्षेत्रों के झामुमो के विधायक अमित महतो तथा योगेंद्र प्रसाद की सदस्यता रद्द हो गई थी। कोर्ट ने इन्हें किसी मामले में दोषी करार देते हुए क्रमश: दो साल और तीन साल की सजा सुनाई थी। बताते चलें कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार किसी भी मामले में दो साल या इससे अधिक की सजा मिलने पर सांसदों व विधायकों की सदस्यता तत्काल प्रभाव से खत्म हो जाती है़ और सजायफ्ता सांसद या विधायक अगले 10 साल तक चुनाव नहीं लड़ सकते हैं।
कहना न होगा कि जिस तरह से इस उपचुनाव में झारखंड सहित पूरे देश में विपक्ष ने बिना किसी भेदभाव, बिना किसी आपसी कलह और भितरघात के जो एकजुटता दिखाई, उसका परिणाम यह रहा कि भाजपा गठबंधन को हार का मुंह देखना पड़ा। अत: विपक्ष को इस उपचुनाव की सफलता से अति उत्साही होने के बजाय सीख लेनी चाहिए।
- विशद कुमार