- शेष नारायण सिंह
गांधी जी को पत्रकार के रूप में तो पूरी दुनिया जानती है, उस विषय पर बातें भी बहुत हुई हैं। गांधी जी ने पत्रकार के रूप में भी कुछ अलग प्रयोग किये। उन्होंने जिन अखबारों का संपादन किया, वे किसी भी जन आन्दोलन के बीजक के रूप में जाने जाते हैं। लेकिन पत्रकारिता से इतर भी महात्मा गांधी ने सम्प्रेषण के क्षेत्र में काम किया है। संवाद की तरकीबों को उन्होंने ललित कला के रूप में विकसित किया, लेकिन उनके इस पक्ष के बारे में जानकारी अपेक्षाकृत कम है। हालांकि उनके व्यक्तित्व का यह पक्ष भारत में उनके क़दम रखने के साथ ही देखी जा सकती है।
उनकी भारत दर्शन की यात्राएं, देश की जनता से संवाद स्थापित करने के सन्दर्भ में ही देखी जानी चाहिए। भारत में उनकी राजनीति की शुरुआत चम्पारण के उनके प्रयोगों से मानी जाती है। उन्होंने वहां तरह-तरह के प्रयोग किये। उस इलाके की किसी भी भाषा को गांधी जी नहीं जानते थे। मैथिली, भोजपुरी, हिंदी, मगही, कैथी आदि की जानकारी गांधी जी को बिलकुल नहीं थी, लेकिन उस चंपारण में एक ऐसा भी समय आया, जब उस इलाके की जनता और वहां के नेता, वहां के अँगरेज़ अफसर, वहां के नील के कारोबारी, वहां के किसान वही समझते थे, जो गांधी जी उनको समझाना चाहते थे।
अभी कुछ साल पहले देश के बड़े पत्रकार और गांधिविद, अरविन्द मोहन ने मोतिहारी में रह कर गांधी जी के चम्पारण के प्रयोगों का गंभीर अध्ययन किया है। उस अध्ययन को उन्होंने कुछ किताबों के ज़रिये सार्वजनिक भी किया है। अभी शायद और भी कुछ लिखा जाना है, लेकिन जितना काम सार्वजनिक डोमेन में आ चुका है, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि उनका काम अपने आप में एक बेहतरीन अकादमिक धरोहर है। महात्मा गांधी की रोज की गतिविधियों, चिट्ठी पत्री, बातचीत, सन्देश आदि को आधार बनाकर महात्मा गांधी की जिस डायरी की अरविन्द मोहन ने पुनर्रचना की है, वह राजनीतिक अध्ययन प्रणाली के लिए मील का पत्थर है।
उस डायरी को पढ़कर महात्मा जी की संवाद को सबसे बुलंद मुकाम तक पंहुचाने की क्षमता को जानने का जो अवसर मुझे मिला, वह मेरे जीवन का बहुत ही अच्छा अनुभव है। कई बार ऐसा हुआ कि गांधी मार्ग में नियमित रूप से छप रही डायरी को पढ़ते हुए ऐसा लगता था कि जैसे महात्मा गांधी ने खुद ही उस डायरी को वहीं कहीं मोतीहारी में बैठकर लिखा हो। अरविन्द के चंपारण प्रोजेक्ट के बाद उनकी जो भी पुस्तकें आदि छपी हैं, वे आने वाली पीढ़ियों को बहुत सहायता करेंगीं और वे गांधी जी को अच्छे तरीके से समझ सकेंगे, ऐसा मुझे विश्वास है।
अरविन्द मोहन की भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित किताब, ” प्रयोग चंपारण ” की कई प्रतियां मैंने नौजवानों को जन्मदिन आदि पर भेंट की हैं और उन सब का कहना है कि गांधी जी को अब वे पहले से अच्छी तरह से समझ सकते हैं। मोतीहारी जाकर गांधी जी को वहां जाकर उनको बिहार के सबसे बड़े वकीलों, ब्रज किशोर प्रसाद, राजेन्द्र प्रसाद आदि का जो साथ मिला, वह अपने आप में गांधी की संवाद शैली का उदाहरण है। ब्रजकिशोर बाबू, उस इलाके के सबसे बड़े वकीलों में शुमार थे। एक मुक़दमा लेने के पहले उसको सुनने के लिए भी फीस लेते थे और वह फीस 1916 में दस हज़ार रूपये होती थी। इतिहास और अर्थशास्त्र के विद्यार्थी इस बात का अनुमान लगा सकते हैं कि आज के रूपयों में अगर इस रक़म को बदला जाए तो यह कितना होगा। वही बृजकिशोर प्रसाद मोतीहारी में बैठकर नील की खेती करने वाले किसानों के बयान लिखा करते थे। जब वे गांधी के यहां गए तो सारे नौकर चाकर उनके साथ गए थे। लेकिन तीन महीने के अन्दर गांधी ने उनको समझा दिया और सब वापस भेज दिए गए।
राजेन्द्र प्रसाद, आचार्य जे बी कृपलानी, रामनवमी प्रसाद, धरणीधर प्रसाद जैसे लोग अपनी आरामदेह ज़िंदगी छोड़कर महात्मा गांधी के साथ लगे रहे और वह सभी काम करते थे, जो गांधी जी कहते थे। वहां अपना खुद का सारा काम सबको खुद ही करना पड़ता था, जिसमें बर्तन मांजने से लेकर कपड़े धोने तक का काम शामिल था। इन सभी लोगों के पास वापस जाकर अपनी ज़िंदगी को आराम से बसर करने का विकल्प था, लेकिन गांधी का सबसे ऐसा संवाद स्थापित हो गया कि कोई भी वापस जाने की बात सोच ही नहीं सकता था। यह सारी जानकारी अरविन्द मोहन की चंपारण वाली किताबों में है और मुझे लगता है कि गांधी की राजनीति और उनकी शैली को समझने की कोशिश करने वाले हर व्यक्ति को उन किताबों पर एक नज़र ज़रूर डाल लेना चाहिए। (क्रमशः)
इससे पहले पढ़ेंः महात्मा गांधी के धुर विरोधी सी आर दास कैसे उनके मुरादी बन गये
यह भी पढ़ेंः तेरह वर्ष की उम्र में हुआ था गांधी जी और कस्तूरबा का विवाह