चन्द्रशेखर जी की दाढ़ी का राज, आप नहीं जानते तो जान लीजिए। रोज दाढ़ी बनवाने के शौकीन चन्द्रशेखर ने दाढ़ी रखनी क्यों शुरू कर दी। हुआ यों कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय की पढ़ाई के दौरान वे अपने एक मित्र के साथ जयपुर गए हुए थे। हिन्दू हॉस्टल में रहते नाई से दाढ़ी बनवाने की आदत थी। डेढ़ रुपये महीने पर नाई रोज दाढ़ी बना देता था। जयपुर में होटल के आसपास कोई सैलून नही मिला। रास्ते में कई नाई मिले, पर सब किनारे ईंट पर बैठाकर हजामत बनाने वाले।
चंद्रशेखर लिखते हैं- “लगा कि इनसे दाढ़ी बनवाऊंगा तो परेशानी हो सकती है। दूसरे दिन भी दाढ़ी नहीं बनी। दो दिन बाद मैंने सोचा कि इरादा तो समाजवाद लाने का है। दाढ़ी से परेशान हो जाएंगे तो क्या कर पाएंगे। मैंने दाढ़ी बनाना छोड़ दिया।” बाद में यह दाढ़ी चन्द्रशेखर की शख्सियत की पहचान बन गई।
1964 में प्रजा समाजवादी पार्टी ने चन्द्रशेखर को दल से निष्कासित कर दिया। वजह अशोक मेहता बने थे। उन्होंने पार्टी में रहते हुए पंडित नेहरू की पेशकश पर योजना आयोग का उपाध्यक्ष पद स्वीकार किया था। सयुंक्त राष्ट्र संघ में एक संसदीय प्रतिनिधिमंडल का भी नेतृत्व किया था। राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने इस मुद्दे पर मेहता को पार्टी से निष्कासित कर दिया था। चन्द्रशेखर ने मेहता की हिमायत की थी। पार्टी निर्णय के विरुद्ध खुद भी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सदस्यता छोड़ दी थी। जून 1964 में अशोक मेहता समर्थकों ने लखनऊ में सम्मेलन किया। चन्द्रशेखर उसमें नही गए। पर सहयोग किया। डेढ़ महीने बाद वह पार्टी से बाहर थे। तब वह राज्यसभा सदस्य थे।
जब इंदिरा को बेबाकी से जवाब दिया
उन दिनों गुरुपद स्वामी, इन्द्र कुमार गुजराल और अशोक मेहता रोज शाम इंदिराजी के यहां बैठा करते थे। कांग्रेस से जुड़ने के बाद उन्हीं लोगों ने चन्द्रशेखर की इंदिराजी से भेंट कराई। इंदिराजी से उनका संवाद रोचक था। चन्द्रशेखर की बेलाग शैली की बानगी भी। इंदिरा जी का सवाल था- क्या आप कांग्रेस को समाजवादी मानते हैं? चन्द्रशेखर का जबाब था- मैं नही मानता। पर लोग ऐसा कहते हैं। फिर आप कांग्रेस में क्यों आये? चन्द्रशेखर ने प्रतिप्रशन किया- क्या आप सही उत्तर चाहती हैं?
“हां मैं यही चाहती हूं।” “मैंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में 13 साल तक पूरी क्षमता और ईमानदारी से काम किया। दल को मैंने पूरी निष्ठा से समाजवाद के रास्ते पर ले जाने की कोशिश की। लेकिन काफी समय तक काम करने के बाद मुझे लगा कि वह संगठन ठिठक कर रह गया है। पार्टी कुंठित हो गई है। बढ़ती नहीं है। अब यहां कुछ नहीं होने वाला है। फिर मैंने सोचा कांग्रेस एक बड़ी पार्टी है। इसी में चलकर देखें। कुछ करें।”
“लेकिन यहां आकर आप क्या करना चाहते हैं?” “मैं कांग्रेस को सोशलिस्ट बनाने की कोशिश करूंगा।” “और अगर न बनी तो?” “तो इसे तोड़ने का प्रयास करूंगा। क्योंकि यह जब तक टूटेगी नहीं, तब तक देश में कोई नयी राजनीति नहीं आएगी। पहले तो मैं प्रयास यही करूंगा कि यह समाजवादी बने। पर यदि नही बनी तो इसे तोड़ने के अलावा कोई रास्ता नही बचेगा।”
“मैं आपसे सवाल पूछ रही हूं और आप मुझे इस तरह का उत्तर दे रहे हैं?” “सवाल आप पूछ रही हैं तो उत्तर तो आपको ही दूंगा।” “पार्टी तोड़ने से आपका क्या मतलब है? इससे क्या होगा?” “देखिए, कांग्रेस बरगद का पेड़ हो गई है। इसकी फैली छांव में कोई दूसरा पौधा विकसित नहीं होगा। इस बरगद के नीचे कोई पौधा पनप नहीं सकता। इसलिए जबतक यह पार्टी नहीं टूटेगी, कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं होगा।”
वह विस्मित-सी चन्द्रशेखर को देखती रहीं। इंदिराजी जब लोकप्रियता के शिखर पर थीं, तब भी चन्द्रशेखर उनसे ऐसे ही स्पष्ट बोलते रहे। और उसके पांच वर्ष बाद 1969 का राष्ट्रपति चुनाव। शुरुआत में इंदिराजी भी संजीव रेड्डी के पक्ष में थीं। फिर उन्होंने सलाह लेनी शुरू की। चन्द्रशेखर से भी पूछा। वह संजीव रेड्डी के खिलाफ थे। क्यों?
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“रेड्डी स्पीकर रहते हुए प्रधानमंत्री के खिलाफ अपने घर बैठक करते हैं। स्पीकर के पद पर रहते हुए उन्हें ऐसा निंदनीय काम नहीं करना चाहिए।” चन्द्रशेखर ने आगे जोड़ा, “आप व्यर्थ में परेशान हो रही हैं। संसदीय बोर्ड में आपका बहुमत नहीं है।
इंदिरा गांधी की नहीं चली, पार्टी ने संजीव रेड्डी को उम्मीदवार बनाया
संसदीय बोर्ड की बंगलौर में बैठक हुई। इंदिरा जी की नहीं चली। पार्टी ने संजीव रेड्डी को अपना उम्मीदवार बना लिया। इंदिरा विरोधियों के लिए जश्न का मौका था। चंद्रशेखर दोस्तों के साथ घूम रहे थे। उन्हें इंदिराजी से मिलने का संदेश मिला। सी सुब्रमण्यम अकेले उनके पास थे। उन्होंने बताया- प्रधानमंत्री इस्तीफा देना चाहती हैं। चन्द्रशेखर ने उन्हें रोका। कहा- लड़िए। उन्हीं दिनों तब पटना से छपने वाले ‘सर्च लाइट’ में तारकेश्वरी सिन्हा का लेख छपा। लिखा गया ,”पहला चरण संजीव रेड्डी को जिताने का है। दूसरा चरण होगा प्रधानमंत्री को हटाना।” खुफिया विभाग संजीव रेड्डी के जीतने का संकेत दे रहा था। पर, इंदिराजी के खुलकर साथ देने पर वीवी गिरि के पचास फीसदी जीतने की उम्मीद बताई।
और कांग्रेस दोफाड़ हो गयी, चन्द्रशेखर की बात सही निकली
रेड्डी के जनसंघ से समर्थन मांगने जाने को इंदिरा समर्थकों ने मुद्दा बनाया। इंदिराजी खुलकर गिरि के समर्थन में आ गईं। मतगणना में प्रथम वरीयता में गिरि पिछड़ गए। चिंतित इंदिराजी पीछे बैठकर हंसी-मजाक करते चंद्रशेखर के पास आयीं। चंद्रशेखर ने दूसरी वरीयता में जीतने का जोश भरा और सही में गिरि जीत गए। नतीजा कुछ भी होता, पार्टी में टूट तय थी। उन्हीं दिनों आचार्य कृपलानी ने संसद के सेंट्रल हाल में चन्द्रशेखर को बुलाकर कहा, “ए दाढ़ीवाले, इधर आ।”
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चंद्रशेखर ने दादा से आदेश पूछा। दादा ने कहा, “कांग्रेस को सुधारने की कोशिश मत कर। कृपलानी ने बहुत कोशिश की। पर, नहीं सुधार पाया। ज्यादा कोशिश की तो कांग्रेस टूट जाएगी। इससे बड़ा नुकसान होगा।
“दादा मेरी वजह से कांग्रेस क्यों टूटेगी?” दादा ने कहा, “तुम्हें आगाह कर रहा हूँ। मेरा कर्तव्य है। और कांग्रेस टूट गई। पुराने नेता निजलिगप्पा, कामराज, मोरारजी आदि का गुट, जिसे कांग्रेस (ओ) या सिंडिकेट के नाम से जाना गया। इंदिराजी की अगुवाई का दूसरा धड़ा कांग्रेस (आर) या इंडिकेट कहलाया। इस टूट की अगुवाई इंदिराजी ने की। पर चंद्रशेखर इसके एक प्रमुख किरदार थे। पांच साल पहले कांग्रेस में दाखिले के वक्त इंदिराजी से उन्होंने यही तो कहा था।
(चन्द्रशेकर की आत्मकथा : जीवन जैसा जिया का अंश)
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