जब अमस्टर्डम में अनिल जनविजय किताबें चुराते पकड़े गये। यह रोचक प्रसंग अनिल जनविजय ने अपने फेसबुक वाल पर लिखा है। दुकानदार ने चोरी की वजह जान उन्हें इनाम दिया। उन्होंने बताया है कि जब दूसरों की देखादेखी हालैंड में किताब मोह में उन्होंने कुछ किताबें चुरायीं तो वे पकड़ लिये गये। पकड़े जाने पर दुकानदार ने उनकी फजीहत करने के बजाय उन्हें आदरपूर्वक अपना अतिथि बनाया। पढ़ें, उनकी ही जबानीः
अनिल जनविजय
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मैं 1982 के दिसम्बर में पहली बार हालैंड की राजधानी अमस्टर्डम गया था। वहाँ किताबों की एक बहुत बड़ी दुकान थी। मेरे पास कुल 35 गिल्डर थे। और मुझे अभी तीन दिन और अम्सटर्डम में रुकना था, लेकिन फिर भी जब मुझे किताबों की एक दुकान दिखाई पड़ी तो मैं उसमें घुस गया। वहाँ हर तरह की किताबें थीं। घासलेटी साहित्य से लेकर उच्चस्तरीय साहित्य तक। मैंने दुकान में ही एक आदमी को किताब के कवर फाड़कर किताब अपनी कमीज़ में घुसाते देखा। मैं क़रीब देढ़ घण्टे से उस दुकान में घूम रहा था। मैंने देखा कि वो पुस्तक-चोर बड़ी सहजता से दुकान के बाहर चला गया। अब मेरा मन भी एक-दो किताबें चोरी करने का हो आया।
जो दो किताबें मुझे पसन्द आईं उनमें से एक 60 गिल्डर की थी और दूसरी 55 गिल्डर की। मैंने भी कमीज़ के नीचे किताबें छिपाईं और बाहर निकलने की कोशिश की। जब दरवाज़े से बाहर निकलने लगा तो अचानक भोँपू-सा बजना शुरू हो गया। दुकान के दरवाज़े पर खड़े दुकान के मालिक ने मुझसे कहा कि आप किसी किताब का भुगतान करना भूल गए हैं। मैंने उन्हें बताया कि मैंने उनकी दुकान से कोई किताब नहीं ली है तो उसने मुझसे कहा कि क्या आप अपना झोला दिखाएँगे। मेरा झोला किताबों से भरा हुआ था, लेकिन वो सभी किताबें मैंने बर्लिन में ख़रीदी थीं और उनका कैशमीमो भी मेरे पास था। उसने ध्यान से सारी किताबें देखीं और मेरा थैला अपने ही पास रखकर मुझसे कहा कि मैं एक बार फिर दरवाज़े से बाहर जाऊँ। जैसे ही मैं दरवाज़े पर पहुँचा, भोँपू फिर से बजना शुरू हो गया। उसने मुझसे कहा कि अभी आपके पास और किताब है कोई। आप वह किताब भी निकालिए। मैं फँस चुका था। मैंने अपनी क़मीज़ के नीचे से दो किताबें निकालकर सामने रख दीं।
दोनों किताबें देखकर वो दंग हो गया। एक किताब नाज़िम हिकमत की कविताओं के अँग्रेज़ी अनुवादों की थी और दूसरी किताब पाब्लो नेरूदा की कविताओं के अँग्रेज़ी अनुवादों की। उसने मुझसे कहा कि ये किताबें तो हमारी दुकान में कोई चुराता ही नहीं है। हमारे यहाँ तो ज़्यादातर घासलेटी साहित्य ही चोरी होता है। मैंने उसे बताया कि मैं ख़ुद कवि हूँ और मुझे सिर्फ़ कविता-संग्रह ही पसन्द हैं। उसने मुझसे कहा कि वह मुझे दोनों किताबें पचास प्रतिशत की रियायत पर दे देगा। मैंने उससे कहा कि मेरे पास सिर्फ़ 35 गिल्डर हैं और मुझे अभी वहाँ तीन दिन और रहना है। इन कवियों की किताबें देखकर मुझसे रहा नहीं गया और मैंने अपने काव्य-प्रेम की वजह से धनाभाव की मजबूरी में वे किताबें चुरा ली थीं। वैसे बर्लिन में मैंने सारी किताबें ख़रीदी हैं और उनका कैशमीमो भी मेरे पास है।
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इसके बाद वो दुकानदार मुझसे देर तक बात करता रहा। फिर अचानक उसने मुझसे कहा कि वह पाँच सौ गिल्डर की किताबें मुझे भेंट करना चाहता है और मैं उसकी दुकान में से पाँच सौ गिल्डर की किताबें चुन सकता हूँ। मेरी तो जैसे कोई लाटरी खुल गई थी। मैंने लोर्का, ब्रेख़्त, रिल्के, विक्टर ह्यूगो, कंस्तान्तिन कवाफ़ी और सफ़्फ़ो की कविताओं के अँग्रेज़ी में छह कविता-सँग्रह और चुन लिए। वो कविता के लिए मेरा पागलपन देखकर हैरान हुआ।
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फिर उसने पूछा कि मैं कौनसे होटल में रुका हूँ। मैंने उसे बताया कि मेरे पास इतने पैसे ही नहीं हैं कि मैं होटल में रुकूँ। मैं अपनी रातें हर शहर में रेलवे स्टेशन पर बिताता हूँ। मेरा यह जवाब सुनकर वह और ज़्यादा आश्चर्यचकित हुआ। उसने मुझे कॉफ़ी पीने का ऑफ़र दिया। और ख़ुद ही कॉफ़ी बनाकर मुझे पिलाई। तब तक वह भारत के बारे में और भारतीय संस्कृति के बारे में मुझसे बात करता रहा। काफ़ी पीने के बाद जब मैंने उससे जाने की इजाज़त माँगी तो उसने मुझे विदा करते हुए कहा कि अगर मैं चाहूँ तो अगली दो रातें उसके घर पर बिता सकता हूँ। मैं सहर्ष तैयार हो गया।
मैंने उससे पूछा कि यह क्या रहस्य है कि किताबें छुपाकर बाहर निकलने पर भोँपू कैसे बजने लगता है। उसने बताया कि किताबों के कवर में एक ऐसी इलैक्ट्रोनिक चुम्बक की पतली-सी परत छुपी हुई है, जिसको निरस्त करना ज़रूरी होता है। उसे अगर निरस्त नहीं किया जाएगा, वह चुम्बकीय परत दरवाज़े में लगी मशीन के पास पहुँचते ही दरवाज़े में लगा भोँपू बजने लगेगा।
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उसने मुझसे कहा कि अगर मैं उसके साथ रुकना चाहूँगा तो शाम को आठ बजे तक उसकी दुकान पर वापिस आ जाऊँ। आठ बजे दुकान बन्द होती है, तब वो मुझे अपने घर ले चलेगा। मैंने किताबों और अन्य सफ़री सामान से भरा अपना थैला उसकी दुकान पर ही छोड़ दिया और शहर घूमने बाहर निकल गया। अगले दो दिन बड़े सुखद रहे। उनके बारे में फिर कभी।
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