जार्ज फर्नांडिस के कभी करीबी रहे वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर ने उनकी पुण्यतिथि (29 जनवरी) पर अपने संस्मरणात्म लेख में लिखा है- इमरजेंसी के जार्ज को मेरा सलाम! इमरजेंसी के दिनों में जब जार्ज फर्नांडिस भूमिगत थे, उस वक्त सुरेंद्र किशोर ने उनके साथ भूमिगत रह कर काम किया था।
- सुरेंद्र किशोर
आपातकाल में बिहार के एक बुजुर्ग समाजवादी नेता ने जार्ज फर्नांडिस से सात लाख रुपए मांगे थे। उन रुपयों के बल पर वे शासन के खिलाफ बिहार में चौंकाने वाली धमाकेदार गतिविधियां चलाना चाहते थे। किंतु जार्ज के पास तब इतने पैसे थे नहीं। कुछ पैसे जरूर उन्हें हर माह कानपुर से मिल जाते थे, जिससे बिहार में भूमिगत गतिविधियां चलती थीं। मैं इस काम के लिए हर महीने कानपुर जाया करता था।
फिल्ड में काम करने वाले शानदार-जानदार डा. विनयन थे। उनके साथ कुछ बहादुर नौजवानों की एक सशक्त टीम थी। खैर, उस क्रांतिकारी समाजवादी नेता के बारे में मैंने बाद में कभी नहीं सुना कि उन्होंने अपनी ओर से सात रुपए भी खर्च कर के कोई भूमिगत गतिविधि चलाई हो।
याद रहे कि आपातकाल के बाद जब बिहार सहित देश में पूरी तरह राजनीतिक सन्नाटा छा गया तो जार्ज फर्नांडिस अपने थोड़े से साथियों के साथ मिलकर लगातार सन्नाटा तोड़ रहे थे। यह काम वे अपनी गिरफ्तारी तक लगातार तोड़ते रहे।
उसी तरह, जिस तरह केंद्रीय एसेंबली में बम फेंककर भगत सिंह ने बहरी अंग्रेज सरकार के कानों पर धमाका किया था। खैर, जार्ज और भगत सिंह की यहां मैं कोई तुलना नहीं कर रहा हूं, सिर्फ शैली की समता की बात कर रहा हूं। जार्ज भगत सिंह से प्रेरित थे। भगत सिंह का भला कोई क्या मुकाबला कर सकता है!
आपातकाल (इमरजेंसी) में भूमिगत गतिविधियां चलाने के सिलसिले में मैं जार्ज के बुलावे पर बंगलोर गया। लाडली मोहन निगम पटना आकर मुझे ले गए थे। जहां ‘शोले’ फिल्म की शूटिंग हुई थी, उसी पहाड़ी पर जार्ज सहित हम कई लोग रात में प्रशिक्षण लेने जाते थे। बंगलोर-मैसूर मार्ग पर बंगलोर से 50 किलोमीटर दूर है रामनगरम उर्फ रामगढ़।
मैं इमरजेंसी में बंगलोर (उस समय यही नाम था) गया था। करीब एक सप्ताह तक बंगलोर के एक होटल में टिका था। एक ही कमरे में हम तीन जन- मैं, जे.एच. पटेल और लाडली मोहन निगम रहते थे। पटेल साहब बाद में वहां के मुख्यमंत्री बने। निगम जी राज्यसभा सदस्य बने।
खैर, उन दिनों बंगलोर की आबोहवा इतनी अच्छी थी कि वातानुकूलित सिनेमा हाल से निकलने के बाद बाहर ही अधिक अच्छा लगता था। हम दिन में सिनेमा देखते थे और रात में कई गाड़ियों में भर कर उस पहाड़ी पर जाते थे। साथ में स्नेहलता रेड्डी की बिटिया नंदना रेड्डी भी रहती थीं। मैं, जार्ज और नंदना एक ही गाड़ी में होते थे।
हम जब बंगलोर गए तो फिल्म अभिनेत्री स्नेहलता रेड्डी के घर गए। भूमिगत जार्ज के लिए वही घर संपर्क सूत्र था। गहरे भूमिगत जार्ज फर्नांडिस के साथ हम हर रात रामगढ़ की पहाड़ी के पास क्या करने जाते थे, यहां यह बताना जरूरी नहीं है। पर, तब वहां जाने व एक खास काम करने में बड़ा रोमांच और संतोष था। वहीं सुना था कि ‘शोले’ की शूटिंग के समय धमेंद्र, अमिताभ तथा अन्य कलाकार बंगलोर में रहते थे और रोज रामगढ़ जाते थे, संभवतः आटो रिक्शे से। वहां सिप्पी साहब ने शूटिंग के लिए ही एक गांव बसा दिया था, जो फिल्म में दिखाई पड़ता है। वह रामगढ़ अब जिला बन गया है। स्थानीय नेता समाजवादी नेता व वकील महेश्वरप्पा हमें सब बताया करते थे।
दरअसल मैं यहां जार्ज की बेमिसाल हिम्मत की बात कर रहा हूं। हर मनुष्य में कुछ खूबियां होती हैं तो कुछ खामियां। हममें, आप में और जार्ज में भी। जिनमें खूबियां अधिक होती होती हैं, उनकी तारीफ होती है। जाहिर है कि जार्ज में खूबियां बहुत अधिक थीं। वे एक राष्ट्रभक्त नेता थे। न तो उन्हें पैसों का लोभ था और न ही वंशवाद-परिवारवाद का। हिम्मत और भाषण शैली तो अद्भुत थी।
वे साथियों की सुनते अधिक थे, बोलते कम थे। अधिकतर नेताओं में इस गुण का अभाव होता है। मेरी राय में यदि वे सत्ता की राजनीति से अलग रहते तो संभवतः अधिक सार्थक साबित होते! संभव है कि यह मेरी भोली आशा हो! लेकिन मैंने उनसे यह बात एकाधिक बार कह दी थी।
1977 में जब वे मंत्री बनकर मुजफ्फरपुर के रास्ते में पटना आए थे तो हम कुछ लोग उनके साथ पहलेजा घाट तक गए थे। रास्ते में मैंने उनसे कहा कि ‘जार्ज साहब, आप मंत्री बन कर छोटे हो गए हैं। आप इस्तीफा दे दीजिए।’’ तब जार्ज के साथ सर्चलाइट के संवाददाता लव कुमार मिश्र व योगगुरू डा. फुलगेंदा सिंह आदि भी पहलेजा तक गए थे। उस समय उनमें से एक ने कहा कि ‘‘नहीं जार्ज साहब, आप मंत्री के रूप में काम करके दिखा दीजिए कि आप वहां बेहतर काम कर सकते हैं।’ खैर, इस आशय की एक चिट्ठी मैंने बाद में दिनमान (8 मई 1977) में लिखी थी। मैंने लिखा था कि ‘‘यह बड़ी अच्छी बात है कि श्री जार्ज फर्नांडिस को इस बात का अहसास है कि उनके मंत्री बनने के बाद उनके यहां वे लोग भीड़ नहीं लगाते, जिन्होंने उनके साथ फरारी जीवन में काम किया।
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यही अहसास उनकी प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए पर्याप्त है। फिर भी मेरे जैसे लोग, जिन्हें आपातकाल की काली रात में उनके निदेशों पर काम करने का सौभाग्य मिला, इस बात से अत्यंत सशंकित हैं कि मंत्री पद की काजल की कोठरी में जाने के बाद हमारा जार्ज वैसा ही कोरा निकलेगा, जिससे हम प्रेरित होते रहे हैं। इस तथ्य के बावजूद कि मैं उसके कोरा बने रहने की क्षमता पर अविश्वास नहीं करता, उस कुर्सी की भी अपनी विवशताएं हैं। अतः जार्ज को चाहिए कि वह जनता पार्टी के उच्च कमान को विश्वास में लेकर मंत्री पद से मुक्त हो जायें और मजदूरों और युवजनों को संगठित करें, जिनके वह हृदय सम्राट हैं। मंत्री बन जाने के बाद वह छोटे हो गए लगते हैं।
आज जब मैं इन पंक्तियों को लिख रहा हूं तो यह कह सकता हूं कि जार्ज उस काजल की कोठरी से बेदाग निकल गये थे। हां, राजनीतिक तौर पर उन्होंने बाद के वर्षों में जो कुछ काम किए, उससे मेरा जरूर मतभेद था। वैसे बाद में तो मैं पेशेवर पत्रकारिता में तब तक आ गया था। सक्रिय राजनीति से मेरा कोई मतलब नहीं रहा। फिर भी मैं जार्ज के पटना आने पर उनसे मिलता रहा।
जार्ज फर्नांडिस एक बार वे दैनिक ‘आज’ आफिस में भी मुझसे मिलने आए थे। एक अन्य अवसर पर लोहिया नगर स्थित मेरे घर भी गए थे। पर, अस्सी के दशक में उनकी एक विवादास्पद (व्यक्तिगत) बात को लेकर मुझे झटका लगा और उसके बाद उनसे मिलना मैंने छोड़ दिया था। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि मैं आपातकाल की उनकी बहादुरी की गाथाओं को भूल जाऊं।
जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद उनके कटु राजनीतिक आलोचक डा. राम मनोहर लोहिया ने भी कहा था कि ‘‘1947 से पहले के नेहरू को मेरा सलाम!’’
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