ज्योति बसु का करिश्माई व्यक्तित्व था। विपक्ष भी उनका लोहा मानता था। एक मौका ऐसा आया, जब उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी मिलती दिखी। ज्योति बसु को याद करते हुए पूर्व सांसद और साहित्यकार सरला माहेश्वरी ने उनकी स्मृतियों को नमन किया है।
- सरला माहेश्वरी
जनता के जीवन के संवेदन -सत्यों के
चित्रों से-
तथ्यों के विश्लेषण-संश्लेषण-बिम्बों से-
बनाकर धरित्री का मानचित्र
दूर क्षितिज फलक पर टांग जो देता है
वह जीवन का वैज्ञानिक यशस्वी
कार्यकर्ता है
मनस्वी क्रांतिकारी वह
सहजता से
दृढ़ता से
दिशाएं कर निर्धारित
उषाएं कर उद्घाटित
जन-जन को पुकारता जगाता है निशाओं में…
मुक्तिबोध की कविता की इन पंक्तियों में ज्योति बसु का पूरा व्यक्तित्व जैसे जीवंत हो उठा है। अपने जीवित काल में ही किंवदंती बन गये इस महान कम्युनिस्ट नेता ने जनता के एक पथ-प्रदर्शक नेता के सारे गुणों को आत्मसात कर लिया था। तीक्ष्ण-बुद्धि, स्थितप्रज्ञता, साहसिकता, संवेदनशीलता, धैर्यशीलता, वैचारिक प्रतिबद्धता और निर्णय लेने की अद्भुत क्षमता ने ज्योति बसु को आजाद भारत की सबसे बड़ी राजनीतिक शख्सियत की पहचान दी थी।
यह ज्योति बसु के व्यक्तित्व का ही करिश्मा था कि वैचारिक भिन्नता के बावजूद बसु के नेतृत्व का विपक्ष के भी सभी नेता लोहा मानते थे। उनकी अंतिम यात्रा राजकीय सम्मान के साथ भारतीय राजनीति के सभी बड़े नेताओं की उपस्थिति में हुई और बंगाल में कवि गुरू रवींद्रनाथ की अंतिम यात्रा के बाद जनता का इतना बड़ा स्वत:स्फूर्त सैलाब एक बार फिर देखा गया। लाखों-लाखों लोग अपने इस प्रिय नेता को श्रद्धाजंलि देने दूर-दूर से आये थे। जीवन भर मानवता की सेवा में लगे रहे इस नेता ने अपनी मौत को भी जनता की सेवा में ही समर्पित कर दिया। अपनी देह का दान करते हुए उन्होंने शपथ पत्र में लिखा-‘‘एक कम्युनिस्ट होने के नाते मैंने अपनी अंतिम सांस तक मानवता की सेवा करने की शपथ ली है। मुझे खुशी है कि अब मैं अपनी मौत के बाद भी यह सेवा जारी रखूंगा।‘‘ वास्तव में ज्योति बसु जैसे नेता कभी मरते नहीं हैं वे मरकर भी हमेशा हमें दिशाएं दिखाते हैं, हमारी उषाओं को उद्घाटित करते हैं, अंधेरे में रोशनी दिखाते हैं।
एक अराजनैतिक और संभ्रात परिवार में जन्मे ज्योति बसु के जीवन में राजनीति का प्रवेश लंदन में अघ्ययन के दौरान ही होता है।सन 1935 में वे बैरिस्टरी की पढ़ाई के लिये लंदन गये और वहीं पर भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की पुकार और माक्र्सवाद तथा दुनिया को बदलने के कम्युनिस्ट आदर्शों के आकर्षण ने पेशेवर वकील के सपने को पेशेवर क्रांतिकारी की हकीकत में बदल दिया। 1940 के पहले दिन भारत लौटे और जिस संपन्न परिवार में कम्युनिस्ट होने का मायने गुंडा अथवा डाकू होने के समान था, वहां आकर घोषणा कर दी कि मैं बैरिस्टरी नहीं करूंगा, कम्युनिस्ट पार्टी का काम करूंगा। पिता ने समझाया कि राजनीति करने का अर्थ यह नहीं है कि कोई और काम नहीं करोगे, सी.आर.दास का उदाहरण दिया, लेकिन ज्योति बसु का दो टूक जवाब था, नहीं, दोनों काम एक साथ नहीं किये जा सकते हैं। मैं पूरे वक्त के लिये कम्युनिस्ट पार्टी करूंगा।
पिता को भारी धक्का लगा, फिर किसी तरह मान कर चुप हो गय। 1946 में ज्योति बसु जब पहली बार एमएलए हुए तो उन्हें खुशी भी हुई, लेकिन ज्योति बसु नहीं होता दुख में उद्विग्नमन, और जो सुख में रहे नि:स्पृह अविचल कर्मयोगी की तरह सारी उम्र के लिये भारत में कम्युनिस्ट पार्टी और समाजवादी क्रांति के कार्य में जुट गये।
कहने की जरूरत नहीं कि 1935 के भारत सरकार कानून और 1937 में प्रांतीय विधानसभाओं और सरकारों के गठन से भारत में संसदीय व्यवस्था का जो नया राजनीतिक ढांचा तैयार हुआ था, उसने 1946 तक पूर्ण जनतांत्रिक रूप नहीं लिया था। 1946 में हुआ प्रांतीय असेंबलियों का चुनाव सीमित मताधिकार पर आधारित था। औरतों और खास तौर पर गरीब तबकों को तब मत देने का अधिकार नहीं था। फिर भी, 1946 की अकूत क्रांतिकारी संभावनाओं से भरपूर उबलती हुई राजनीतिक परिस्थितियों में सीमित मताधिकार के आधार पर ही हुए वे चुनाव भारत के परवर्ती राजनीतिक जीवन के लिये काफी महत्वपूर्ण थे। 18 फरवरी 1946 को शुरू हुआ प्रसिद्ध नौ-विद्रोह 20 फरवरी को अपने चरम पर था जब वह बंबई, कलकत्ता,कराची, मद्रास, कोचीन और विशाखापटनम के नौ सेना के 74 जहाजों, 20 बेड़ों और 22 इकाइयों तक फैल चुका था और 1946 का प्रांतीय असेंबलियों का चुनाव 22 फरवरी 1946 के दिन हुआ था। ज्योति बसु उस तूफानी दौर के चुनाव में रेलवे मजदूरों के चुनाव क्षेत्र से कांग्रेस के एक बड़े नेता को पराजित कर असेंबली में पहुंचे थे। इस चुनाव के परिणामों से भारत की भावी राजनीति और उसके बंटवारे की सूरत भी साफ हो गयी थी। 11 प्रांतीय असेंबलियों की मुसलमानों के लिये आरक्षित 495 सीटों में मुस्लिम लीग को 440 पर विजय प्राप्त हुई थी।
ब्रिटिश काल की बाधाओं से मुक्त होने के बाद ही आजाद भारत के नये संविधान से शक्ति लेकर भारत का संसदीय जनतंत्र परवान चढ़ा था और जिस पूरे दौर में वह तमाम प्रकार के उतार-चढ़ाव से गुजरता हुआ क्रमश: अधिक से अधिक परिपक्व और मजबूत होता चला गया, उस काल में कामरेड ज्योति बसु प्रांतीय विधानसभा के सदस्य, राज्य में विपक्ष के नेता, उप-मुख्यमंत्री और फिर मुख्यमंत्री के तौर पर इसके साक्षी और इसके अंग भी बने रहे। 1999 में जब ज्योति बसु ने स्वास्थ्य के कारणों से स्वेच्छा से मुख्यमंत्री पद छोड़ा और 2001 के पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में खड़े नहीं हुए, उसके पहले सिर्फ 1972 के चुनाव को छोड़ कर जब पश्चिम बंगाल में बंदूक की नोक पर कांग्रेस ने चुनावों को लूट लिया था, ज्योति बसु लगातार विधान सभा के सदस्य रहे। कहना न होगा कि इस पूरे उपक्रम में ज्योति बसु ने भारत में उदीयमान संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था के साथ भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के जैविक संबंधों को विकसित करने में एक अहम भूमिका अदा की; कम्युनिस्ट आंदोलन को भारत के आधुनिक राजनीतिक इतिहास से जोड़ते हुए, भारतीय क्रांति की अपनी निजी विशिष्टताओं को आत्म-सात करने में और ज्यादा समर्थ बनाया।
जिस समय ज्योति बसु विधानसभा के सदस्य थे, उसी समय पार्टी ने तेलंगाना और तेभागा संघर्षों के अतिरिक्त ‘यह आजादी झूठी है’ के नारों के साथ जन-विद्रोह की नीति को भी अपनाया था। जब वे विधानसभा में विपक्ष के नेता थे, तभी उन्हें कभी चीन का दलाल तो कभी पाकिस्तान का दलाल बता कर जेल के सींखचों में बंद कर दिया गया। 1972 में जब पश्चिम बंगाल में सीपीआई(एम) विधानसभा में स्पष्ट बहुमत पाने की स्थिति में होती, तभी पुलिस, सीआरपी, गुंडा-दस्तों के बल पर न सिर्फ चुनावों को लूट लिया गया बल्कि पूरी पार्टी को नेस्तनाबूद कर देने के लिये उसे अद्र्ध-फासिस्ट हमलों का शिकार बनाया गया; लगभग 1100 कामरेडों की हत्याएं की गयी, हजारों को उनके घरों से उजाड़ दिया गया। इस पूरे काल में ज्योति बसु कम्युनिस्ट आंदोलन की नेतृत्वकारी पंक्ति में शामिल थे। और, यही वजह है कि संसदीय और गैर-संसदीय संघर्षों की एक समंजित लाइन के आधार पर कम्युनिस्ट आंदोलन ने भारत मेंं जो परिपक्वता हासिल की है, उस पूरी प्रक्रिया में निजी तौर पर ज्योति बसु के अवदान को कम करके नहीं देखा जा सकता है।
दुनिया का कोई भी आंदोलन अपने जन्म के साथ ही पूरी तरह से परिपक्व नहीं होता। शैशव के बाद जीवन के अनुभवों से लगातार सीख लेता हुआ ही वह विकसित होता है और इतिहास में अपनी निश्चित भूमिका का पालन करता है। भारत का कम्युनिस्ट आंदोलन भी इसका अपवाद नहीं है। माक्र्सवाद एक विज्ञान है, जिसे समाज के क्रांतिकारी रूपांतरण की शक्ति में बदलने के लिये प्रत्येक देश की अपनी ठोस परिस्थितियों के आधार पर लागू करना पड़ता है। कम्युनिस्ट इंटरनेशनल सारी दुनिया के कम्युनिस्ट आंदोलन के अनुभवों के आदान-प्रदान का एक साझा मंच हो सकता था, निर्देशकारी संगठन नहीं। मजदूरों-किसानों और मेहनतकशों के बीच कम्युनिस्टों के नि:स्वार्थ कार्यों ने जनता में उनके स्थान को निश्चित किया, लेकिन अपने देश में क्रांति के चरणों के बारे में सही समझ के अभाव ने पार्टी के अपेक्षित विकास को बाधित किया। इस बारे में एक सही और स्वतंत्र समझ को हासिल करने में भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन को कम कीमत नहीं चुकानी पड़ी है। पार्टी टूट तक गयी। इस समूची प्रक्रिया में ज्योति बसु कम्युनिस्ट आंदोलन के लिये अनुभवों के कई अंधेरे कोनों को आलोकित करने वाली खिड़की साबित हुए थे।
1964 में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी विभाजित हुई। इसके पीछे पार्टी के अंदुरूनी संघर्षों और साथ ही विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन की परिस्थिति का भी एक लंबा इतिहास था। सिर्फ सोवियत संघ की विदेश नीति की रोशनी में दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियां संघर्षों की अपनी राह तय नहीं कर सकती थी। ऊपर से जब पार्टी के अंदर भारत-चीन सीमा-विवाद के मसले पर अंध-राष्ट्रवादी नीतियों के बजाय विवेकसम्मत नीति पर चलने की मांग करने वाले पार्टी के कामरेडों को चुन-चुन कर सरकारी दमन का शिकार बनवाने की तरह का विश्वासघात किया गया, तब पार्टी की एकता का बने रहना नामुमकिन होगया था। ऐसे समय में सीमा-विवाद के शांतिपूर्ण समाधान पर बल देते हुए भी ज्योति बसु उनमें थे, जिन्होंने कहा था कि चीन को ब्लैंक चेक नहीं दिया जा सकता। इसप्रकार, भारतीय क्रांति का रास्ता न रूस का रास्ता होगा न चीन का, वह भारतीय रास्ता होगा – ज्योति बसु इस नीति के रूपाकारों में अनन्य थे। यह इतिहास का परिहास ही कहलायेगा कि चंद वर्षों बाद ही बीजिंग रेडियो ज्योति बसु का नाम लेकर ‘गालियां’ दे रहा था। 1971 में नक्सलवादियों के मुक्तांचल वाले क्षेत्र में कांग्रसियों के बदनाम ‘बारानगर हत्याकांड’ पर जिन ज्योति बसु ने दृढ़ता के साथ कहा था कि ‘दिस कान्ट गो अनचैलेंज्ड’, उन्हें ही ‘मुक्तांचल दर्शन’ के प्रवर्तनकारी गला फाड़ कर गालियां दे रहे थे!
सन् 1967 भारत में कांग्रसी शासन के खिलाफ जनता के व्यापक मोहभंग का काल था। 1967 के चुनाव में पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की पराजय हुई और बांग्ला कांग्रेस के अजय मुखर्जी के नेतृत्व में राज्य में जिस पहली गैर-कांग्रेसी संयुक्त मोर्चे की सरकार का गठन हुआ, ज्योति बसु उसमें उपमुख्यमंत्री हुए। इस सरकार का प्रमुख नारा था – संयुक्त मोर्चा सरकार मेहनतकशों के संघर्षों का हथियार है। यह सरकार अधिक दिनों तक नहीं चल पायी। कांग्रेस ने षड़यंत्र करके 9 महीनों के अंदर ही इस सरकार को गिरा दिया। 1969 में फिर से राज्य में मध्यावधि चुनाव हुआ। ज्योति बसु पुन: बारानगर क्षेत्र से रेकर्ड मतों से जीते। विधानसभा में सीपीआई(एम) सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर सामने आयी। अजय मुखर्जी मुख्यमंत्री हुए और ज्योति बसु उपमुख्यमंत्री तथा गृहमंत्री। इस समय के अपने अनुभवों के बारे में ज्योति बसु ने लिखा है कि बांग्ला कांग्रेस, फारवर्ड ब्लाक और भाकपा के विरोध के चलते मैं मुख्यमंत्री न बन सका। मुख्यमंत्री बनने के सवाल पर जोर देने का मतलब यह था कि तुरंत मोर्चा टूट जाता और ये तीनों दल हमसे अलग हो जाते। दरअसल, कांगे्रस के लोग यही चाहते थे। कांग्रेस के मंसूबों को नाकाम करने के लिये न चाहते हुए भी हमें एक बार फिर संयुक्त मोर्चा सरकार की बागडोर अजय मुखर्जी के हाथ में देनी पड़ी।
1967 और 1969 की संयुक्त मोर्चा सरकारों ने राज्य में भूमिसुधार के लिये किसानों के आंदोलनों और मजदूरी में वृद्धि तथा अन्य सुविधाओं के लिये मजदूरों के आंदोलनों को तीव्रता प्रदान करने में ऐतिहासिक भूमिका का पालन किया था। 1967 में पटना रेलवे स्टेशन पर ज्योति बसु पर जानलेवा हमला हुआ जिसमें वे बाल-बाल बच गये लेकिन उनके बगल में खड़े पार्टी के एक अन्य कामरेड को गोली लग गयी जिनकी तत्काल मृत्यु हो गयी।
1971 में राज्य में पुन: मध्यावधि चुनाव हुए। कांग्रेस दल ने सीपीआई(एम) के खिलाफ फारवर्ड ब्लाक के श्रद्धेय नेता हेमंत बोस की हत्या का झूठा आरोप मढ़ कर पार्टी के खिलाफ भारी नफरत फैलाने की कोशिश की। इसके बावजूद राज्य विधानसभा में सीपीआई(एम) ही सबसे बड़ी पार्टी के रूप में चुन कर आयी, लेकिन सीपीआई (एम) को सरकार नहीं बनाने दिया गया। अकेले इसी तथ्य से सीपीआई(एम) के खिलाफ नफरत की स्थिति का अंदाज लगाया जा सकता है कि इस बार ज्योति बसु के खिलाफ चुनाव में खुद अजय मुखर्जी उतरे थे, लेकिन बुरी तरह पराजित हुए।
इसके साथ ही पश्चिम बंगाल की राजनीति का सबसे काला अध्याय शुरू हुआ। 1972 में केंद्रीय स्तर से साजिश करके बंदूक की नोक पर विधानसभा का चुनाव जिस प्रकार लूटा गया, आजाद भारत में उसकी दूसरी नजीर नहीं मिलती। इस चुनाव में मतदान के दिन दोपहर के 12 बजे ही ज्योति बसु ने चुनाव के वहिष्कार की घोषणा कर दी थी। 1972 से 1977 तक सीपीआई(एम) ने राज्य विधानसभा का वहिष्कार रखा। कहा जा सकता है कि पूरे भारत में 1975 में आंतरिक आपातकाल लागू किया गया था, लेकिन पश्चिम बंगाल में जनतंत्र की हत्या की खूनी साजिश 1972 में ही शुरू होगयी थी। कांग्रेस के अर्द्ध-फासिस्ट शासन के इस दौर में पार्टी के 1100 से भी ज्यादा कामरेडों की हत्या कर दी गयी। एक हजार से अधिक ट्रेडयूनियन अथवा पार्टी के कार्यकर्ताओं को बिना मुकदमा चलाये बंदी बना लिया गया, हजारों पर गिरफ्तारी के परवाने जारी किये गये, सैकड़ों पार्टी कार्यालयों और ट्रेडयूनियन कार्यालयों में तोड़-फोड़ और आगजनी की गयी, 20 हजार से अधिक कार्यकर्ताओं को सपरिवार उनके घरों से उजाड़ दिया गया।
राज्य की इस भयावह राजनीतिक परिस्थिति में कामरेड ज्योति बसु ने 1972 के जुलाई महीने में ‘पश्चिम बंगाल का भविष्य क्या है’ शीर्षक अपने एक निबंध के अंत में पार्टी की आगे की रणनीति पर प्रकाश डालते हुए लिखा था : पश्चिम बंगाल में सभी वामपंथी और जनतांत्रिक ताकतों, मजदूरों, किसानों, छात्रों, नौजवानों, महिलाओं आदि के जन-संगठनों को सरकार और गुंडों के हमलों को रोकने के लिये साहस और दृढ़ता के साथ एक ऐसी एकता कायम करनी होगी, जैसी पहले कभी नहीं देखी गयी। यह एक कठिन कार्य है लेकिन आम जनता को ही जन-प्रतिरोध के रास्तों को खोज लेना होगा। वामपंथी पार्टियों को यह सीखना ही होगा कि कैसे जनता के साथ अपने संपर्कों को बनाये रखें, उन्हें प्रत्येक राजनीतिक और आर्थिक सवाल पर आंदोलन छेड़ने होंगे। अभी भी वामपंथी पार्टियों की ही स्थिति अच्छी है, क्योंकि चुनाव में कांग्रेस वास्तव में उन्हें पराजित नहीं कर पायी है। इन परिस्थितियों में गठित सरकार और उसके द्वारा चलाये जा रहे हिंसक क्रिया-कलाप और उसकी धोखेबाजी तथा धमकियां उन्हें खुद अपनी जनता के सामने ही लोकप्रिय नहीं बनायेंगे। पश्चिम बंगाल की आम जनता को अकथनीय यातनाएं झेलनी पड़ेगी। लेकिन इतिहास ने यदि हमें इस स्थिति में ला दिया है तो हम भी अपने कर्तव्यों का परित्याग नहीं करेंगे। हम जनतंत्र और पूरे भारत की जनता की अग्रगति के लिये लड़ रहे हैं, इस आस्था और विश्वास के साथ ही हमारी लड़ाई जारी रहेगी। जनतंत्र के लिये और मनुष्य के जीवन और जीविका के लिये लड़ाई एक दूसरे से अभिन्न है और वह सिर्फ पश्चिम बंगाल की धरती पर ही नहीं चलेगी।
आज हमें जितना भी कष्ट, जितनी भी यातनाएं क्यों न सहनी पड़ें, सफलता के प्रति दृढ़ विश्वास के आधार पर ही इस कर्तव्य के निर्वाह के लिये हम आगे बढ़ते रहेंगे।
भारत में आंतरिक आपातकाल और पश्चिम बंगाल में 1972 से चले आ रहे अद्र्ध-फासिस्ट शासन के खिलाफ जनता के अकूत त्याग और बलिदान से भरे संघर्षों के परिणामस्वरूप 1977 में पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा सरकार का गठन हुआ था। इक्कीस जून 1977 के दिन पहली वाम मोर्चा सरकार के मंत्रियों ने शपथ ली और इसके बाद ही राइटर्स बिल्डिंग (राज्य के सचिवालय) के सामने मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने ऐलान किया वाम मोर्चा सरकार सिर्फ राइटर्स बिल्डिंग से नहीं चलेगी, यह आम लोगों और उनके जनसंगठनों के साथ नजदीकी संपर्क बना कर चलेगी ताकि उनकी प्रभावशाली ढंग से सेवा की जा सके।
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राज्य में फिर से जनतंत्र की पुनस्र्थापना हुई। घोषणा की गयी कि राज्य की पुलिस कभी भी मजदूरों, किसानों के आंदोलनों को कुचलने के काम में नहीं लगायी जायेगी। ज्योति बसु के नेतृत्व में वाममोर्चा सरकार ने भूमिसुधार का ऐतिहासिक कार्यक्रम अपनाया और देखते ही देखते पश्चिम बंगाल के ग्रामीण क्षेत्रों में शक्ति का संतुलन तेजी के साथ बदलने लगा। वर्षों से स्थगित पड़े पंचायतों और नगरपालिकाओं के चुनाव नियमित रूप से होने लगे।
पहली वाममोर्चा सरकार के अनुभव के बाद ही 1982 में ज्योति बसु ने लिखा, हम राजनीतिक तौर पर कितने ही मजबूत क्यों न हो, अपनी ताकत और प्रभाव के आकलन के बारे में किसी भी प्रकार के अतिरेक से बचना समान रूप से महत्वपूर्ण है। …हमारे सरकार में होने पर भी पूंजीवादी-सामंती वर्गीय शासन बरकरार है…मौजूदा ढांचे में बेरोजगारी, महंगाई, गैर-बराबरी और वर्गीय शोषण की तरह की बुनियादी समस्याओं का अंत नहीं हो सकता। इसीलिये, वाम मोर्चा सरकार के रहने के बावजूद, वर्ग-आधारित संघर्षों की जरूरत बनी रहती है। (पिपुल्स डेमोक्रेसी, 3 जनवरी 1982)
यही वह समझ थी जिसके आधार पर संघर्ष करते हुए वाममोर्चा ने जनता के बीच अपनी जड़ों को मजबूत किया। आपरेशन वर्गा की सफलता के चलते 1988-1989 तक पंजीकृत बंटाईदारों की संख्या 14 लाख पर पंहुच गयी और सरकार द्वारा ले ली गयी अतिरिक्त भूमि 11 लाख एकड़ होगयी। इनके अलावा 32000 बंटाईदारों के मामले ऐसे थे, जिन पर हाईकोर्ट में मुकदमा चल रहा था। भूमि सुधार की इस महत्वपूर्ण सफलता के साथ ही गांव के अढ़ाई लाख गरीब परिवारों को घर बनाने के लिये सरकार की ओर से मुफ्त जमीन दी गयी। ज्योति बसु के नेतृत्व की वाम मोर्चा सरकार के काल में भूमि सुधार के नाना कार्यक्रमों के जरिये पश्चिम बंगाल के गांवों में एक मौन क्रांति संपन्न हुई। देहातों में शक्तियों का संतुलन बदल गया। राज्य में पटरी से उतर चुका जनतंत्र फिर एक बार सही जगह पर स्थापित हुआ, जीवन के सभी क्षेत्रों में, खास तौर पर शिक्षा के क्षेत्र में अर्द्ध-फासिस्ट शासन की अराजकता पर विराम लगा, जनता को राहत देने के कई कार्यक्रम सफलता के साथ चलाये गये, केंद्र-राज्य संबंधों के पुनर्विन्यास की तरह की भारत की संघीय प्रणाली को पुख्ता करने की मांग को जोरदार ढंग से उठाया गया, राजनीतिक आधार पर केंद्र द्वारा राज्य से किये जाने वाले भेद-भाव के खिलाफ व्यापक जन-आंदोलन छेड़े गये। फलत: देश के सबसे लंबे काल तक मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु ने एक सबसे वरिष्ठ राष्ट्रीय नेता की प्रतिष्ठा अर्जित की। बुर्जुआ प्रचारतंत्र द्वारा वाम मोर्चा के शासन काल में पश्चिम बंगाल के पिछड़ने का जो मिथ तैयार किया था, उसे नई दिल्ली स्थित ‘सेंटर फार पालिसी अल्टरनेटिव्स’ की ओर से प्रकाशित ‘इकॉनामिक ग्रोथ एंड डेवलपमेंट इन वेस्ट बेंगाल : रियल्टी वर्सेस पर्सेप्सन’ में संकलित तथ्यों ने तार-तार कर दिया है।
1980 में केंद्र में फिर से इंदिरा कांग्रेस की सरकार बन गयी थी। उस सरकार ने एसमा, नासा की तरह के काले कानून लागू किये। ज्योति बसु ने दृढ़ता के साथ यह ऐलान किया कि पश्चिम बंगाल में इन काले कानूनों को लागू नहीं किया जायेगा। इसीसमय फिर एक बार केंद्र-राज्य संबंधों के सवाल को उठा कर ज्योति बसु ने इस प्रश्न पर सरकारिया आयोग के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इसीप्रकार पश्चिम बंगाल के औद्योगीकरण के सवाल पर, अलगाववादी ताकतों को अलग-थलग करने में ज्योति बसु ने जो आंदोलनात्मक कार्यक्रम अपनाये वे भारत के राजनीतिक इतिहास में विशेष महत्व रखते हैं। 1984 में इन्दिरा गांधी की हत्या के ठीक बाद पूरे देश में सिख-विरोधी नफरत की जिस आग को फैलाने की कोशिश की गयी थी, एक सचेत और प्रभावशाली प्रशासक के रूप में पश्चिम बंगाल को उस आग से बचाने में ज्योति बसु की भूमिका बेहद प्रेरणादायी कही जा सकती है।
एक कम्युनिस्ट होने तथा आम जनता के संघर्षों से घनिष्ठ रूप से जुड़े होने के नाते ज्योति बसु नारी की स्वतंत्रता और समानता के दृढ पक्षधर थे। वे बार-बार इस बात को कहते थे कि सिर्फ कहने के लिये नहीं बल्कि वास्तव में हमें हर हाल में नारियों के समान अधिकारों के आंदोलन को आगे बढ़ाना होगा। उनके नेतृत्व में प्रथम वाम मोर्चा सरकार के सत्ता में आने के साथ ही त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का कानून बना। इसीसे प्रेरणा लेकर बाद में 74वां संविधान संशोधन करके इन निकायों में महिलाओं के 33 प्रतिशत आरक्षण का केंद्रीय विधान बना। पंचायतों में महिलाओं की शानदार भूमिका उन्हें हमेशा उत्साहित करती थी। और वे इस बात को हमेशा बड़े गर्व के साथ कहते थे कि महिलाओं को जहां भी मौका दिया गया है उन्होंने खुद को साबित करके दिखाया है। उन्हींके मुख्यमंत्रीत्व काल में सन् 1998 में पश्चिम बंगाल विधान सभा ने महिला आरक्षण विधेयक के पक्ष में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास करके पूरे देश में एक मिसाल कायम की थी। ज्योति बसु के नेतृत्व में ही इस राज्य में महिलाओं को जमीन के संयुक्त पट्टे दिये गये। मुझे एक छोटी सी घटना याद आ रही है। साक्षरता आंदोलन में हमारे राज्य के अच्छे योगदान के चलते यूनेस्को द्वारा नोमा पुरस्कार पेरिस में दिया जाने वाला था। जैसा कि आम तौर पर होता है विभाग के अफसर ही इन सब समारोहों में जाने के लिये सबसे पहले लाइन लगा लेते हैं। इस विभाग का दायित्व हमारी एक महिला मंत्री संभाले हुए थी। ज्योति बसु को जब पता चला कि महिला मंत्री इस समारोह में नहीं जाकर अफसर जा रहे है तो उन्होंने उसी समय मंत्री को बुलाया और कहा कि यह नहीं हो सकता। इसी वक्त सारी व्यवस्था करो और इस समारोह में शिरकत करो। ज्योति बसु ने तत्काल सारे इंतजाम करवाये। इसी तरह महिला विधायक तथा महिला मंत्री किस तरह काम कर रहे हैं, उन्हें कोई परेशानी तो नहीं हो रही है,इस बात का वे विशेष तौर पर खयाल रखते थे। ज्योति बसु के नेतृत्व की वाम मोर्चा सरकार के काल में पश्चिम बंगाल में अन्य जनतांत्रिक आंदोलनों के साथ ही महिला आंदोलन भी काफी तेजी से आगे बढ़ा।
1989 में केंद्र में कांग्रेस पराजित हुई और वी पी सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा की जो सरकार बनी, उसके गठन में ज्योति बसु ने अहम भूमिका अदा की थी। तभी से उन्होंने इस बात को भी समझ लिया था कि देश में अब क्रमश: साझा सरकारों का काल शुरू हो रहा है।
1991 से 1996 तक नरसिम्हा राव ने तमाम भ्रष्ट उपायों से अल्पमत की अपनी सरकार को चलाया लेकिन 1996 में फिर कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुई। इस समय ज्योति बसु को ही विपक्ष की सभी पार्टियों ने एक गैर-कांग्रेसी, गैर-भाजपा सरकार के प्रधानमंत्री पद के लिये सबसे उपयुक्त ब्यक्ति के रूप में चुना था, लेकिन तब सीपीआई(एम) ने एच.डी.देवगौड़ा के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चा सरकार को बाहर से समर्थन देने का निर्णय लिया। 1994 में ज्योति बसु ने ही पश्चिम बंगाल के औद्योगीकरण का एक प्रस्ताव तैयार करके उसे राज्य की विधानसभा से सर्वसम्मति से पारित कराया था।
ज्योति बसु ने अपने अनुभवों और विचारधारात्मक विषयों पर असंख्य लेख लिखे। वे बहुत ही स्पष्ट वक्ता थे। उनके भाषणों में आलंकारिता नहीं होती थी। उनकी बातों की सचाई का आम लोगों पर जादूई असर हुआ करता था। उनको सुनने के लिये कोलकाता तथा पश्चिम बंगाल के तमाम क्षेत्रों में जितनी भारी भीड़ जुटा करती थी, उनकी अंतिम विदाई के समय भी उसीकी एक झलक देखने को मिली। वे सच्चे अर्थों में एक जननेता थे। वे अक्सर कहा करते थे कि जनता के हितों के अलावा कम्युनिस्टों का अपना कोई हित नहीं है। माक्र्सवाद कोई जड़सूत्र नहीं, बल्कि समाज को बदलने और व्यवहार के क्षेत्र में राजनीति को दिशा दिखाने वाला विज्ञान है। आम लोग ही संघर्षों के जरिये इतिहास की रचना करते है। जनता पर विश्वास रखो और अपने आज के काम को पूरी निष्ठा के साथ पूरा करो।
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