झारखंड के मुख्यमंत्री के नाम एक खुला पत्र जारी कर वरिष्ठ पत्रकार सुनील कुमार तिवारी ने राज्य सरकार की कार्यशैली पर कई सवाल खड़े किये हैं। खासकर दूसरे राज्यों में फंसे प्रवासी मजदूरों और छात्रों के संबंध में उनके सवाल काफी तीखे हैं। पुलिस की कार्यशैली पर उन्होंने कटाक्ष किये हैं। आप भी देखें कि इस लंबे पत्र में क्या लिखा हैः
आदरणीय मुख्यमंत्री जी,
मैं झारखंड राज्य के एक सजग नागरिक की हैसियत से अपने अनुभव विनम्रतापूर्वक आपके संज्ञान में लाना चाहता हूं। देश के अन्य राज्यों की भांति झारखंड भी वर्तमान में कोरोना वैश्विक महामारी से जूझ रहा है। ऐसे में राज्य में अभी सारे मसले, सरकार की सारी गतिविधियां कोरोना के इर्द-गिर्द मंडराती दिख रही हैं और दिखनी भी चाहिए। आम-खास सभी लोगों की जिन्दगी व दिनचर्या भी इसी महामारी के मुद्दों के बीच सिमटकर रह गई है। कोरोना से जुड़े राज्य या राज्य से बाहर के उन सारी गतिविधियों और उसके बचाव पर सरकार द्वारा हो रहे सार्थक प्रयासों पर हर नागरिक की तरह मेरी भी पैनी नजर है। बीते लगभग 15 दिनों से राज्य में कोटा से बच्चों की वापसी के मामले पर चल रहे राजनीतिक चूहे-बिल्ली के खेल सहित कुछ ज्वलंत सवालों पर मैं अपना विचार आपसे साझा कर रहा हूं।
कोटा से छात्रों को लाने के सवाल पर अब तक के पत्राचार और वार्तालाप से मुझे जो समझ में आया है कि एक ओर जहां केन्द्रीय व्यवस्था की चुप्पी मानवता और प्रतिबद्धता का सूचक है, वहीं दूसरी ओर इससे राज्य सरकार की मानसिकता से हल्के दर्जे की राजनीति की गंध आती है। कुछ फैसले राजनीति से परे व मानवता के तहत लिये गए होते हैं। आपने इस प्रक्ररण में प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में अपनी कमजोरी छुपाते हुए बड़ी चालाकी और साफगोई से जिस प्रकार अपने-आप को केन्द्र सरकार की गाइडलाइन का सबसे बड़ा पालनकर्ता बताकर केन्द्र के पाले में गेन्द डालने का प्रयास किया है, उसकी हम सराहना करते हैं। परंतु जब हम राज्य में लाकडाउन के केन्द्रीय गाइडलाइन के पालन के संदर्भ में दूसरे मामलों पर नजर डालते हैं तो सबसे बड़े पालनकर्ता व केन्द्र सरकार की गाइडलाइन को लेकर ऐसी फिक्रमंदी की झलक कहीं नहीं दिखती।
हम आपको थोड़ा पीछे लिए चलते हैं, जब केन्द्र सरकार ने पहली बार 24 मार्च को लाॅकडाउन की घोषणा की थी। तब आपकी सरकार के एक मंत्री द्वारा केन्द्रीय गाइडलाइन का उद्घाटन ही इसकी धज्जियां उड़ाकर किया गया था। राजधानी से बसों में ठूंस-ठूंस कर सैकड़ों लोगों को पाकुड़ और पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती इलाके में भेजा गया। उस वक्त आपका यह समर्पण कहां था? अब यह मामला उच्च न्यायालय में है और राज्य सरकार सही तरीके से न्यायालय के सामने अपना पक्ष तक नहीं रख पा रही है। लग रहा है कि अब उस पूरे मामले की लीपापोती के लिए- सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे- की तर्ज पर मंत्री जी के दामन को लाकडाउन तोड़ने की शुरुआत करने के महापाप से बचाने के लिए कुछेक अधिकारी को बलि का बकरा बनाकर सरकार अपना दायित्व निर्वहन का टास्क पूरा कर सकती है।
राज्य के मुखिया होने के नाते केन्द्रीय गाइडलाइन और कोरोना को लेकर आपको इतनी ही चिंता थी तो राजधानी के एक छोटे से मुहल्ले को, जहां आप खुद मुआयना करने गये और आपकी पूरी मशीनरी लगी हुई थी, उसे संभालने में एक माह और दो दिन लग गए, फिर भी वह क्यों नहीं संभला? तब शासन की लापरवाही को लेकर अखबारों की खबर पर माननीय उच्च न्यायालय को स्वतः संज्ञान तक लेना पड़ा। नाराजगी भी जतानी पड़ी। इन सब के बावजूद जब गोल-गोल बात करने वाली आपकी पुलिस से राज्य की कौन कहे, राजधानी का एक छोटा-सा मुहल्ला भी नहीं संभला, तब वहां मजबूरन आपको सीआरपीएफ की सेवा लेनी पड़ रही है। काश, आप यह बात शुरू में ही समझ गये होते तो शायद स्थिति इतनी बदतर नहीं होती। आपको लोग जरूर बताते होंगे कि सरकार की पूरी मशीनरी लगने के बाद भी एक छोटे से मुहल्ले को नहीं संभाल पाने के कारण सरकार की कितनी जग-हंसाई हुई है।
इस दौरान आपने तो हाईकोर्ट और केन्द्र की बातों को भी अनसुना कर दिया और आज कोटा से बच्चों को लाने में आप खुद को इतना कानूनपसंद होने का दिखावा कर रहे हैं कि इसमें मानवता की कहीं कोई गुंजाइश ही नहीं बचती। दूसरे राज्यों की भांति आप खुद तो बच्चों को ला नहीं सके और अब दूसरे राज्यों को ही कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। एक सजग नागरिक होने के नाते मैं इस कड़वी सच्चाई से वाकिफ हूं कि वर्तमान परिस्थिति में सामूहिक यात्रा करवाना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है। यह एक जोखिम भरा खतरनाक कदम हो सकता है। मैं कतई आपसे कोटा छात्रों को लाने के बारे में चर्चा भी नहीं करता, यदि आपने लाकडाउन एवं सामाजिक दूरी पालन कराने के दूसरे मामले में अपने कदम से ऐसा एहसास कराया होता कि आपके लिए खुद के राजनीतिक हित से कहीं ज्यादा सर्वोपरी राज्यहित है। क्या वजह थी कि कोरोना नियमों का सख्ती से पालन कराने के मामले में केन्द्र सरकार के नियमों की जो गंगा दिल्ली से निकलती थी, वह रांची के हिंदपीढ़ी मुहल्ले के मुहाने तक आते-आते सूख जाती थी? और वहां झारखंड की पूरी प्रशासनिक मशीनरी घुटने टेक कर तब तक मूकदर्शक बनी रही, जब तक माननीय हाइकोर्ट ने हस्तक्षेप कर शासन को सही रास्ते चलने के लिये निर्देशित नहीं किया। शुरू में आप चाहते तो अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति से सख्ती बरतकर और केन्द्र के नियमों का अक्षरशः पालन कर आधे राज्य को संक्रमित होने की संभावना से बचा सकते थे। लेकिन पता नहीं, किन अदृश्य ताकतों के दवाब में आप ऐसा नहीं कर पाये?
यह सही है कि सारे बच्चों व मजदूरों को वापस लाने की न तो राज्य की क्षमता है और न यह समय उपयुक्त है। फिर भी उदारतापूर्वक कई चरणों में भी इस काम को शुरू कराने का प्रयास किया जा सकता था। जहां तक कोटा के बच्चों को लाने का सवाल है, इसमें कोई दो राय नहीं है कि वहां कोचिंग करने जाने वाले बच्चों में ज्यादातर साधन-सम्पन्न लोगों के परिवार के हैं। वे लोग अपने बच्चों को खुद लाने में सक्षम हैं। आपको तो सिर्फ दूसरे राज्यों के नक्शेकदम को अपनाकर परमिशन की चिठ्ठी उन्हें उसी तरह थमा भर देनी थी। राजस्थान सरकार बार-बार अपील कर रही है कि जो भी राज्य चाहें, अपने बच्चे ले जाएं। रास्ते में पड़ने वाला उत्तर प्रदेश, जहां की सरकार खुद यह काम कर चुकी है तो वह किस नैतिकता के आधार पर आपके राज्य के बच्चों को आने से रोकती? फिर विंध्याचल, मिर्जापुर होकर ये बच्चे सीधे गढ़वा के रास्ते झारखंड में प्रवेश कर यहां आ सकते थे। हां, इन्हें सुरक्षा के तमाम मापदंड पूरा करने की सख्त हिदायत दी जाती। फिर यहां आने के बाद क्वारनटांइन के नियमों का सख्ती से पालन कराने एवं कोरोना की पूरी जांच के बाद ही उनको घरों तक जाने की अनुमति दी जाती। लेकिन ऐसा करना आपने मुनासिब नहीं समझा। आपको तो इस मुद्दे पर राजनीति करनी थी। बच्चों को आपने फुटबाल समझ लिया और केन्द्र को फुटबाल का मैदान। क्योंकि आपको केन्द्र को धूल चटाकर यह बताना था कि आप कितने शक्तिशाली हैं? माना कि आप बहुत शक्तिशाली हैं। आपको लाकडाउन टूटने के बाद आसन्न गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, चिकित्सीय एवं अन्य संसाधनों की कमी, वित्तीय संकट जैसे मुद्दे पर आगे ऐसे हजार अवसर मिलेंगे, जब केन्द्र को आप आराम से कठघरे में खड़ा कर पाएंगे। आप खूब राजनीति करिए। करनी भी चाहिए। राजनीति में भला कौन ऐसा अवसर चूकता है? लेकिन अभी, उन मासूम बच्चों एवं बेसहारा गरीब-मजदूरों के सवाल पर ऐसी राजनीति से बचिए।
इससे ही जुड़ा और एक मामला है जो बेहद गंभीर है। एक छोटे से मुहल्ले हिन्दपीढ़ी को सरकार नहीं संभाल पायी, झारखंड के आवाम को इसकी पीड़ा अपनी जगह है। पर दुखद विषय यह है कि आप अपनी पुलिस को भी नहीं संभाल पाए। झारखंड पुलिस की कारगुजारी और बड़बोलेपन की चर्चा राज्य के कोने-कोने में तो हो ही रही है, साथ ही देश-विदेश में भी यहां की पुलिस के रवैये एवं बड़बोलेपन की आलोचना हो रही है। आपको तो आपके शुभचिंतकों ने बताया ही होगा कि पुलिस ने अपनी कारगुजारी से एक शाम ट्वीटर के हैशटैग सर्च में इस राज्य को टाप 5 ट्रेंड के रिकार्ड तक पहुंचाकर किस तरह जगहंसाई करवायी थी।
पुलिस के सर्वोच्च पद पर बैठे प्रभारी मुखिया सेवाकर्मिर्यो पर थूकने के सवाल पर कौआ और नाक की बात करने लगते हैं। जो मामला अनुसंधान अन्तर्गत हो, उस पर राज्य के सर्वोच्च पुलिस अधिकारी का ऐसा बयान क्या संदेश देता है? क्या इस संदेश को छोटे ओहदे पर विराजमान अनुसंधान पदाधिकारी के जांच की दिशा को भटकाने वाला नहीं माना जाएगा? जब इतने बड़े अधिकारी थाने में एफआइआर दर्ज होने के बावजूद थूकने वाले का अतापता नहीं मिल रहे होने का दावा ताल ठोककर कर देते हैं तो किस अनुसंधानक की शामत आई है, उसे ढ़ूंढ़ निकालने का दुस्साहस दिखलाकर सर्वोच्च अधिकारी से पंगा लेगा?
यही नहीं, ट्वीटर-फ्यूटर वालों की औकात भी जानने की बात भी वे सार्वजनिक रूप से इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से बेहिचक होकर पूरी दुनिया को गर्व से बताते हैं। जिस ट्वीटर का व्यवहार प्रधानमंत्री, गृहमंत्री से लेकर आप खुद करते हैं। प्रजातंत्र में किसी की औकात कम बेसी नहीं होती। सभी बराबर होते हैं। क्या आपकी पुलिस कानून नहीं, बल्कि लोगों की औकात देखकर काम करती है? तभी न पुलिस को ’ट्वीटर-फ्वीटर’ वालों का औकात जानना जरूरी लगता है।
राज्य के परिपेक्ष्य में देखा जाए तो राज्य में इसका इस्तेमाल आपसे अधिक कौन करता है? आपकी पूरी सरकार ट्वीटर पर चल रही है। आलोचक तो आपकी सरकार को सरेआम ट्वीटर सरकार के नाम से ही पुकारते हैं। कोरोना जैसे संकट में आपने इसी के सहारे पूरी व्यवस्था बेहतर तरीके से संभाली है। आप जैसे ट्वीटर पर केन्द्रित एवं आधारित लोगों की भी औकात पुलिस के प्रभारी मुखिया को पता है, वे खुद इसे स्वीकार कर रहे हैं। ऐसे में स्पष्ट करनी चाहिए कि राज्य के पुलिस के प्रभारी मुखिया को खुद के साथ ही आपका, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री या और किसके-किसके औकात का पता है? मुझे नहीं लगता है कि कभी आपने बुलाकर भी उनसे कहा होगा कि जिम्मेवार एवं सर्वोच्च पद पर बैठे लोगों को इस प्रकार की हल्की बातें सार्वजनिक रूप से नहीं कहनी चाहिए। वह भी ऐसे संवेदनशील वक्त पर। कानून अपना काम करे। कानून का काम बोलने से अधिक दिखना चाहिए। लेकिन ऐसा हो रहा है क्या? इसका आत्ममंथन एवं तदनुसार अपेक्षित संयम बरतने की नसीहत देने का काम हम आपके विवेक पर छोड़ते हैं।
मेरा व्यक्तिगत मानना है कि यह समय अभी सियासी तू-तू, मैं-मैं और केन्द्र-राज्य के बीच चूहे-बिल्ली का खेल खेलने का कतई नहीं है। राजनीतिक दांव-पेंच व केन्द्र को घुटने टिकाने के हजारों अवसर आपके समक्ष आयेंगे परंतु इन मासूम बच्चों और मजदूरों के नाम पर राजनीति करना अभी उचित नहीं है। सरकार की कार्यशैली में इंसानियत और मानवता के महत्व की झलक भी दिखनी चाहिए। ऐसी विपदाओं में सत्तासीन लोगों के लिए अपने राजनैतिक कौशल दिखाने के अवसर भी छिपे होते हैं। कोई इसी में निखर जाता है तो कोई पीछे छूट जाता है। निश्चित तौर पर इतिहास इस दौर का आकलन करेगा। तब आपके बतौर मुख्यमंत्री पास या फेल होने की भी विवेचना होनी तय है। यह भी सच है कि कोई भी किसी आपदा-महामारी के नुकसान व उसकी गंभीरता का पूर्वानुमान नहीं लगा सकता है, परंतु कोरोना संकट से जूझ रहे दूसरे राज्यों और अन्य देशों से सबक नहीं लेना भी तो उचित नहीं कहा जा सकता है।
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हम यह भी मानते हैं कि आपदा को कहीं दाखिल होने से रोक पाना असंभव है, परंतु अपनी समझदारी व सतर्कता से इसके नुकसान को तो कम किया ही जा सकता है। आप स्वीकार करें या नहीं, सच्चाई है कि आपसे यहीं पर बड़ी चूक हो गई या आपको अंधेरे में रखा गया। अगर आपने पहले संक्रमित मरीज के बाद ही अपनी पैनी नजर से स्थिति को भांपते हुए इसे संभाल लिया होता तो शायद आज राज्य को इतनी भयावहता का सामना नहीं करना पड़ता। मेरा मानना है कि किसी भी सरकार की विश्वसनीयता खतरे में नहीं पड़नी चाहिए। अभी तो जो स्थिति है, सो है। भगवान ना करे, कल यह दौर अगर लंबा खींचा तो आपको और कई चुनौतियों मसलन भय, भूख, गरीबी, बेरोजगारी, अपराध जैसे अराजकता से भी सामना करना पड़ सकता है।
आशा है, आप मेरे द्वारा आपसे साझा की गई इन बातों को अन्यथा नहीं लेंगे। मैंने जो अनुभव किया, उसे अक्षरशः आपसे साझा किया। आज ही मुझे एक मित्र ने गुजरात से लोगों को उत्तरप्रदेश जाने के लिए जो परिवहन अनुमति दी गई है, उसकी प्रति भेजी है। यह कितना सही है और कितना गलत, हम इसकी विवेचना नहीं कर रहे हैं। सिर्फ आपके अवलोकनार्थ इसको संलग्न कर रहा हूं। उम्मीद है, जिस प्रकार आप छोटे-छोटे नागरिकों की बात ध्यान से सुनते हैं, ठीक उसी तरह मेरे जैसे आम नागरिक की पीड़ा को भी समझने की कोशिश करेंगे।
सादर !
सुनील कुमार तिवारी
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