- वीर विनोद छाबड़ा
दुश्मन फिल्म का समाज में स्वागत तो हुआ, पर अवार्ड नहीं मिला। समाज में स्वागत का प्रमाण इसकी ज़बरदस्त कामयाबी है। लेकिन इसे कोई बड़ा पुरुस्कार नहीं मिला। 1972 में एक फ़िल्म रिलीज़ हुई थी, दुश्मन। सुरजीत (राजेश खन्ना) नाम का एक मस्तमौला ड्राइवर है। एक दिन उसकी नशे और जल्दबाज़ी की ड्राइविंग के कारण एक किसान रामदीन की मौत हो जाती है। लेकिन सुरजीत भागता नहीं है। मदद करने की कोशिश करता है। पुलिस उसे गिरफ्तार कर चार्जशीट सहित अदालत में पेश करती है।
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जज साहब (रहमान) ने पक्ष-विपक्ष को सुना और मृत किसान के पीड़ित परिवार और आई विपत्ति को भी दृष्टिगत किया। उनकी सोच है कि अपराधी को जेल भेजने से इंसाफ़ नहीं होगा। वो एक ऐसा प्रयोग करना चाहते हैं जो नज़ीर बने। वो एक विचित्र एवं ऐतिहासिक निर्णय देते हैं। सुरजीत को उस पीड़ित परिवार की सेवा में लगा दिया। दुखिया परिवार के खेतों में काम करो, कमाओ और परिवार का भरण पोषण करो। परिवार में दिवंगत रामदीन के वृद्ध पिता गंगादीन (नाना पलिसकर), उसकी वृद्धा अंधी मां (लीला मिश्रा), पत्नी मालती (मीना कुमारी) बहन कमला (नाज़) और दो बच्चे हैं।
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सुरजीत को इस अजीब फैसले पर ऐतराज़ है। वो जज साहब से बार-बार गुज़ारिश करता है कि वो फैसला बदलें। लेकिन जज साहब अटल रहे। सुरजीत पीड़ित के गांव पहुंचता है। वहां उसका गालियों से स्वागत होता है। उस पर पत्थर भी फेंके जाते हैं। पीड़ित परिवार उसे घर में नहीं घुसने देता। सुरजीत भागने की कोशिश करता है। लेकिन पुलिस उसे पकड़ कर फिर उसी गांव में वापस छोड़ आती है। उस परिवार को भी समझाया जाता है, आपकी मदद करेगा।
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सुरजीत उसी गांव की बाइस्कोप दिखाने वाली फूलमती (मुमताज) से प्यार करने लगता है। दोनों मिल पीड़ित परिवार का दिल जीतते हैं। सुरजीत उस परिवार पर गंदी नज़र रखने वाले टिंबर मालिक (अनवर हुसैन) से उनकी रक्षा करता है। दो साल गुज़र जाते हैं। सुरजीत की सजा ख़त्म होती है। लेकिन न तो पीड़ित परिवार सुरजीत को छोड़ना चाहता है और न ही सुरजीत। सुरजीत प्रार्थना करता है उसे पीड़ित परिवार के साथ रहने के लिए ताउम्र की सजा दी जाए। जज साहब प्रयोग कामयाब रहा। सजा ऐसी होनी चाहिए कि अपराधी को सुधरने का मौका मिले और पीड़ित पक्ष के ज़ख्म पर मरहम भी लगे।
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प्रोड्यूसर प्रेम जी की इस फिल्म को ‘चांद और सूरज’, मेरे हमसफ़र और ‘धरती कहे पुकार के’ वाले दुलाल गुहा ने निर्देशित किया था। दुलाल गुहा ने बाद में दोस्त, प्रतिज्ञा, खान दोस्त, दो अंजाने, दिल का हीरा, धुआं, दो दिशायें जैसी कामयाब फ़िल्में भी डायरेक्ट की।
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समाज में इस फिल्म स्वागत हुआ। इसका प्रमाण इसकी ज़बरदस्त कामयाबी है। लेकिन इसे कोई बड़ा पुरुस्कार नहीं मिला। दरअसल इनाम देकर इस यूटोपियन विचार का कोई पक्षधर बनना नहीं चाहता था। हमारा समाज ऐसे विचारों का परदे पर भले ही स्वागत करता हो लेकिन धरती पर लाइव उसे मंज़ूर नहीं। आज भी कमोबेश यही स्थिति है। हालांकि हिन्दू अख़बार ने इसकी जम कर तारीफ़ की।
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‘दुश्मन’ बाद में तमिल, तेलगु और कन्नड़ में भी बनी और कामयाब भी रही। आनंद बक्शी के गीत और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का संगीत इस फिल्म का मज़बूत पक्ष थे। लेकिन इसके बावज़ूद इसमें में कुल चार गाने थे। कॉमेडी के लिए बेवजह की उपकथा भी नहीं चली। इसलिए कि फिल्म अपने उद्देश्य भटके नहीं।
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पचास से सत्तर के ज़माने में खूंखार अपराधी तक को जेल की काल कोठरी के बजाये बाहर रख कर उसकी उपयोगिता खोजने से संबंधित वी. शांताराम ने ‘दो आंखें बारह हाथ’ भी बनाई थी, इस पर लेख फिर कभी।
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